सोशल व डिजिटल मीडिया पर खींचनी होगी लक्ष्मण रेखा...

अभिव्यक्ति की आजादी

Update: 2020-11-30 06:10 GMT

फर्जी न्यूज वेबसाइट पर कैसे कसे शिकंजा...?

छग में नये कानून के अनुसार कार्रवाई का इंतजार


पप्पू फरिश्ता

बानगी 1 : आईपीएल के दौरान निराशाजनक प्रदर्शन के चलते क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी की पांच साल की बिटिया जीवा को सोशल मीडिया प्लेटफॉॅर्म पर धमकी।

बानगी 2 : इलाज के लिए जब महानायक अमिताभ बच्चन लीलावती अस्पताल में थे, तब सोशल मीडिया प्लेटफॉॅर्म पर भ्रम फैलाते हुए उनके बारे में आपत्तिजनक पोस्ट किए गए। 29 जुलाई को अमिताभ बच्चन इससे इतने आहत थे कि उनकी पीड़ा यूं बयां हुई-यदि मैंने अपने फॉलोअर्स को लिख दिया कि ठोक दो, तो कहीं के नहीं रहोगे।

ये दोनों बानगी अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर उठ रहे सवालों के बीच अहम् हैं। केरल सरकार ने पुलिस अधिनियम में संशोधन कर 118ए जोड़कर बच्चों और महिलाओं पर आपत्तिजनक पोस्ट पर 5 साल तक की जेल और 10 हजार तक जुर्माने का प्रावधान किया। हालांकि, भारी विरोध के चलते महज 72 घंटे के भीतर ही केरल सरकार ने इस संशोधन पर फिलहाल रोक लगा दी है। इस संशोधन के खिलाफ वहां की भाजपा हाईकोर्ट चली गई। यह महज संयोग है कि केरल सरकार के विरोध में जब वहां की भाजपा कानूनी दरवाजे पर दस्तक दे रही थी, तब उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार में सोशल मीडिया पर नकेल के लिए प्रावधान किए जा रहे थे। कई गिरफ्तारियों पर सवाल उठ चुके थे। इतना ही नहीं अब तो केंद्र सरकार ने भी डिजिटल मीडिया प्लेटफॉॅर्म की चौकीदारी शुरू कर दी है। अब डिजिटल मीडिया पर भी केंद्र सरकार की निगरानी होगी।

अंकुश नहीं लगा तो सक्रिय होंगे बंटी-बबली : अगर कानून के अनुसार काम नहीं हुआ और प्रदेश में नियम नहीं बने तो बंटी और बबली जैसी कई सारी कहानियां नित्य देखने को मिलेंगी। बानगी यह की 1 संस्था के कर्मचारी ने अपने मालिक और पुलिस संस्था के सभी कर्मचारियों ओर उनके परिवार वालों के मोबाइल नंबर अपने पास सेव कर लिया। दो साल काम करने के उपरांत उसका उसी संस्था के किसी लड़की से अफेयर हो गया। इसके बाद दोनों ने मिलकर एक वेबसाइट बनवाया। 15000 की वेबसाइट बनाकर उसी वेबसाइट पर कर्मचारियों के हित की बात और मालिक के खिलाफ लगातार फर्जी खबर लगाते रहे। मालिक ने लड़के को बोला कि उसने वेबसाइट में जो खबर लगाई है वह गलत है। खबर रोकने उनसे बंटी और बबली मिलकर सौदेबाजी करते हैं और ब्लैक मेलिंग करने लगते हैं। ऐसी कई सारी वेबसाइट चलाने वाले बंटी बबली हं जो शहर में 15000 की वेबसाइट बनाकर लोगों की निजता और सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली सामग्रियां जुटाकर और क्लिपिंग दिखाकर ब्लैकमेल करते हैं। बहुत सारी ऐसी घटना है जो सामने आ रही है, फेसबुक में भी फर्जी खबर लगाई जाती है उस पर अपराध बनता है और अकाउंट ब्लॉक कर दिया जाता है वैसे ही ट्विटर और यूट्यूब में भी अपराध दर्ज होता है ऐसे मामलों में ये प्लेटफार्म संबंधित अकाउंट बंद कर देते है उसी आधार पर फर्जी वेबसाइट को भी तत्काल बंद कर अपराध दर्ज करना अति-आवश्यक है, ताकि लोगों की निजता बनी रहे और सम्मान को भी आंच नहीं आए।

संकट व तकनीक के दौर में सोशल व डिजिटल मीडिया अहम : आज के इस संकट और तकनीक के दौर में सोशल मीडिया की अहमियत काफी बढ़ गई है। ऑनलाइन पेमेंट हो या खरीदारी, संक्रमण काल में बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई हो या वर्क फ्राम होम नेट ने सभी को कनेक्ट कर रखा है। ऐसे में हर हाथ में संकट से उबरने के साथ-साथ तकनीक के लिए मोबाइल का इस्तेमाल बड़ा औजार साबित हुआ है। 

इस औजार पर महज पांच सौ-हजार रुपये के पैकेज से घर की दहलीज लांघे बगैर दुनिया मु_ी में यानी नेट- टु-कनेक्ट। गांधी, गोडसे, सावरकर, हिंदी-ऊर्दू, हिंदू-मुसलमान या धर्मविशेष के खिलाफ कटुता वाले कई संदेश। अपने-अपने मतलब के लिहाज से इन्हीं संदेशों का सीजफायर (फारवर्ड करने का चलन)। यही रवैया सोशल मीडिया को असामाजिक बनाता है। फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप, ट्विटर पर धड़ल्ले से कटुता वाले ई कचरा फैलाए जाते हैं। इनसे वैमनस्यता बढ़ती है और यहीं से शुरू होती है सरकारी चिंता।

डिजिटल मीडिया की सरकारी चौकीदारी

अब डिजिटल मीडिया पर भी केंद्र सरकार की निगरानी हो चुकी है। ऑनलाइन न्यूज, फिल्में और वेब सीरीज अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन हैं। सूचना और प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय की अब महज तकनीक पर नहीं बल्कि सामग्री (कंटेंट) पर भी नजर रहेगी। केंद्र ने सूचना और प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय में राष्ट्रीय साइबर समन्वय केंद्र (एनसीसीसी) निदेशक को ऑनलाइन कंटेंट ब्लॉक करने का निर्देश जारी करने का अधिकार दिया है। आईटी एक्ट की धारा 69 और 69 ए के प्रावधानों के तहत किसी ऐसी जानकारी को रोकने का निर्देश दिया जा सकता है जो देश की रक्षा, अखंडता, संप्रभुता को प्रभावित करती हो।

क्या कहता है कानून?

यूं तो सुप्रीम कोर्ट में 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (आईटी एक्ट) की धारा 66 ए को असांविधानिक करार दिया गया जिसमें किसी की भी गिरफ्तारी का मनमानी अधिकार नहीं। केरल के संदर्भ में यदि देखें तो 118 ए से पहले 118 डी को निरस्त किया जा चुका है। लेकिन पिछले दिनों ही सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह भी कहा था कि हाल के दिनों में जिस चीज का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ है, वह है अभिव्यक्ति की आजादी। सुप्रीम कोर्ट ने तो केंद्र सरकार से यहां तक कहा कि सोशल मीडिया को लेकर दिशा-निर्देश की सख्त जरूरत है, ताकि भ्रामक जानकारी देने वालों की पहचान हो सके, उन पर कार्रवाई हो सके। अदालत ने चिंता जताई कि हालात यह हैं कि हमारी निजता तक सुरक्षित नहीं, अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल नफरत का बीज बोने के लिए नहीं होना चाहिए। ऐसे में अब यदि सरकारें भी चिंतित हो रही हैं तो चिंता वाजिब है, चाहे वह केरल की लाल सलाम सरकार हो या भाजपा शासित भगवा सरकारें या केंद्र की सरकार। क्या हमें महज सरकार के भरोसे ही रहना चाहिए।

अभिव्यक्ति की इस आजादी के मायने

आज हर व्यक्ति कम से कम दो-चार व्हाट्स एप ग्रुप से कनेक्ट है। फेसबुक से जुड़ाव भी। अब तो फेसबुक ने भी माना है कि इस तिमाही में औसतन दस हजार में 10-11 पोस्ट नफरत फैलाने वाले रहे। फेसबुक अपनी ओर से ऐसे पोस्ट पर नकेल की व्यवस्था करता है। पोस्ट हटाता है या बार-बार ऐसे पोस्ट करने वालों को ब्लॉक करता है। लेकिन यह कार्रवाई मामूली। फेसबुक को कई बार संसदीय समिति का सामना करना पड़ा। अभी ट्वीटर ने भी लद्दाख एलएसी को लेकर गलती की। व्हाट्सएप ग्रुप पर तो अनजाने में भी लोग किसी विवादास्पद पोस्ट को इस हद तक आगे खिसका-बढ़ा देते हैं कि सामाजिक तानाबाना बिगड़ जाता है। ऐसे में यदि सरकारी निगरानी की पहल की जा रही है तो इस पर इतना चिल्ल-पौं क्यों। सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जिस तरह की सामग्री परोसी जा रही है, क्या उनमें से अधिकांश विचलित नहीं करते। फिर जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता, वह तो और भी निंदनीय व चिंताजनक। सोशल मीडिया पर औसतन सौ में पांच जरूरी और जानकारीपरक पोस्ट होते, वहीं 90 फीसदी या तो फेक या संक्रमित। यह फर्जी खबरें जंगल में आग की तरह फैलती हैं। इनका संक्रमण समाज को कोरोना से भी ज्यादा संक्रमित कर जाता है।

लक्ष्मण रेखा जरूरी

प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर ने एक कार्यशाला में कहा था-एशियन पेंट के गिट्टू द ग्रेट की तरह सभी की मूंछ बनाना ही पत्रकारिता नहीं है जिम्मेदार पत्रकारिता पर जोर देकर नई पीढ़ी को दिशा दें। अब जब सोशल मीडिया की बात हो रही है, तो जाहिर है कि यह भी एक तरह की मीडिया ही है, जो पेशेवर पत्रकारों के अलावा आमजनों से जुड़ाव वाली है। इस मीडिया में व्हाया-मीडिया जो बयार बह पड़ती है, उसे नियंत्रित करने की जिम्मेदारी हम आमजनों की भी है। हम यूजर्स को भी अपने लिए लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी। हमें जिम्मेदार होना होगा। अब तो कई निजी संस्थानों ने भी अपने कर्मचारियों के सोशल मीडिया पर सक्रियता को लेकर मानक तय कर दिए हैं। सरकारी कर्मचारी और सेना के लिए तो व्यवस्था भी है और बार-बार उन्हें आगाह भी किया जाता है। क्या कभी फिजूल के नफरत भरे पोस्ट को इग्नोर कर हम अपनी जिम्मेदारी निभा सकेंगे। ऐसे पोस्ट पर प्रतिक्रिया देकर या उसे आगे खिसका (फॉरवर्ड) कर भी हम अनजाने में ही सही नफरत के भागीदार बन जाते हैं।

कभी सोचा है नफरत के ये बीज खिसक-खिसक कर लौट-फिर कर हमारे घर-परिवार तक ही आ जाते। बच्चे ऑनलाइन क्लास कर रहे होते, परिजन वर्क फ्रॉम होम। मोबाइल पर उनकी घंटी बजती टन...और सामने होता है वही नफरत वाला फिजूल संदेश। ऐसे में हमें अदालत के हथौड़े, कानून के डंडे के डर और उन पर शोर मचाने की बजाए खुद जिम्मेदार होना ही पड़ेगा। सरकारी कानून-संशोधन के भरोसे की बजाए अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी और तय करनी होगी। क्योंकि... रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाए, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।


आंकड़ों के आईने में

संसद के पिछले सत्र में दी गई जानकारी के मुताबिक, देश में झूठ और नफरत फैलाने वाले 7819 वेबसाइट लिंक और सोशल मीडिया अकाउंट पर कार्रवाई की गई। इनमें 2017 में 1385, 2018 में 2799 और 2019 में 3635 वेबसाइट, वेबपेज और सोशल मीडिया अकाउंट्स बंद किए गए। नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े के मुताबिक, 2017 में 257 फेक न्यूज के मामले दर्ज किए गए। मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 138 तो यूपी में 32 और केरल में 18 तो जम्मू-कश्मीर में 4 मामले शामिल हैं। जिस जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट पर पाबंदी आम थी, वहां अब ऑप्टिकल फाइवर के जाल से संचार के तंत्र विकसित किए जा रहे हैं। यह सामरिक लिहाज के साथ-साथ कश्मीर के विकास के लिए भी अहम है। एक आंकड़े के मुताबिक, देश में व्हाट्सएप के 16 करोड़ और फेसबुक के 15 करोड़ यूजर्स हैं। भारत में करीब 74 करोड़ लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में सोशल व डिजिटल मीडिया को लेकर चिंता वाजिब है।

इस औजार पर महज पांच सौ-हजार रुपये के पैकेज से घर की दहलीज लांघे बगैर दुनिया मु_ी में यानी नेट- टु-कनेक्ट। गांधी, गोडसे, सावरकर, हिंदी-ऊर्दू, हिंदू-मुसलमान या धर्मविशेष के खिलाफ कटुता वाले कई संदेश। अपने-अपने मतलब के लिहाज से इन्हीं संदेशों का सीजफायर (फारवर्ड करने का चलन)। यही रवैया सोशल मीडिया को असामाजिक बनाता है। फेसबुक, व्हाट्सएप ग्रुप, ट्विटर पर धड़ल्ले से कटुता वाले ई कचरा फैलाए जाते हैं। इनसे वैमनस्यता बढ़ती है और यहीं से शुरू होती है सरकारी चिंता।

डिजिटल मीडिया की सरकारी चौकीदारी

अब डिजिटल मीडिया पर भी केंद्र सरकार की निगरानी हो चुकी है। ऑनलाइन न्यूज, फिल्में और वेब सीरीज अब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन हैं। सूचना और प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय की अब महज तकनीक पर नहीं बल्कि सामग्री (कंटेंट) पर भी नजर रहेगी। केंद्र ने सूचना और प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय में राष्ट्रीय साइबर समन्वय केंद्र (एनसीसीसी) निदेशक को ऑनलाइन कंटेंट ब्लॉक करने का निर्देश जारी करने का अधिकार दिया है। आईटी एक्ट की धारा 69 और 69 ए के प्रावधानों के तहत किसी ऐसी जानकारी को रोकने का निर्देश दिया जा सकता है जो देश की रक्षा, अखंडता, संप्रभुता को प्रभावित करती हो।

क्या कहता है कानून?

यूं तो सुप्रीम कोर्ट में 2015 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (आईटी एक्ट) की धारा 66 ए को असांविधानिक करार दिया गया जिसमें किसी की भी गिरफ्तारी का मनमानी अधिकार नहीं। केरल के संदर्भ में यदि देखें तो 118 ए से पहले 118 डी को निरस्त किया जा चुका है। लेकिन पिछले दिनों ही सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह भी कहा था कि हाल के दिनों में जिस चीज का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ है, वह है अभिव्यक्ति की आजादी। सुप्रीम कोर्ट ने तो केंद्र सरकार से यहां तक कहा कि सोशल मीडिया को लेकर दिशा-निर्देश की सख्त जरूरत है, ताकि भ्रामक जानकारी देने वालों की पहचान हो सके, उन पर कार्रवाई हो सके। अदालत ने चिंता जताई कि हालात यह हैं कि हमारी निजता तक सुरक्षित नहीं, अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल नफरत का बीज बोने के लिए नहीं होना चाहिए। ऐसे में अब यदि सरकारें भी चिंतित हो रही हैं तो चिंता वाजिब है, चाहे वह केरल की लाल सलाम सरकार हो या भाजपा शासित भगवा सरकारें या केंद्र की सरकार। क्या हमें महज सरकार के भरोसे ही रहना चाहिए।

अभिव्यक्ति की इस आजादी के मायने

आज हर व्यक्ति कम से कम दो-चार व्हाट्स एप ग्रुप से कनेक्ट है। फेसबुक से जुड़ाव भी। अब तो फेसबुक ने भी माना है कि इस तिमाही में औसतन दस हजार में 10-11 पोस्ट नफरत फैलाने वाले रहे। फेसबुक अपनी ओर से ऐसे पोस्ट पर नकेल की व्यवस्था करता है। पोस्ट हटाता है या बार-बार ऐसे पोस्ट करने वालों को ब्लॉक करता है। लेकिन यह कार्रवाई मामूली। फेसबुक को कई बार संसदीय समिति का सामना करना पड़ा। अभी ट्वीटर ने भी लद्दाख एलएसी को लेकर गलती की। व्हाट्सएप ग्रुप पर तो अनजाने में भी लोग किसी विवादास्पद पोस्ट को इस हद तक आगे खिसका-बढ़ा देते हैं कि सामाजिक तानाबाना बिगड़ जाता है। ऐसे में यदि सरकारी निगरानी की पहल की जा रही है तो इस पर इतना चिल्ल-पौं क्यों। सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जिस तरह की सामग्री परोसी जा रही है, क्या उनमें से अधिकांश विचलित नहीं करते। फिर जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल होता, वह तो और भी निंदनीय व चिंताजनक। सोशल मीडिया पर औसतन सौ में पांच जरूरी और जानकारीपरक पोस्ट होते, वहीं 90 फीसदी या तो फेक या संक्रमित। यह फर्जी खबरें जंगल में आग की तरह फैलती हैं। इनका संक्रमण समाज को कोरोना से भी ज्यादा संक्रमित कर जाता है।

लक्ष्मण रेखा जरूरी

प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर ने एक कार्यशाला में कहा था-एशियन पेंट के गिट्टू द ग्रेट की तरह सभी की मूंछ बनाना ही पत्रकारिता नहीं है जिम्मेदार पत्रकारिता पर जोर देकर नई पीढ़ी को दिशा दें। अब जब सोशल मीडिया की बात हो रही है, तो जाहिर है कि यह भी एक तरह की मीडिया ही है, जो पेशेवर पत्रकारों के अलावा आमजनों से जुड़ाव वाली है। इस मीडिया में व्हाया-मीडिया जो बयार बह पड़ती है, उसे नियंत्रित करने की जिम्मेदारी हम आमजनों की भी है। हम यूजर्स को भी अपने लिए लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी। हमें जिम्मेदार होना होगा। अब तो कई निजी संस्थानों ने भी अपने कर्मचारियों के सोशल मीडिया पर सक्रियता को लेकर मानक तय कर दिए हैं। सरकारी कर्मचारी और सेना के लिए तो व्यवस्था भी है और बार-बार उन्हें आगाह भी किया जाता है। क्या कभी फिजूल के नफरत भरे पोस्ट को इग्नोर कर हम अपनी जिम्मेदारी निभा सकेंगे। ऐसे पोस्ट पर प्रतिक्रिया देकर या उसे आगे खिसका (फॉरवर्ड) कर भी हम अनजाने में ही सही नफरत के भागीदार बन जाते हैं।

'' कभी सोचा है नफरत के ये बीज खिसक-खिसक कर लौट-फिर कर हमारे घर-परिवार तक ही आ जाते। बच्चे ऑनलाइन क्लास कर रहे होते, परिजन वर्क फ्रॉम होम। मोबाइल पर उनकी घंटी बजती टन...और सामने होता है वही नफरत वाला फिजूल संदेश। ऐसे में हमें अदालत के हथौड़े, कानून के डंडे के डर और उन पर शोर मचाने की बजाए खुद जिम्मेदार होना ही पड़ेगा। सरकारी कानून-संशोधन के भरोसे की बजाए अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचनी और तय करनी होगी। क्योंकि... रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाए, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।

फर्जी न्यूज वेबसाइट पर कैसे कसे शिकंजा...?

छग में नये कानून के अनुसार कार्रवाई का इंतजार

वर्तमान वेबपोर्टल की कमेटी में एक भी पत्रकार आईटी एक्सपर्ट नहीं है सिवाय एकमात्र सरकारी कर्मचारी के

गूगल एनालेस्टिक पर कार्य किस प्रकार और कितना होता है, इसकी जानकारी किसी सदस्य को भी नहीं

किसी सदस्य के पास सात से दस साल का आईटी एक्सपर्ट या वेबसाइट के संचालक होने का कोई प्रमाण पत्र नहीं

किसी से भी जैसे किसी राजनीतिक पार्टी या कार्पोरेट आफिस से बदला लेने के लिए सुगम और सस्ता तरीका न्यूज वेबसाइट बनाओ और पैसा वसूलो

सोशल साइट के सभी प्लेटफार्म पर फेक न्यूज, फेक आईडी के लिए दंड का प्रवधान है और अपराध दर्ज होता है, लेकिन न्यूज वेबसाइट के लिए राज्य में कोई कड़ा कानून नहीं है

भारत सरकार के नए और प्रचलित कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए डीएवीपी को निर्देश दिया, इसके बाद डीएवीपी ने वेबपोर्टल वेबसाइट के लिए कड़े कानून कड़ाई से लागू करने का निर्णय लिया

जिस राज्य में चुनाव होंगे वहीं पर सबसे ज्यादा फर्जी वेबसाइट बनकर तैयार होगी और किसी भी राजनीतिक पार्टी के बारे में दुष्प्रचार किया जा सकता है, जिसका परिणाम लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होगा।

अधिकांश न्यूज वेबसाइट चलते-फिरते मोबाइल से ही एक-दो त्रक्च के डाटा में ही संचालित की जाती है

इन बातों पर ध्यान देने की जरूरत

 छत्तीसगढ़ नक्सल प्रभावित होने से संवेदनशील राज्य है, वेबसाइट्स-न्यूजपोर्टल संचालकों व संचालित करने वाली संस्था के बारे में संपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराना जरूरी हो।

केन्द्रीय दिशा-निर्देशों के अनुरूप राज्य में संचालित वेबपोर्टल का कंपनी नियमों के तहत रजिस्ट्रेशन और जीएसटी के दायरे में होना अनिवार्य हो।

वेबपोर्टल का राज्य जनसंपर्क विभाग में पंजीयन के साथ डीएवीपी से रजिस्टर्ड व विज्ञापन दर का निर्धारण अनिवार्य हो।

वेबपोर्टल को भी कानूनी दायरे में लाने के लिए मापदंड तय हो।

अविश्वसनीय और अश्लील समाचार-वीडियो अपलोड करने वाले वेबपोर्टल का पंजीयन निरस्त हो।

वेवपोर्टल के परीक्षण के लिए सर्वर सर्टिफिकेट, सर्वर डिटेल, बैंडस्विच और सर्वर सीपीयू की संख्या को भी आधार माना जाए।

सर्वर का प्रत्येक माह का बिल जिससे सर्वर में यूजर्स ट्रैफिक के अनुसार सर्वर चार्जेस निर्धारित किया जाता है, से भी वेबपोर्टल को परखा जा सकता है।

प्रत्येक वेबसाइट के यूनिक यूजर्स की सही संख्या का पता लगाने उसके बाउंस रेट तथा यूजर्स फ्लो के कॉलम को जांचना अनिवार्य हो।

डीएवीपी ने हर वेबसाइट के लिए कामस्कोर रिपोर्ट को अनिवार्य और विज्ञापन देने का आधार बनाया है, राज्य के हर वेबपोर्टल का कामस्कोर में रजिस्टे्रशन और उसके एनालिटिक रिपोर्ट को अनिवार्य किया जाए।

गूगल एडसेंस के द्वारा प्रत्येक वेबसाइट को एडसेंस प्वाइंट के आधार पर विज्ञापन दिया जाता है और उसी को आधार मानकर यूजर की संख्या गूगल एनालिटिक में दर्ज की जाती है, इसे भी आधार बनाया जा सकता है।

अधिकांश वेबसाइट संचालकों ने फर्जी गूगल एनालिस्टिक आकंड़े बढ़ाकर डीपीआर में प्रस्तुत किए हैं, जनता से रिश्ता ने अपने खबरों और शिकायतों के माध्यम से जनसंपर्क संचालनालय को अवगत करारा था।

जिन वेबसाइट संचालकों के पास एक भी कर्मचारी नहीं और मोबाइल से वेबसाइट का संचालन करते हैं ऐसे वेबसाइट को संज्ञान में लेकर इसकी जांच की जानी चाहिए। जनता से रिश्ता ने स्पष्ट रूप से अपने शिकायत में कहा था कि इंटरनेट का कनेक्शन, यूजर्स के आधार और गूगल एडसेंस के यूजर , पेज व्यूवर्स को ही पैमाना मानकर वेबसाइट का आंकलन किया जाता है और इसी तरीके डीएवीपी ने मान्यतादी है। और इसी के आधार पर ही हम वेबसाइट के आंकलन की हम लगातार मांग कर रहे हैं।

जनता से रिश्ता ने पहले ही आशंका जताई थी कि जिनके पास एक भी कर्मचारी नहीं हैं या तो नगण्य हैं ऐसे फर्जी वेबपोर्टल वाले अपने आप को नंबर वन बताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं।

कुकुरमुत्ते के जैसे वेबसाइटों की बाढ़ आ गई है, किराए के एक कमेरे से मोबाइल में न्यूज अपलोड कर न्यूज पोर्टल चला रहे फर्जी पत्रकार।

सरकार से लेकर विभागीय अधिकारी इन वेबपोर्टल वाले मोबाइल छाप फर्जी पत्रकारों की उगाही से हलाकान।

राज्य सरकार को इनके खिलाफ केंद्र सरकार और आरएनआई की गाइड लाइन पर कार्रवाई करनी चाहिए।

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