Patna: मिथिला मखाना के नाम से जीआई टैग मिलने के बाद देश-विदेश में इसकी मांग तेजी से बढ़ी
मखाना की कीमत छह महीने में बढ़कर हुई गुनी
पटना: मिथिला के प्रमुख उत्पाद मखाना की कीमत छह महीने में बढ़कर गुनी हो गयी है. मिथिला मखाना के नाम से जीआई टैग मिलने के बाद National and International में इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है. मांग के अनुरूप उपलब्धता नहीं होने के कारण कीमत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. स्थानीय बाजारों में छह महीने पहले तक छह सौ रुपये किलो मिलने वाला मखाना अभी 1200 रुपये किलो की दर से बिक रहा है. बता दें कि 20 अगस्त 2022 को मखाना को मिथिला मखाना के नाम से जीआई टैग मिला था. उसके बाद से इसकी बिक्री में तेजी आने लगी थी. लेकिन पिछले छह महीने में मखाना की कीमत गुनी हो जाने से स्थानीय लोग भी अचंभित हैं. इस संबंध में MBA Makhana वाला के नाम से स्टार्टअप चला रहे दरभंगा शहर के भगवान दास मोहल्ले के ई. श्रवण रॉय ने कहा कि जीआई टैग मिलने के बाद देश-विदेश में मखाना की मांग तेजी से बढ़ रही है. इन दिनों खासकर फ्लेवर्ड मखाना उद्योग में इसकी खपत बढ़ गयी है. ई. श्रवण ने कहा कि गुजरात, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश के कई बड़े व्यवसायी बिहार से बड़ी मात्रा में मखाना खरीद रहे हैं. वे वहां इसे विभिन्न फ्लेवर वाले पैक बनाकर देश-विदेश में भेजते हैं. ऐसे व्यापारियों की ओर से अचानक मांग बढ़ाये जाने और उस अनुपात में उपलब्धता नहीं होने से मखाना की कीमत तेजी से बढ़ रही है. उन्होंने कहा कि मखाना की कीमत गुणवत्ता के आधार पर तय होती है. सामान्य मखाना की कीमत पिछले छह महीने में 600 से बढ़कर 1200 रुपये किलो हो गयी है. थोक में यह 1150 रुपये किलो बिक रहा है. उन्होंने कहा कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, रूस जैसे देशों में मखाना की मांग काफी बढ़ी है. यूरोपियन देशों में लोग इसे सुपर फूड के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. औषधीय गुणों से युक्त मखाना के एंटी ऑक्सीडेंट भी होने के कारण उन देशों के लोग इसे मोटापा कम करने के लिए वैकल्पिक आहार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं.
मिथिला व कोसी में 60 हजार टन उत्पादन: डॉ. मनोज ने कहा कि मिथिला और कोसी क्षेत्र में हर साल मखाना के बीज का उत्पादन करीब 60 हजार टन होता है. इससे करीब 24 हजार टन लावा बनता है. इन नों क्षेत्रों में करीब 30 हजार ड़ में फिलहाल मखाना का उत्पादन किया जा रहा है. लेकिन इसके उत्पादन में नए लोगों का जुड़ाव कम हो रहा है. किसी कारण से बार नुकसान होने पर किसान बारा इसकी खेती नहीं करते हैं.