सिखों की सहानुभूति
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार ने लखनऊ से लखीमपुर खीरी जा रही प्रियंका गांधी को गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें सीतापुर के शानदार पीएसी गेस्ट हाउस में नज़रबंद कर लिया. अर्धसैनिक बलों के गेस्ट हाउस सदैव साफ़-सुथरे और भव्य होते हैं, क्योंकि उनके यहां वर्क-फ़ोर्स की कमी नहीं होती. लेकिन फिर भी प्रियंका गांधी की वे तस्वीरें मीडिया में जिनमें दिखाया गया था, कि वे वहां झाड़ू लगा रही हैं. पब्लिक सिम्पैथी का पहला दौर प्रियंका जीत ले गईं. इसके एक दिन बाद उनको और राहुल गांधी को लखीमपुर खीरी के उस गांव में जाने की इजाज़त दे दी गई, जहां वे किसान गाड़ी से कुचल कर मरे थे. उनके साथ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तथा पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी भी लखीमपुर के उस तिकुनिया क्षेत्र गए. कुचल कर मारे गए लोगों के परिवार से ये सब लोग मिले तथा परिजनों को करोड़ों रुपए देने की घोषणा की. यह सब उन्हें सिखों के बीच लोकप्रिय ज़रूर बना गई. लेकिन उतना ही बहुतों को दूर भी कर गई. हो सकता है, इसका लाभ कांग्रेस को पंजाब में भले मिल जाए क्योंकि पंजाब में भी यूपी के साथ ही विधानसभा चुनाव है.
अखिलेश को फ़ंसाने की कोशिश
मगर इस बीच कुछ और डेवलपमेंट हुए. एक तो अगले ही रोज़ मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने टिकैत की मध्यस्थता में मृतकों के परिजनों को 45 लाख व घायलों को दस-दस लाख रुपए देने की घोषणा कर दी. इसके साथ ही उन्होंने किसानों द्वारा पीट-पीट कर मारे गए और लोगों के प्रति भी संवेदना जतायी. ये सारे मृतक ब्राह्मण थे. एक तरह से उन्होंने अपने नाराज़ चल रहे ब्राह्मणों को भी साध लिया और एक ही तीर से अपनी चिर प्रतिद्वंदी सपा को किनारे कर दिया. हालांकि उस समय सपा भले दबी हो किंतु जल्द ही अखिलेश यादव इस गोरखपुरी दांव को भांप गए. अभी कुछ दिन पहले तक वे उत्तर प्रदेश में योगी के विरुद्ध अकेले लड़ने का ऐलान कर रहे थे, सरेंडर कर उन्होंने दस अक्टूबर को बयान दिया कि भविष्य में अन्य विपक्षी दलों के साथ गठबंधन हो सकता है. इसके साथ ही उन्होंने 12 अक्टूबर से कानपुर से विजय रथ यात्रा शुरू की है, जो बुंदेलखंड के हमीरपुर तक की होगी.
कांग्रेस के पास वोट-बैंक का अभाव
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की दिक़्क़त यह है कि अभी तक किसी समुदाय को अपनी झोली में लाने में कामयाब नहीं रही है. यह सच है कि देश में हर जगह अल्पसंख्यकों की पहली पसंद रही है. इसकी वजह है उसका सामाजिक रूप से लिबरल कैरेक्टर. लेकिन कोई भी चुनाव सिर्फ़ अल्पसंख्यक समुदाय के बूते नहीं जीता जा सकता. इसके लिए जातियों का हेल-मेल आवश्यक है. यह अब कांग्रेस भूलती जा रही है. इसके अतिरिक्त नेहरू-गांधी परिवार की नई पीढ़ी राजनीतिक दांव-पेंच में बहुत माहिर नहीं है इसीलिए उनके दांव किसी दूसरे को अधिक लाभ पहुंचा जाते हैं. सच बात तो यह है कि कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक ब्राह्मण, दलित और मुसलमान से दूर होती गई है. इसीलिए वह अब यूपी की बजाय अपने बचे हुए राज्यों- पंजाब, राजस्थान व छत्तीसगढ़ बचाने की फ़िराक़ में है. पंजाब में चुनाव यूपी के साथ अगले वर्ष फ़रवरी में है जबकि राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में 2023 की नवम्बर में. लखीमपुर खीरी घटना के संदर्भ में कांग्रेस योगी आदित्य नाथ के विरुद्ध बोलने की बजाय निशाने पर मोदी को लिए हुए है.
फिर एक खेला
उधर योगी आदित्य नाथ के सहयोगी स्वतंत्र देव सिंह ने एक ऐसा बयान दे दिया जिसका फ़ायदा अखिलेश यादव को मिल सकता है. उन्होंने एक बयान में कहा कि "नेतागिरी का मतलब किसी को फ़ॉरच्यूनर से कुचलना नहीं है!" इसका तो अर्थ यही निकला कि उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि आशीष मिश्र ने ज़ान-बूझकर किसानों पर गाड़ी चढ़ाई. ऐसे वक्त में जब अखिलेश यादव समेत सभी विपक्षी पार्टियां गृह राज्य मंत्री के इस्तीफ़े को लेकर अड़ी हैं, यह बयान तो उनकी मांग को ताक़त दे गया. कोई भी राजनेता अनजाने में कोई बयान नहीं देता. वह उसका आग़ा-पीछा ख़ूब सोच लेता है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्वतंत्र देव सिंह मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के करीबी हैं और राजेश मिश्र की यूपी में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से नज़दीकियां हैं. ऐसे में यह बयान भी खूब सोच-समझ कर आया होगा. यूं भी मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ समझ गए हैं कि राजेश मिश्र अब ब्राह्मणों में भी अलग-थलग पड़ चुके हैं. अलबत्ता दूसरी तरफ़ राज्य पुलिस ने उनके आरोपी बेटे को पकड़ा, कोर्ट में पेश किया गया और कोर्ट ने फ़ौरन उसे तीन दिन के रिमांड पर भी दे दिया. यह हिदायत भी दी कि कोई सख़्ती नहीं होगी.
सब अपने को बचाने की फ़िराक़ में
उत्तर प्रदेश में राजनीति की शतरंज बिछी है और चालें चली जा रही हैं. आज वहां सभी राजनीतिक दल अपने और अपने सुप्रीम नेता को बचाने के लिए लड़ने के लिए मैदान में हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी की तरफ़ से योगी आदित्य नाथ की प्रतिष्ठा दांव पर है. तो सपा, बसपा और रालोद भी अपने अस्तित्त्व व अपने वोट बैंक को बचाने के लिए लड़ते प्रतीत हो रहे हैं. उधर कांग्रेस यूपी के ज़रिये दूसरे राज्यों में अपने को बचाये रखने के वास्ते तिकड़म में जुटी है. उसे लगता है देर-सेबर मोदी के समक्ष विकल्प कांग्रेस ही होगी, इसलिए उसे चर्चा में बनाए रखना है. भले वह हारे या जीते. ऐसे में ओवैसी और चंद्रशेखर रावण किसे लाभ पहुँचाएंगे, यह समय बताएगा. फ़िलहाल तो यूपी की लड़ाई में सिर्फ़ बीजेपी और सपा ही सदल-बल आमने-सामने हैं.
शहीदों के घर जाने का वक्त नहीं
लेकिन इसी राजनीति के बीच उन शहीदों के घर जाने का समय किसी भी दल के पास नहीं है, जो 10 अक्टूबर को कश्मीर के आतंकी हमले में मारे गए. वे सिख नेता भी नहीं, जो लखीमपुर खीरी की हर छोटी-बड़ी घटना में सांत्त्वना देने पहुंच रहे हैं, वही यूपी के बांदा ज़िले के उस गांव में नहीं गए जहां का एक जवान शहीद हुआ और वह भी सिख था. यह दुर्भाग्य है और इसी को राजनीति कहते हैं.