राजनांदगांव। रोशन साहू 'मोखला' निवासी जनता से रिश्ता के पाठक ने एक कविता ई मेल किया है।
// चीर हरण //
जब हो रहा था चीरहरण, क्यों रखी मेरी लाज।
धर्म मर्म के मूल हे! मोहन, मुझे बता दो आज।।
याद करो द्रौपदी तुम जब, गयी थीं यमुन स्नान।
नहा रहे वहीं एक साधु,जिसका तुझे था ध्यान।।
याद आया उनके तन पर, मात्र एक लंगोटी थी।
बदलने के लिए तट पर,उसने जो रख छोड़ी थी।।
तेज हवा के झोंके से जो, जल धार में जा बही।
नहाये क्या निचोड़े क्या,किसी ने सच ही कही।।
दुर्भाग्य भी तो न जाने ,दिन कैसे दिखलाती है ।
सिर मुंडाए देर नही कि,जैसे ओले पड़ जाती है।।
भीगी हुई लंगोट पुरानी,उसी समय जब गई फट।
तन ढकने में थी मुश्किल,हुई समस्या और विकट।।
लगा फैलने अब उजियारा, दिशा-दिशा चहूँ ओर।
भीड़ तो बढ़ती जा रही थी, उसी घाट उसी ओर।।
लाज बचाए तो अब कैसे,साधु पड़ा असमंजस में।
सूझा उपाय मन जैसे- तैसे, बच पाए अपयश से।।
खुद को छिपा लिया उसने,वहीं पास की झाड़ी में। दिन बीते तब घर जाऊं मैं ,अर्धरात्रि अंधियारी में।।
देख रहीं थी तुम द्रौपदी,यह दृश्य सारा का सारा।
जग में होते हैं कई-कई, ऐसी किस्मत का मारा।।
साधु की कठिनाई समझ, मदद की ठानी तुमने।
पास न दूजी धोती थी सो,आधी फाड़ डाली तूने।।
आधी में ही तन ढंककर,उस राह चली पांचाली।
हे!पिता मैं सब समझूँ कह, आधी साड़ी दे डाली।।
कृतज्ञता की भाव भरे, आंखें झर-झर बरस रहे।
देता चला आशीष तुझे, लाज सदा हरि ढके रहे।।
जब मेरे चक्र सुदर्शन ने ,शिशुपाल का सिर कांटा।
तब मेरी चोटिल अंगुली में,साड़ी टुकड़ा था बांधा।।
सुन कृष्णा!प्राणी का पुण्य,कभी वृथा न जाता है।
ईश्वर कभी न पास रखता,सहस्त्र गुणा लौटाता है।।
मनुष्य के पुण्य बिन जैसे, स्वयं असमर्थ विधाता।
कर्मो से याचक औ दाता,हरि पास बही न खाता।।