'क्रिएटिविटी की कोई सीमा नहीं होती, बहाव के साथ बहना चाहिए' : शेफाली शाह

जो लोग अपना पैसा और वक्त आपके विजन पर लगा रहे हैं, उनके साथ न्याय करना जरूरी होता है।

Update: 2021-08-08 09:03 GMT

अभिनय के साथ निर्देशन में भी सक्रिय हैं शेफाली शाह। शार्ट फिल्म 'समडे' के बाद उनकी दूसरी शार्ट फिल्म 'हैप्पी बर्थडे मम्मीजी' भी यू ट्यूब पर रिलीज हो चुकी है। अभिनय के साथ ही लेखन व निर्देशन में उतरने की वजह व अन्य मुद्दों पर उनसे प्रियंका सिंह की बातचीत के अंश...

आपकी कहानियों में ज्यादातर महिलाओं की खुशी और आजादी को लेकर बातें होती हैं। इन्हें लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है?
मैं वही लिखती हूं, जो मेरे दिल में आता है, जो चीजें मैं अपने आस-पास देखती हूं, महसूस करती हूं, उसके बारे में लिखती हूं। मैं कभी यह सोचकर लिखने नहीं बैठती कि मुझे दो घंटे बैठकर कुछ लिखना है। मैं प्लान करके बैठूंगी तो मुझसे कुछ नहीं हो पाएगा। जिसके बारे में मैं खुद महसूस नहीं करती हूं, वह न लिख पाऊंगी, न उसमें अभिनय कर पाऊंगी, न ही निर्देशन हो पाएगा। 'हैप्पी बर्थडे मम्मीजी' की कहानी हर महिला की कहानी है। यह कहानी बताती है कि अपनी जिदंगी का जश्न कैसे मनाना है यह आपके हाथों में है। पहला जो विचार होता है, उसे पेपर पर उतार देती हूं। जब फिल्म पर काम शुरू होता है, तब उसकी स्क्रीनप्ले के मुताबिक चीजें करनी पड़ती हैं।
बतौर सेलेब्रिटी असल जीवन में मां की जिम्मेदारियों को क्या कभी अपनी आजादी के पीछे रख पाती हैं?
एक बार मां बन जाने के बाद आप हमेशा के लिए मां हैं। मैं लकी हूं कि मैं काम कर रही हूं, वरना मैं गृहणी होती और मुझे इस बात का भी गर्व होता। मैं फुलटाइम मां, बहू, बेटी और पत्नी हूं। यह मैंने खुद चुना है। कई बार मैं इतनी व्यस्त हो जाती हूं कि इन रिश्तों में ही खुद को देखना और पहचानना भूल जाती हूं। मेरे पास च्वाइस है कि मैं अपने काम से थोड़ा ब्रेक लेकर, छुट्टियां मनाकर आ जाऊं, लेकिन कई महिलाओं के पास यह च्वाइस नहीं होती है। पूरी जिंदगी सिर्फ परिवार को देखने में निकल जाती है, इसलिए कई बार उन्हें हल्के में लिया जाने लगता है। किसी को एहसास ही नहीं होता कि मां, बेटी, बहू, पत्नी होने से पहले वह एक इंसान है। कई बार औरतों को खुद यह एहसास होना बंद हो जाता है। अपने आप को वह रिश्तों में तलाशने लग जाती हैं।
क्या छुट्टियों पर जाने के बाद इन रिश्तों के बारे में सोचना बंद कर देती हैं?
नहीं, ऐसा नहीं होता। देखा जाए तो दिमाग को इन चीजों से स्विच आफ -आन करना चाहिए, लेकिन मैं नहीं कर पाती हूं। मैं दुनिया के किसी भी कोने में रहूं, मुझे यह जानना होता है कि मेरे घर पर क्या हो रहा है, मेरी सास ने अपनी दवाएं और इंजेक्शन लिए या नहीं। बच्चों ने वक्त पर खाना खाया या नहीं, उनकी जिंदगी में सब ठीक चल रहा है या नहीं, पति ठीक हैं, उनका काम कैसा चल रहा है। घर में वाशिंग मशीन भी खराब होगी तो उसे रिपेयर करने वाले का नंबर भी मेरे पास होगा। मैं पूरी तरह से स्विच आफ नहीं कर पाती हूं। स्विच आफ तभी हो पाता है, जब मैं सेट पर होती हूं। तब मेरा फोन आफ होता है और मैं सिर्फ काम के बारे में सोचती हूं, लेकिन घर पर अगर कुछ हुआ हो तो वे बातें मेरे दिमाग में चलती ही रहती हैं।
बतौर निर्देशक और कलाकार आपको अपनी सीमाएं पता हैं। एक ही फिल्म में अभिनय, लेखन और निर्देशन करने पर उन सीमाओं को आपस में जोड़ना चुनौतीपूर्ण होता होगा?
क्रिएटिविटी की कोई सीमा नहीं होती है। आपके सामने जो भी आता है, उसे बस एक्सप्लोर करना होता है और उस बहाव के साथ बहना होता है। इस फिल्म में बतौर कलाकार से ज्यादा मैंने निर्देशन पर फोकस किया था। बतौर कलाकार आप सिर्फ अपना सीन करते हैं। उसके बाद एक्सपट्र्स देखते हैं कि आपका काम सही है या नहीं। हमें मानिटर देखकर वक्त बर्बाद नहीं करना पड़ता, लेकिन निर्देशक होने के नाते मुझे शाट्स देखने पड़ते हैं। मुझे हर चीज खुद से करना पसंद है। अगर तकिया फ्रेम में ठीक से नहीं रखा है तो मैं वह भी सही से रखती हूं। मुझे काम करने का कोई और तरीका नहीं पता। निर्देशक के तौर पर इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेना मुश्किल काम है, जो लोग अपना पैसा और वक्त आपके विजन पर लगा रहे हैं, उनके साथ न्याय करना जरूरी होता है।


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