पंजाब में कम मतदान ने बदले समीकरण, सिर्फ दो बार दलों को नहीं मिला स्पष्ट बहुमत
जोशीले पंजाबियों ने रविवार को मतदान में अपना जोश नहीं दिखाया और पिछले चुनावों के मुकाबले करीब 10 फीसदी मतदान कम हुआ।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जोशीले पंजाबियों ने रविवार को मतदान में अपना जोश नहीं दिखाया और पिछले चुनावों के मुकाबले करीब 10 फीसदी मतदान कम हुआ। हालांकि 10 फीसदी वोटर बढ़ने से उम्मीद थी कि पंजाब में इस बार मतदान 80 फीसदी पार कर जाएगा लेकिन जोश ठंडा होने के कारण मतदान 68.03 फीसदी तक ही रहा।
पंजाब में कुल 117 विधानसभा सीटें हैं। राज्य में 2.14 करोड़ से अधिक मतदाता थे। 2017 में यह संख्या एक करोड़ 92 लाख के करीब थी। 2017 के चुनावों में मतदाताओं में खासा उत्साह था और मतदाताओं ने सुबह से ही मतदान की गति को तेज रखा था। सत्ता विरोधी लहर होने के कारण मुख्य विरोधी दल कांग्रेस को 77 सीट मिली थीं। कांग्रेस पार्टी को 38.5 फ़ीसदी वोट मिले थे जबकि शिरोमणि अकाली दल को 25.3 फ़ीसदी वोट व आम आदमी पार्टी को 23.8 फ़ीसदी वोट मिले थे। भाजपा 5.3 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी थी।
पंजाब में पहली बार चुनाव कई सीटों पर चौकोणीय और कुछ सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला है। आम आदमी पार्टी की शहरी क्षेत्रों में एंट्री से मुकाबला दिलचस्प व कांटे का बन गया है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे थे कि पंजाब में इस बार बंपर वोटिंग होगी। जिस तरह से पीएम मोदी की तीन रैलियां हुईं, आप ने तीखा चुनाव प्रचार किया, उससे अधिक मतदान की खासी उम्मीद थी लेकिन रविवार सुबह से ही मतदाताओं का जोश नरम दिखा।
सुस्त वोटिंग का सिलसिला दोपहर तक चलता रहा और 12 बजे के करीब मतदान ने कुछ रफ्तार पकड़ी और दोपहर बाद चार बजे तक मतदान 52.2 फीसदी पहुंच गया था। शाम छह बजे तक मतदान 64 फीसदी हो चुका था। मतदान कम होने से जहां सत्तासीन नेता खुद को सुरक्षित मान रहे हैं। वहीं, विरोधी भी वोट प्रतिशत कम होने से नफा नुकसान का आकलन करने में जुट हैं।
राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ लेखक राकेश शांतिदूत का कहना है कि पहले एक घंटे में 4.5 फीसदी वोट पड़े जबकि पिछले चुनावों में पहले एक घंटे में 10 फीसदी वोट पड़े थे। जिससे साफ है कि मतदाताओं का उत्साह ठंडा था। कोरोना का प्रोटोकॉल भी फॉलो करना था लेकिन इसके साथ चुनाव आयोग ने मतदान की समय सीमा बढ़ा रखी थी। उनका कहना है कि मतदान प्रतिशत गिरने का फायदा तो सत्ताधारी पार्टी को ही होता है लेकिन मौजूदा हालात में कुछ कहना जल्दबाजी होगी।
पंजाबियों ने सिर्फ दो बार स्पष्ट बहुमत नहीं दिया
पंजाब के चुनावी इतिहास में केवल दो बार ऐसा हुआ है कि जब किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। पहली बार 1967 में और दूसरी बार 1969 में लेकिन दोनों ही बार जोड़तोड़ की सरकार बनी पर पांच साल सरकार नहीं चल सकी। 1969 के बाद से जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें पूर्ण बहुमत मिला है।
1967 में ऐसा हुआ था जब किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो चुनाव के बाद गैर-कांग्रेसी दलों ने पीपुल्स युनाइटेड फ्रंट नाम से एक गठबंधन बनाया और अकाली दल के नेता गुरनाम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने लेकिन सिर्फ 262 दिन में ही उनकी सरकार गिर गई। लछमन सिंह गिल के अलग होने के चलते उनकी सरकार अल्पमत में आ गई।
बाद में लछमन सिंह गिल कांग्रेस के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री बने लेकिन वो भी ज्यादा दिनों तक सरकार नहीं चला सके। 1969 में दोबारा से पंजाब चुनाव हुए। 1969 के चुनाव के बाद पांचवीं विधानसभा अस्तित्व में आई। इस बार भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। शिरोमणि अकाली दल को 48 सीटों पर जीत मिली, जबकि 38 सीटें कांग्रेस ने जीतीं और 8 सीटों पर भारतीय जन संघ के प्रत्याशी जीते। युनाइटेड फ्रंट की मिलीजुली सरकार में अकाली दल नेता गुरनाम सिंह दूसरी बार 17 फरवरी 1969 को राज्य के मुख्यमंत्री बने। इस बार उनकी सरकार 1 साल 38 दिन चली। उनके बाद अकाली दल के ही प्रकाश सिंह बादल भारतीय जन संघ के समर्थन मुख्यमंत्री बने।