10 जनवरी 1975 को पहली बार नागपुर में आयोजित हुआ था विश्व हिंदी दिवस
विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को था और प्रवासी भारतीय दिवस 9 जनवरी को। ये दोनों दिवस साथ आते हैं लेकिन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम:
विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को था और प्रवासी भारतीय दिवस 9 जनवरी को। ये दोनों दिवस साथ आते हैं लेकिन इस वर्ष इन पर बात तक नहीं हुई। कोरोना में सावधानी जरूरी है लेकिन इसी दौरान, कई सम्मेलन हुए लेकिन इन दोनों महत्वपूर्ण दिवसों को हमारे प्रचारतंत्र, नेताओं और समाजसेवियों ने याद तक नहीं किया। विश्व हिंदी-दिवस पहली बार 1975 की 10 जनवरी को नागपुर में आयोजित हुआ था।
अब तक लगभग दर्जन भर विभिन्न देशों में ये सम्मेलन हो चुके हैं लेकिन इसकी ठोस उपलब्धियां क्या हैं? हम वही खड़े हैं, जहां से 46 साल पहले थे। क्या संयुक्तराष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाओं में वह आज तक शामिल हो पाई? भारत तो 54 देशों के राष्ट्रकुल का सबसे बड़ा देश है। क्या कभी राष्ट्रकुल में हिंदी की प्रतिष्ठा हुई? जिन राष्ट्रों में भारतीय बहुसंख्यक हैं, क्या वहां हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला?
क्या वहां छात्रों को अनिवार्य रुप से हिंदी पढ़ाई जाती है? क्या कोई भी विषय की पढ़ाई का माध्यम वहां हिंदी है? मान लें कि मैंने ऊपर जो काम बताए हैं, वे काम सरकारों के हैं लेकिन क्या जनता ने भी हिंदी को विश्व-भाषा का दर्जा दिलाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए? हम हिंदीभाषी ही अपने महत्वपूर्ण अधिकारिक काम हिंदी में नहीं करते? हिंदीभाषी लोग हस्ताक्षर तक हिंदी में नहीं करते।
विदेशों में रहनेवाले भारतीय नागरिक यदि अपने हस्ताक्षर हिंदी में करने लगें तो उनकी अलग पहचान बनेगी और विदेशी लोग भी जानने लगेंगे कि भारत की भाषा हिंदी है, जो विश्व-भाषा बनने के योग्य है। पिछले 50-55 साल में मैं लगभग 80 देशों में गया हूं। मेरे किसी भी पारपत्र (पासपोर्ट) पर दस्तखत अंग्रेजी में नहीं हैं। किसी भी विदेशी बैंक ने मेरे हिंदी हस्ताक्षरवाले चेक को अस्वीकार नहीं किया है।
ये संतोष का विषय हो सकता है कि आजकल दुनिया के दर्जनों विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाने लगी है लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर विदेशी लोगों को उनकी सरकारों द्वारा हिंदी इसलिए पढ़ाई जाती है कि उन्हें या तो भारत के साथ या तो कूटनीति या जासूसी के काम में लगाना होता है। यदि हिंदी को विश्व-भाषा बनना है तो उसे अभी कई सीढ़ियां चढ़नी होंगी
लेकिन सबसे पहले उसे संयुक्तराष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा बनना होगा। इस समय छह आधिकारिक भाषाएं हैं- अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, रूसी, हिस्पानी और अरबी! इनमें से एक भी भाषा ऐसी नहीं है, जिसके बोलनेवालों की संख्या दुनिया के हिंदीभाषियों से ज्यादा है। अंग्रेजी दुनिया के बस चार-पांच देशों की ही भाषा है। जहां तक चीनी का सवाल है, उसके आधिकारिक मंडारिन भाषाभाषियों की संख्या भी हिंदीभाषियों से कम है।
हिंदी को इन सभी भाषाओं के पहले संयुक्तराष्ट्र की भाषा होना चाहिए था। बस, यहां संतोष की बात यही है कि अटलजी और मोदीजी, दो ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं, जिन्होंने अपने भाषण वहां हिंदी में दिए। 1999 में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर मैंने संयुक्तराष्ट्र में हिंदी में भाषण देना चाहा तो मालूम पड़ा कि उस समय उसके अनुवाद की ही कोई व्यवस्था नहीं थी।
संस्कृत की पुत्री-दर्जनों एशियाई भाषाओं का संगम होने के कारण हिंदी का शब्द भंडार दुनिया की किसी भी भाषा से बहुत बड़ा है। इससे भारत में चल रही अंग्रेजी की गुलामी भी घटेगी और हमारी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और व्यापार में भी चार चांद लग जाएंगे। इस समय विदेशों में प्रवासी भारतीयों की संख्या लगभग सवा तीन करोड़ है। दुनिया के ज्यादातर देशों की आबादी भी इतनी नहीं है।
अब से 50-55 साल पहले मैं जब न्यूयार्क में पढ़ता था तो किसी से हिंदी में बात करने के लिए मैं तरस जाता था लेकिन अब हाल यह है कि जब भी मैं दुबई जाता हूं तो लगता है कि छोटे-मोटे भारत में ही आ गया हूं। आज दुनिया के सभी प्रमुख देशों में प्रवासी भारतीय प्रभावशाली पदों पर हैं। यदि इन प्रवासियों को प्रेरित किया जाए तो वे न केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने में जबर्दस्त योगदान करेंगे बल्कि भारतीय संस्कृति को वे विश्व-संस्कृति के तौर पर स्वीकृत भी करवा सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)