चिंतित करने वाला गठजोड़: राजनेताओं की पुलिस व आपराधिक तत्वों से मिलीभगत का मजबूत होना चिंताजनक
छत्तीसगढ़ के निलंबित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक गुरजिंदर पाल सिंह के खिलाफ राजद्रोह और आय से अधिक संपत्ति के मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने राज्यों में पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के अपने फायदे के लिए दुरुपयोग के सच को नए सिरे से सामने ला दिया है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| छत्तीसगढ़ के निलंबित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक गुरजिंदर पाल सिंह के खिलाफ राजद्रोह और आय से अधिक संपत्ति के मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने राज्यों में पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के अपने फायदे के लिए दुरुपयोग के सच को नए सिरे से सामने ला दिया है। अपने खिलाफ दर्ज मामलों में गिरफ्तारी से राहत पाने के लिए जीपी सिंह सुप्रीम कोर्ट गए। उन्हें राहत मिली भी, लेकिन इस प्रकरण ने शासन-प्रशासन के कामकाज को लेकर अनेक गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजनेताओं के पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के साथ गठजोड़ की समस्या नई नहीं है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह समस्या दूर होने के बजाय और अधिक गंभीर होती जा रही है। राज्य सरकारें पुलिस और प्रशासनिक अफसरों का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के मामले में एक-दूसरे से होड़ करती नजर आती हैं
गुरजिंदर पाल सिंह छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती रमन सिंह सरकार में शक्तिशाली पुलिस अफसर माने जाते थे। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद वह नई सरकार के निशाने पर आ गए। उन पर आरोप है कि उन्होंने भूपेश बघेल सरकार गिराने की साजिश रची। उन्हें निलंबित किया गया और उन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही थी। जैसा इस मामले में हुआ अथवा हो रहा है वैसे ही प्रसंग अन्य अनेक राज्यों में भी रह-रहकर सामने आते रहते हैं। राज्यों में सरकारें बदलने के साथ पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के मनमाने इस्तेमाल का एक दूसरा सिलसिला शुरू हो जाता है। जब भी राज्यों में सत्ता परिवर्तन होता है तो या तो अफसरों के एक वर्ग का व्यवहार बदल जाता है या फिर उनके प्रति नई सरकार के रवैये में परिवर्तन आ जाता है। पुलिस और नौकरशाही का यह राजनीतिकरण चिंतित करने वाला चलन बन गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी छत्तीसगढ़ के घटनाक्रम के संदर्भ में अपनी इसी चिंता को व्यक्त किया है। यह मामला इसलिए और अधिक ध्यान खींचने वाला है, क्योंकि निलंबित पुलिस अफसर गुरजिंदर पाल सिंह पर राज्य सरकार के खिलाफ षड्यंत्र रचने और समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने के आरोप में राजद्रोह का केस दर्ज किया गया। राजद्रोह एक अत्यंत गंभीर आरोप है। इसका राजनीतिक फायदे के लिए मनमाने तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह गौर करने लायक है कि इस कानून का जितनी सहजता से इस्तेमाल किया जाता है उतना ही मुश्किल इसे साबित कर पाना होता है। ऐसे विरले ही मामले होंगे जिनमें कोई राज्य सरकार किसी पर राजद्रोह के आरोप को उच्चतम न्यायालय के स्तर तक साबित कर पाई हो। फिर भी यह कानून मौजूद है और राज्य इसका मनमाने ढंग से दुरुपयोग कर रहे हैं।
भारत दुनिया के लिए एक मिसाल
लोकतंत्र के लिहाज से भारत दुनिया के लिए एक मिसाल की तरह है। बड़ी आबादी के साथ अपने देश में क्षेत्रीय आकांक्षाएं भी हैं। राज्यों में सक्रिय राजनीतिक दल इन्हीं आकांक्षाओं के आधार पर अपनी सियासत करते हैं। वे अपने राजनीतिक फायदे के लिए पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के मनमाने इस्तेमाल को अपना अधिकार समझते हैं। संविधान में जो व्यवस्थाएं की गई हैं वे पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को अहम जिम्मेदारी देती हैं। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे और किसी राजनीतिक या सामाजिक दबाव में नहीं आएंगे। राज्यों के साथ केंद्रीय स्तर पर भी सरकारों द्वारा अधिकारियों के अपने फायदे के लिए इस्तेमाल के दर्जनों प्रसंग हैं। राज्य सरकारें तो इस काम में इसलिए भी आगे रहती हैं, क्योंकि वे पुलिस पर अपना नियंत्रण कम नहीं होने देना चाहती हैं। चूंकि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है इसलिए राज्य सरकारें पुलिस का इस्तेमाल अपने ढंग से करने को अपना अधिकार मानती हैं। देश लंबे अर्से से पुलिस के ढांचे में सुधार की आवश्यकता महसूस कर रहा है, लेकिन न तो राज्य सरकारें पूरे मन से इसके लिए तैयार हैं और न केंद्रीय सत्ता इसकी ठोस पहल करती नजर आती है। यह स्थिति तब है जब पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट करीब डेढ़ दशक पहले कई दिशा-निर्देश जारी कर चुका है और इनके अनुपालन में देरी को लेकर अनेक अवसरों पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर चुका है।
पुलिस और प्रशासनिक तंत्र का मनमाना इस्तेमाल
पुलिस और प्रशासनिक तंत्र के मनमाने इस्तेमाल को लेकर समस्या इसलिए और अधिक गंभीर हो गई है, क्योंकि खुद पुलिस और प्रशासनिक अफसर न तो अपनी छवि को लेकर गंभीर हैं और न इसे रोकने के इच्छुक दिखते हैं। राजनेताओं और पुलिस-प्रशासनिक अफसरों का गठजोड़ अपने-अपने हितों की र्पूित के लिए एक-दूसरे का पूरक बनकर काम करता है। राज्य सरकारों को पुलिस और नौकरशाही का साथ इसलिए भी रास आता है, क्योंकि इससे वे अपने चुनावी हितों को भी पूरा करती हैं। ताजा उदाहरण बंगाल का है, जहां चुनाव के बाद हिंसा के तमाम मामले सामने आए और अदालतों को भी इसमें दखल देना पड़ा। उच्च न्यायालय ने हिंसा के इन मामलों की जांच की जिम्मेदारी सीबीआइ को सौंपी है। यह वक्त ही बताएगा कि इन मामलों में किसी अफसर की जिम्मेदारी तय हो पाती है या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि अतीत में ऐसे चुनिंदा मामले ही सामने आए, जिनमें दोषी पुलिस और प्रशासनिक अफसरों को कड़ी सजा मिली हो।
लोगों को निराश करता राजनेताओं और पुलिस-प्रशासन का गठजोड़
राजनताओं और पुलिस-प्रशासन का यह गठजोड़ आम आदमी को निराश करने के साथ ही उसका भरोसा तोड़ने वाला है। लोगों का विश्वास इसलिए कम होता जा रहा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि पुलिस राजनीतिक एजेंडे के तहत काम करती है। ऐसे में यह अपेक्षा कठिन है कि जो लोग राजनीतिक रूप से सताए हुए हैं उन्हें पुलिस से सहायता आसानी से हासिल हो पाती होगी। राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण ने जनता की रही-सही आस भी तोड़ने का काम किया है। आपराधिक छवि और प्रवृत्ति वाले लोगों की राजनीति में सक्रियता और उन्हें पुलिस व नेताओं से मिलने वाला संरक्षण केवल लोकतंत्र को ही दूषित नहीं करता, बल्कि शासन-प्रशासन को भी कमजोर करता है और लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था को भी डिगाता है। इस पर अंकुश के लिए उच्चतम न्यायालय ने कई निर्देश दिए हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही है।
राजनेताओं की पुलिस व आपराधिक तत्वों से मिलीभगत
राजनेताओं की पुलिस व आपराधिक प्रवृत्ति के तत्वों से मिलीभगत से बने त्रिकोण की जड़ें इसलिए मजबूत हो रही हैं, क्योंकि पुलिस या तो दबाव में या फिर स्वार्थवश अपना काम सही तरह से करने से इन्कार कर रही है। अगर पुलिस लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल हो जाए कि उसके लिए हर नागरिक समान है तो न केवल उसके प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा, बल्कि लोकतंत्र को भी मजबूती मिलेगी। पुलिस का उद्देश्य तो अपनी ऐसी छवि का निर्माण होना चाहिए कि लोग खुद को सुरक्षित महसूस करें। सुरक्षा की ऐसी भावना सशक्त समाज के निर्माण के साथ देश के तेज विकास में भी सहायक बनेगी।