Birth Anniversary: अमर शहीद भगत सिंह के जीवन की दिलचस्प बातें

कोई मतवाला ही आज़ादी का परचम लेकर हंसते हुए देश पर खुद को न्योछावर कर पाएगा

Update: 2021-09-28 09:49 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क |   कोई मतवाला ही आज़ादी का परचम लेकर हंसते हुए देश पर खुद को न्योछावर कर पाएगा। ऐसा जज़्बा रखने वाले शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह की आज 127वीं जयंती है।

हालांकि, जब भी भगत सिंह की बात होती है, तो ये चर्चा उनके जन्मदिवस से ज़्यादा उनकी शहादत को लेकर होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत के इतिहास में भगत सिंह इकलौते ऐसे क्रांतिकारी रहे हैं, जिन्होंने देश के लिए मौत को मुस्कुराते हुए स्वीकारा। यही वजह कि आज वह हर हिन्दुस्तानी के दिल में बसते हैं।17 दिसंबर, 1928 को पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या और 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम धमाके का दोषी करार देते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी। वह चाहते तो अपने मुकदमा लड़ने के लिए वकील कर सकते थे, लेकिन उन्होंने दोनों मामलों के लिए कोई वकील नहीं किया और अपनी नियति को खुद चुना।
जन्म से ही भाग्य वाले माने जाते थे
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। भगत सिंह के जन्म के बाद उनकी दादी ने उनका नाम 'भागो वाला' रखा था। जिसका मतलब होता है 'अच्छे भाग्य वाला'। बाद में उन्हें 'भगत सिंह' कहा जाने लगा।
कम आयु से ही क्रांतिकारी थे
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह साल 1920 में महात्‍मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में भाग लेने लगे, जिसमें गांधी जी विदेशी समानों का बहिष्कार कर रहे थे।
वह 14 साल की आयु से ही पंजाब की क्रांतिकारी संस्थाओं में काम करने लगे थे। 14 साल की आयु में ही भगत सिंह ने सरकारी स्‍कूलों की किताबें और कपड़े जला दिए थे। इसके बाद इनके पोस्‍टर गांवों में छपने लगे।
भगत सिंह पहले महात्‍मा गांधी के चलाए जा रहे आंदोलन और भारतीय नेशनल कॉन्फ्रेंस के सदस्‍य थे। 1921 में जब चौरा-चौरा हत्‍याकांड के बाद गांधीजी ने किसानों का साथ नहीं दिया तो भगत सिंह पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसके बाद चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्‍व में गठित हुई गदर दल के हिस्‍सा बन गए।
काकोरी कांड
उन्‍होंने चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। साल 1925 में 9 अगस्त को शाहजहांपुर से लखनऊ के लिए चली 8 नंबर डाउन पैसेंजर से काकोरी नामक छोटे से स्टेशन पर सरकारी ख़जाने को लूट लिया गया था। यह घटना काकोरी कांड नाम से इतिहास में मशहूर है।
इस घटना को अंजाम भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद और प्रमुख क्रांतिकारियों ने साथ मिलकर अंजाम दिया था। काकोरी कांड के बाद अंग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज़ कर दी और जगह-जगह अपने एजेंट्स बहाल कर दिए। भगत सिंह और सुखदेव लाहौर पहुंच गए। वहां उनके चाचा अजीत सिंह ने एक खटाल खोल दिया और कहा कि अब यहीं रहो और दूध का कारोबार करो।
चार्ली चैप्लिन की फिल्में पसंद थीं
भगत सिंह को फिल्में देखना और रसगुल्ले खाना काफी पसंद था। वे राजगुरु और यशपाल के साथ जब भी मौका मिलता था, फिल्म देखने चले जाते थे। चार्ली चैप्लिन की फिल्में बहुत पसंद थीं।
पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या
भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अफसर जेपी सांडर्स को मारा था। इसमें चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे।
कलम के भी धनी थे भगत सिंह
भगत सिंह क्रांतिकारी देशभक्त ही नहीं बल्कि एक अध्ययनशीरल विचारक, कलम के धनी, दार्शनिक, चिंतक, लेखक, पत्रकार और महान मनुष्य थे। उन्होंने 23 वर्ष की छोटी-सी आयु में फ्रांस, आयरलैंड और रूस की क्रांति का विषद अध्ययन किया था। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, बंगला और आयरिश भाषा के मर्मज्ञ चिंतक और विचारक भगतसिंह भारत में समाजवाद के पहले व्याख्याता थे। भगत सिंह अच्छे वक्ता, पाठक और लेखक भी थे। उन्होंने 'अकाली' और 'कीर्ति' दो अखबारों का संपादन भी किया।
जेल में भगत सिंह ने करीब दो साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रांतिकारी विचार व्यक्त करते रहे। जेल में रहते हुए उनका अध्ययन बराबर जारी रहा। उस दौरान उनके लिखे गए लेख और परिवार को लिखे गए पत्र आज भी उनके विचारों को दर्शाते हैं।
पूंजीपतियों को माना था दुश्मन
अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना दुश्मन बताया है। उन्होंने लिखा कि मज़दूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका दुश्मन है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था 'मैं नास्तिक क्यों हूं'? जेल में भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल भी की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिए।साल 1931 में 23 मार्च के दिन को भगत सिंह और इनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे 'बिस्मिल' की जीवनी पढ़ रहे थे।


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