चिंतित करती महंगाई की मार, आर्थिक मोर्चे पर सधे हुए कदम दीर्घकाल में होंगे फायदेमंद
सोर्स- Jagran
धर्मकीर्ति जोशी : महंगाई आर्थिक मोर्चे पर अभी सबसे बड़ी वैश्विक चुनौती बनी हुई है। भारत में भी यह असहज स्तर पर है, लेकिन कई देशों पर इसका कहर कहीं ज्यादा असर डाल रहा है, जिसकी तपिश हमें भी झेलनी पड़ रही है। हाल के दिनों में रुपये की पतली हुई हालत से लेकर शेयर बाजार पर पड़ती मार के पीछे भी कहीं न कहीं महंगाई का वैश्विक रुझान ही जिम्मेदार है। अमेरिका में बढ़ती महंगाई पर नियंत्रण के लिए बीते दिनों अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की। फेड के इस कदम ने दुनिया भर के बाजारों और केंद्रीय बैंकों पर दबाव बढ़ा दिया है। यही कारण है कि न केवल भारतीय रुपया, बल्कि तमाम देशों की मुद्रा डालर के आगे कराह रही हैं। ब्रिटिश पाउंड में तो हाल में इतनी गिरावट आई कि एक वक्त उसमें विनिमय कारोबार तक रोकना पड़ गया।
यही हाल शेयर बाजारों का है, क्योंकि अमेरिका में बढ़ी ब्याज दरों के आकर्षण में विदेशी निवेशक अन्य बाजारों से पैसा निकालकर अमेरिका का रुख कर रहे हैं। वैसे भी फेड केवल इतने पर ही विराम नहीं लगाएगा। उसने संकेत दिए हैं कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी का यह सिलसिला कुछ समय तक यूं ही कायम रहेगा। इसके बाद अब यही माना जा रहा है कि कुछ दिन में होने वाली भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति कमेटी यानी एमपीसी की समीक्षा में ब्याज दरों में बढ़ोतरी पर मुहर लगना तय है। इतना ही नहीं, पहले दरों में 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी का अनुमान था, लेकिन फेड के ताजा कदम को देखते हुए यदि केंद्रीय बैंक दरों में 50 आधार अंकों की बढ़ोतरी करता है तो उस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
वैश्विक महंगाई की समस्या और उससे निपटने के लिए किसी सर्वस्वीकार्य समाधान की राह में सबसे बड़ी मुश्किल उसके रुझान का जटिल स्वरूप है। अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख स्तंभ इस समय महंगाई से परेशान हैं और उनकी इस परेशानी का आधार भी अलग-अलग है। जैसे अमेरिका में यह मांग जनित दबाव से उपजी महंगाई है। कोविड महामारी से निपटने में अमेरिकी प्रशासन ने जो भीमकाय राजकोषीय प्रोत्साहन दिए, उसके चक्रीय प्रभाव ने वहां मांग को बड़े स्तर पर बढ़ा दिया। यही कारण है कि वहां इससे निपटने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोतरी के पारंपरिक उपाय का ही सहारा लिया जा रहा है। समस्या यही है कि इसका असर पूरी दुनिया के आर्थिक परिदृश्य पर पड़ रहा है।
यूरोपीय संघ की हालत भी महंगाई ने खस्ता की हुई है। ये देश मुख्य रूप से ऊर्जा संसाधनों की कीमतों में आई आसमानी तेजी से परेशान हैं, जो रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्या है। गैस की आपूर्ति को लेकर बड़ी हद तक रूस पर निर्भर इन देशों का गणित इस युद्ध से गड़बड़ा गया है। एक तो रूस से तल्खी उन्हें भारी पड़ रही है और दूसरे यूक्रेन से गुजरने वाली पाइपलाइनों के बाधित होने के कारण गैस आपूर्ति बाधित हो गई है। सर्दियों की दस्तक के साथ वहां ऊर्जा की खपत भी बढ़ जाएगी।
खैर, इस साल का प्रबंध तो किसी तरह भंडारण किए हुए संसाधनों से हो जाएगा, लेकिन यह समस्या अगले साल विकराल हो जाएगी जब संचित भंडार कम या समाप्त हो जाएंगे। यूरोप के लिए राहत के आसार इसलिए भी नहीं दिखते, क्योंकि रूस और यूक्रेन में किसी समझौते के बजाय टकराव लंबा खिंचने की आशंका अधिक बढ़ गई है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक और मजबूत स्तंभ चीन में हाउसिंग सेक्टर के भरभराने और कोविड नीति ने उसकी आर्थिकी को नाजुक बना दिया है। इस कारण वहां कई वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन-आपूर्ति पर असर पड़ा है। इससे वैश्विक आपूर्ति शृंखला प्रभावित हुई है।
स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर पर महंगाई के नरम पड़ने की हाल-फिलहाल कोई उम्मीद नहीं दिखती। भारत भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। वर्तमान स्थितियों में भारत के समक्ष बढ़ी चुनौतियों में यह प्रत्यक्ष भी दिखता है। चूंकि दुनिया के प्रमुख देश और भारत के अहम व्यापारिक साझेदार जिस प्रकार महंगाई और उसके कारण मंदी के शिकार होते दिख रहे हैं, उसमें भारत से होने वाले निर्यात घट जाएंगे। निर्यात के हालिया आंकड़ों में यह रुझान दिख भी रहा है। इससे भारत के समक्ष दोहरी चुनौती उत्पन्न होती है। देश से होने वाले निर्यात घट रहे हैं और चूंकि भारत अपनी कुछ आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिन वस्तुओं का आयात करता है, उनका आयात जस का तस बना रहेगा। इसके अलावा रुपये की घटती हैसियत से आयात का यह बोझ थोड़ा और बढ़ता जाएगा। भारत की महंगाई भी मुख्य रूप से आयातित महंगाई है तो कीमतों पर भी इसका असर दिखेगा।
ऐसे परिदृश्य में रिजर्व बैंक के समक्ष दो प्रमुख चुनौतियां हैं। एक तो महंगाई पर नियंत्रण की दिशा में ब्याज दरों में बढ़ोतरी उसके लिए अपरिहार्य होगी और दूसरी यह कि रुपये की गिरती सेहत सुधारने के लिए भी कुछ सहारा देना होगा। ये दोहरी चुनौतियां दोधारी तलवार की तरह हैं, क्योंकि ब्याज दरों में बढ़ोतरी से कर्ज की मांग और आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होकर समग्र आर्थिकी पर असर डाल सकती हैं। वहीं विदेशी मुद्रा भंडार की एक सीमा को देखते हुए केंद्रीय बैंक रुपये को संभालने में एक हद तक ही हस्तक्षेप कर सकता है।
इन नकारात्मक संकेतों के बीच भारत के नजरिये से कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं। एक यही कि दुनिया के मुकाबले भारत में महंगाई उतनी ज्यादा नहीं है और तमाम देशों की मुद्राओं से तुलना करें तो भारी वैश्विक उथल-पुथल की स्थिति के बावजदू रुपये की हैसियत में तमाम देशों की मुद्राओं की तुलना में उतनी ज्यादा गिरावट नहीं आई है। मुद्रा को संतुलन देने में रिजर्व बैंक का रुख भी अभी तक बहुत सधा हुआ रहा है। अब बस यही देखना होगा कि वैश्विक चुनौतियों से निपटने में आगे किस प्रकार की कार्रवाई जारी रहती है। हम तात्कालिक परेशानियों से तो पीछा नहीं छुड़ा सकते और उनका कुछ दर्द झेलना ही होगा, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर सधे हुए कदम दीर्घकाल में जरूर हमारे लिए लाभदायक होंगे।