बैडमिंटन की शटलकॉक वैसे तो बहुत ही छोटी सी चीज लगती है, लेकिन इसे बनाने का प्रोसेस काफी पेचीदा है। अगर शटलकॉक को बनाते समय एक भी गलती हुई, तो इसका असर खेल पर पड़ता है। इसे बनाने के बाद मशीन के जरिए टेस्टिंग भी की जाती है जिससे यह पता चल सके कि शटलकॉक सही से ग्लाइड होगी या नहीं। इसे ट्रेडिशनली पंख से बनाया जाता था, लेकिन अब प्लास्टिक का उपयोग भी किया जाता है। हालांकि, स्टेट, नेशनल, इंटरनेशनल लेवल के खेलों के लिए हमेशा पंखों वाली शटलकॉक ही यूज होती है।
शटलकॉक वैसे तो काफी सस्ती मिलती है, लेकिन अगर आप इसकी क्वालिटी देखें, तो प्राइस के हिसाब से इसका मटेरियल बदलता जाता है। चलिए आपको आज शटलकॉक बनाने के प्रोसेस के बारे में बताते हैं।
सबसे जरूरी है शटलकॉक का शेप
अगर शटलकॉक का शेप सही नहीं होगा, तो यह ठीक से ग्लाइड नहीं करेगी। इसलिए कोनिकल (Conical) शेप को बनाने में बहुत ध्यान दिया जाता है। चाहे वो प्लास्टिक से बन रही हो या फिर असली पंखों से।
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कब शुरू हुआ था बैडमिंटन खेल?
शायद आपको पता ना हो, लेकिन बैडमिंटन की शुरुआत भारत में हुई थी। 1873 में पूना में इंग्लिश आर्मी ऑफिसर्स ने इस खेल को एक समारोह में खेला था। उस वक्त ड्यूक ऑफ ब्यूफोर्ट के आदर में जलसा रखा गया था। ड्यूक की कंट्री एस्टेट का नाम बैडमिंटन था और इसलिए इस नए खेल को बैडमिंटन नाम से पुकारा गया। यह खेल इतना लोकप्रिय हो गया कि 1893 में ग्रेट ब्रिटेन में बैडमिंटन असोसिएशन बनी। 1934 तक यह खेल अंतरराष्ट्रीय हो चुका था। अब इंटरनेशनल असोसिएशन में 100 से ज्यादा देश शामिल हैं।
बैडमिंटन के लिए सबसे जरूरी होती है शटलकॉक और शुरुआती समय से ही पक्षियों के पंखों से इसे बनाया जाता है।
कैसे बनती है पंखों वाली शटलकॉक?
शायद आपको पक्षियों के पंख वाली शटलकॉक बनाने का प्रोसेस काफी खराब लगे। चीन में गूज फेदर्स का प्रयोग किया जाता है और भारत में व्हाइट डक के पंखों को इस्तेमाल किया जाता है। एक छोटी सी बॉल के इर्द-गिर्द स्कर्ट जैसे 16 पंख लगाए जाते हैं जिन्हें धागे और ग्लू की मदद से जोड़ा जाता है। ये पंख पक्षी के शरीर से नोचे जाते हैं। जितनी जरूरत होती है उससे ज्यादा पंख नोचे जाते हैं और उसके बाद इन्हें साफ किया जाता है। जितने उपयोग योग्य पंख होते हैं उनसे शटलकॉक बनाई जाती है और जितने सही नहीं होते उन्हें फेंक दिया जाता है। (बैडमिंटन रैकेट खरीदने के टिप्स)
सफाई का रखा जाता है बहुत ध्यान
शटलकॉक बनाते समय पंखों की सफाई सबसे अहम होती है। सबसे पहले उन्हें इकट्ठा कर पानी में धोया जाता है। इसके बाद उन्हें सुखाकर दोबारा धोया जाता है। दरअसल, पंखों में पक्षियों के खून के धब्बे, मिट्टी, कीचड़ आदि बहुत ज्यादा लगा होता है। कई बार सफाई के समय पंख टूट भी जाते हैं।
पंख सूखने के बाद इन्हें अलग किया जाता है। जिन्हें शटलकॉक में लगाया जा सकता है वो एक साइड और बाकी को फेंक दिया जाता है।
इसके बाद शुरू होता है इसे बनाने का प्रोसेस। पंखों को सही शेप देने के लिए मशीन से कटाई की जाती है और कई बार कैंची से काटने की भी जरूरत पड़ जाती है।
इसके बाद इन्हें बॉल में एक साथ लगाया जाता है।
इसके बाद शटलकॉक को फिनिशिंग टच दिया जाता है।
पैक करने से पहले इनकी टेस्टिंग भी की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शटलकॉक अच्छे से ग्लाइड कर रही है।
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अगर यह ठीक तरह से स्लाइड नहीं करती है, तो इसके पंखों को दोबारा एडजस्ट किया जाता है।
शटलकॉक वैसे तो बहुत ही ज्यादा साधारण सी दिखती है, लेकिन असल मायने में इसकी जटिलता काफी ज्यादा है।
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