इसका अर्थ यह है कि प्रकृति जीवन रक्षण और जैव विविधता के संरक्षण के लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधन उपलब्ध कराती है, लेकिन यदि हम अपने स्वार्थ के लिए उनका अति दोहन करेंगे तो एक ओर उससे पर्यावरणीय क्षरण होगा और दूसरी ओर वह मानव के अस्तित्व पर भी गंभीर संकट उत्पन्न करेगा। इस पृष्ठभूमि में संवैधानिक प्रविधानों के जरिए यह समझना आवश्यक है कि हमें क्या करना चाहिए। मानव पर्यावरण की सुरक्षा पर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित किया गया था। भारत द्वारा इसका अनुमोदन किए जाने के बाद वर्ष 1976 में 42 वें संविधान संशोधन से अनुच्छेद 48 (ए) और अनुच्छेद 51 (ए) जोड़ा गया जिनमें क्रमश: राज्य और नागरिकों को पर्यावरण की सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया है। इसके अतिरिक्त, इस संशोधन ने राज्य सूची के कई विषयों को समवर्ती सूची में शामिल किया, जैसे प्रविष्टि 17(ए) में वन, 17(बी) में वन्य जीवन तथा 20(ए) में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन।
चूंकि भारत के संविधान में नैर्सिगक न्याय को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है, अत: यह हमारा कर्तव्य है कि हम पर्यावरणीय सुरक्षा कर ऐसे न्याय की उपलब्धता में राज्य को समर्थन दें। पिछले कुछ दशकों में विशेषकर बाजार अर्थव्यवस्था के प्रसार के बाद हम अपने अधिकारों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हुए हैं। अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता निश्चित रूप से एक विकसित समाज का अभिन्न अंग है, लेकिन यह भी सत्य है कि अधिकारों की बढ़ती मांग संघर्षों का प्रमुख कारण भी बनती है। कारण यह कि हम अधिकारों की मांग करने पर अत्यधिक जोर देने के फलस्वरूप कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं। शायद इसी स्थिति ने पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनशीलता नहीं बढ़ पाने में योगदान दिया है।
कर्तव्यपरायणता राष्ट्र विकास का सबसे सुदृढ़ मार्ग है। यही राष्ट्रवाद की सुदृढ़ता का आधार है। यहां राष्ट्रवाद को सैद्धांतिक रूप में नहीं, बल्कि व्यावहारिक रूप में समझने की आवश्यकता है। यदि हम अपने स्तर पर ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें तो हम राष्ट्र विकास में सीधे तौर पर योगदान दे सकेंगे। इन्हीं कर्तव्यों में पर्यावरण के प्रति हमारे कर्तव्य भी शामिल होंगे। हम ऐसे दृष्टिकोण को उत्तर-लोकतांत्रिक दृष्टिकोण कह सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति द्वारा कर्तव्य का पालन करने से किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार की रक्षा होती है। कारण यह कि अधिकार और कर्तव्य सह-संबंधी हैं। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि हम अन्य व्यक्तियों को उनके कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील बनने के लिए प्रेरणा दे पाएंगे। और उनके द्वारा ऐसा करने पर हमारे अधिकारों की सुरक्षा की संभावनाएं अधिक होंगी।
यही दृष्टिकोण नागरिकों और राज्य के बीच भी प्रचलित होना चाहिए। अर्थात पर्यावरण क्षरण की विभीषिका और सामाजिक-र्आिथक संघर्षों की बढ़ती भयावहता की पृष्ठभूमि में अधिकार आधारित दृष्टिकोण के बदले कर्तव्य आधारित दृष्टिकोण अपनाए जाने की नितांत आवश्यकता उत्पन्न हो गई है। इस दिशा में यदि न्यायपालिका की भूमिका पर विचार करें तो यह स्पष्ट होगा कि न्यायालयों ने पहलकारी प्रयासों के जरिए न केवल अधिकारों का संरक्षण किया है और नए अधिकारों की पहचान की है, बल्कि उसने राज्य और नागरिकों को अपने दिशा निर्देशों यहां तक कि कई अवसरों पर आदेशों के माध्यम से उन्हें जवाबदेह और कर्तव्यनिष्ठ बनाने का भी प्रयास किया है। एमसी मेहता बनाम कमल नाथ 1997 मामले में न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 का निर्वचन कर जन-न्यास एवं पारिस्थितिकी सिद्धांत की व्याख्या की। इसके अनुसार, राज्यक्षेत्र में उपलब्ध सभी संसाधनों के लिए राज्य एक न्यासी (ट्रस्टी) के रूप में कार्य करेगा, न कि उनके स्वामी के रूप में और इनका उपयोग केवल जन कल्याण के लिए ही किया जाएगा।
इसी प्रकार से गंगा नदी से संबंधित प्रदूषण के मामले में वर्ष 1987 में यह कहा गया था कि चमड़े के कारखानों को स्थानांतरित किए जाने से हालांकि बेरोजगारी उत्पन्न होने की आशंका होगी, लेकिन जीवन, स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी नागरिकों के लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं। स्वास्थ्य की महत्ता तो हमने कोविड संकट के दौरान समझ ही ली है। हालांकि इसे न्यायिक अति सक्रियता कह कर इसकी आलोचना की गई, लेकिन पूर्वाग्रह रहित होकर विचार करने से न्यायालय के दृष्टिकोण का महत्व स्पष्ट हो जाएगा। न्यायपालिका ने अपने एक पहलकारी प्रयास के द्वारा यह निर्देश दिया कि भारत में शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर पर्यावरणीय शिक्षा शामिल होनी चाहिए। साथ ही, पर्यावरण सुरक्षा को राज्य और नागरिकों पर एक सामाजिक बाध्यता बनाया जाना चाहिए
पर्यावरण सुरक्षा और आर्थिक विकास पर्यावरण सुरक्षा तथा र्आिथक विकास और अधिकारों के संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की दृष्टि से ताज ट्रैपीजियम मामला (एम सी मेहता बनाम भारत संघ 1997) अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसमें उच्चतम न्यायालय ने श्रम पर्यावरण विधिशास्त्र (लेबर एनवायरमेंटल जूरिस्प्रुडेंस) की एक नई संकल्पना विकसित की। अपने निर्णय में न्यायालय ने ताजमहल की सुरक्षा के लिए उसके निकट अवस्थित कोयला और डीजल उपयोग करने वाले उद्योगों को स्थानांतरित करने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि इन उद्योगों के कर्मचारियों को स्थानांतरण बोनस दिया जाएगा। बंद होने वाले उद्योगों के कर्मचारियों को छह वर्ष के भत्ते के बराबर मुआवजा भी दिया जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि न्यायालय ने स्पष्ट रूप निर्देश दिया कि बोनस और ऐसा मुआवजा उस मुआवजे के अतिरिक्त होगा जो कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 के तहत दिया जाता है। इसी प्रकार, प्रदूषण नियंत्रण और इस समस्या के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए न्यायालय ने 'एहतियाती सिद्धांत' और 'प्रदूषक भुगतान करेगा' सिद्धांत की भी व्याख्या की है।
एहतियाती सिद्धांत साक्ष्यों के कानून तहत पर्यावरणीय मामलों में प्रमाण भार (सिद्ध करने का भार) से संबंधित है। न्यायालय ने इस सिद्धांत के तहत यह कहा कि प्रदूषक का यह दायित्व होगा कि वह यह प्रमाणित करे कि उसके किसी कार्य, उद्योग या किसी गतिविधि से स्वास्थ्य या पर्यावरण को कोई क्षति नहीं होगी। उल्लेखनीय है कि इस सिद्धांत को पहले पृथ्वी सम्मेलन (रियो सम्मेलन) 1992 में घोषणापत्र के तहत 15वें सिद्धांत के रूप में शामिल किया गया था। भारत में इस सिद्धांत के संबंध में प्रविधान है कि यदि प्रदूषक द्वारा पर्याप्त साक्ष्य नहीं जुटाए जा सके तो न्यायालय उसके कार्यों, उद्योग पर नियंत्रण लगाते हुए पर्यावरण सुरक्षा को वरीयता देगा। दूसरी ओर, प्रदूषक भुगतान करेगा सिद्धांत में दो अनिवार्य तत्व शामिल हैं। पहला यह कि प्रदूषण के कारण होने वाली क्षति की र्पूित प्रदूषक द्वारा की जाएगी। दूसरा यह कि पर्यावरण के पुनरुत्थान पर होने वाला व्यय भार भी प्रदूषक पर होगा।
संवैधानिक और न्यायिक प्रविधानों की समझ के साथ-साथ यह समझना भी आवश्यक है कि मानव और प्रकृति के बीच संघर्ष का मुख्य कारण क्या है। मानव ने अपनी बुद्धि और बल के कारण स्वयं को प्रकृति से अलग मान रखा है और शायद उसे यह भ्रम है कि वह प्रकृति का संरक्षण कर सकता है। यह मान्यता विवेकहीनता का उदाहरण है। जबकि वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। मानव प्रकृति का ही एक अंग है और प्रकृति उसका संरक्षण करती है। इस भावना का वास्तविक विकास ही मानव-प्रकृति संघर्ष को कम कर सकता है। कई अवसरों पर यह विवाद का विषय बन जाता है कि प्रकृति और पर्यावरण को वरीयता देने से विकास की गति धीमी होगी और विश्व की कुल जनसंख्या तक संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में गांधी के कथन जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है, उस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक सिद्धांतों से यह स्पष्ट है कि प्रकृति में प्रत्येक पारितंत्र में स्वांगीकरण की अपनी एक क्षमता होती है जिसके द्वारा वह प्राकृतिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न हानिकारक पदार्थों का पुनर्चक्रण कर उन्हें पुन: उपयोग के योग्य बनाता है। विकास के लिए संसाधनों का अति दोहन किए जाने से हानिकारक पदार्थों यानी प्रदूषणकी मात्रा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई है और परितंत्रों की स्वांगीकरण की क्षमता कम हो गई है। ऐसी स्थिति में हमें इस क्षमता को बढ़ाने के लिए बेहतर तकनीकों का प्रयोग करना होगा जिससे पुनर्चक्रण की दर बढ़े, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण यह होगा कि हम ऐसे हानिकारक पदार्थों की मात्रा कम करने का प्रयास करें। इसके लिए पारितंत्र के सभी अवयवों के प्रति हमें अपनी संवेदनशीलता बढ़ानी होगी। सभी अवयवों के महत्व को समझना होगा और स्वयं में कर्तव्यपरायणता विकसित करनी होगी। तभी हम विश्व पर्यावरण दिवस पर लिए अपने संकल्प को यथार्थ का रूप दे पाएंगे।
[अध्यक्ष, सेंटर फॉर अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली]