उफनती सरवरी नदी किनारे टूटी झोंपड़ी में बसेरा, बूढ़ी दादी व 2 पोतों को दुखों ने घेरा
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कुल्लू। उम्र 80 पार की दुनिया के हर रंग आंखों से ओझल...। उसके लिए अपने जीवन के साथ दो मासूम बच्चों को पालना हर पल मुश्किल होता जा रहा है। ऊपर से गरीबी, टूटी-फूटी झोंपड़ी जो बरसात होते ही पानी से भर रही है। जीवन के ऐसे ही कुछ कठिन दौर से गुजर रही है सरवरी खड्ड के पास झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली 84 वर्षीय साहेबा देवी, जिसे अपनी जिंदगी से ज्यादा अपने दो मासूम पोतों 8 वर्षीय अवतार और 10 वर्षीय सूरज की ङ्क्षचता दिन-रात सताती रहती है। इन दोनों बच्चों की मां इस दुनिया में नहीं है, पिता रोजी-रोटी कमाने के लिए शहरों की खाक छान रहा है। वह कभी चूहे मारने की दवा तो कभी छोटा-मोटा सामान फेरी में बेचकर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर रहा है। ऐसे में 84 वर्षीय बुजुर्ग व दोनों बच्चे लोगों की दया व आश्रय पर पल रहे हैं, लेकिन इस तरह जिंदगी कब तक गुजरेगी। शायद यही ङ्क्षचता साहेबा देवी को अंदर ही अंदर खाए जा रही है।
झोंपड़ी में बरसात का भरा पानी, पड़ोसियों ने दी शरण
झोंपड़ी की दीवार एक तरफ टूटी हुई, ऐसे में गत देर रात को हुई मूसलाधार बारिश ने उनकी परेशानी को चीखों में बदल दिया। झोंपड़ी की छत एकाएक टपक पड़ी व बारिश का सारा पानी अंदर भर गया। पड़ोसी पूनम देवी व शम्मी देवी बताती हैं कि देर रात को जब वे सो रही थीं तो दोनों बच्चे अवतार व सूरज रोते-चिल्लाते उन्हें पुकारने लगे कि हमारी दादी पानी में फंस गई है, उसे बचाओ। वे भाग कर झुग्गी के अंदर आए तथा बुजुर्ग दादी को सुरक्षित बाहर निकाला। ऐसे में उनके पास आश्रय के लिए कोई स्थान न देख पड़ोसियों ने अपने घर शरण दी।
सूरज-अवतार को दादी से मिली मां की ममता
सूरज व अवतार ने बचपन मे मां को खो दिया। उन्हें तो अपनी मां का चेहरा भी सही से याद नहीं। ऐसे में दादी की गोद में मां की ममता को महसूस करते हैं। वह अपनी दादी को जिसे आंखों से बहुत कम दिखता है, को अपने हाथों से खाना खिलाते हैं, बच्चों की तरह नहलाते हैं, बाल बनाते हैं। ऐसे में दादी की बिगड़ती तबीयत व सही समय पर खाना न मिल पाना बच्चों के चेहरों की मासूमियत को भी गुम करती जा रही है।
तेज दिमाग के हैं दोनों बच्चे
पड़ोसी बताते हैं कि दोनों बच्चों को उनके पिता ने सरकारी स्कूल में दाखिल करवाया है। अभी कुछ महीने हुए उन्हें स्कूल जाते हुए लेकिन उन्हें स्कूल में पढ़ाया हुआ सब याद है। जिसे वह कॉपी पर भी लगातार लिखते रहते हैं।
फोटो खिंचवाने तक ही सीमित समाजसेवी संस्थाएं
शहर में कई सामाजिक संस्थाएं लोगों की मदद करने का ढिंढोरा पिटती हैं। जिनमें से अधिकांश की मदद वह अपना फायदा देख, जहां से प्रसिद्धि की संभावना अधिक होती है वहीं करना सही समझती हैं। जबकि जरूरत के वक्त मदद करने मेें ऐसी संस्थाओं की कोई रुचि नहीं होती।
दर्जनों योजनाएं, बढ़ता भारत लेकिन यहां कहां
मसलन इस परिवार को सरकारी मदद की दरकार है। हालांकि बेसहारा व इस तरह के गरीब परिवारों, उनके बच्चों व महिलाओं के लिए समाज कल्याण महकमा व अनेक विभागों में दर्जनों योजनाएं चल रही हैं लेकिन इन योजनाओं की धरातल पर पोल वास्तविक स्थिति देखकर खुलती नजर आती है। इस तरह से प्रशासन और विभागों के नाक तले इस परिवार की दुर्दशा बनी हुई है लेकिन सभी बेखबर हैं।
हैप्पी कैप्टन फाऊंडेशन ग्रुप को सैल्यूट, शाबाश! लगे रहो...
जहां बड़ी-बड़ी सामाजिक संस्थाओं ने मुंह मोड़ लिया, वहीं हैप्पी कैप्टन फाऊंडेशन ग्रुप जो कुल्लू कालेज के बच्चों का एक सामाजिक ग्रुप है, मसीहा बनकर इस परिवार की मदद के लिए सामने आया। ग्रुप की निकिता ठाकुर ने बताया कि वह सुबह होते ही झुग्गी में पहुंचे तथा बुजुर्ग महिला व उसके पोतों से मिले, उन्हें खाना खिलाया तथा झुग्गी के लिए 2400 रुपए की तिरपाल का इंतजाम किया जिससे फिलहाल छत से कम पानी टपक रहा है। इतना ही नहीं, फाऊंडेशन के सदस्य रोजाना झुग्गी में जाकर छोटे-छोटे बच्चों को नि:शुल्क ट्यूशन दे रहे हैं जोकि बड़ी समाजसेवी संस्थाओं के लिए सीख लेने जैसा है।