तीन कृषि कानूनों की वापसी
प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ‘गुरु परब’ के दिन तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके देश के किसानों द्वारा पिछले एक वर्ष से इनके विरोध में किये जा रहे आन्दोलन को वापस लेने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
आदित्य चोपड़ा: प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 'गुरु परब' के दिन तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके देश के किसानों द्वारा पिछले एक वर्ष से इनके विरोध में किये जा रहे आन्दोलन को वापस लेने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। दरअसल कृषि क्षेत्र में सुधारों की जिस गरज से ये तीनों कानून मोदी सरकार ने बनाये थे उनका शुरू से ही किसान संगठन विरोध कर रहे थे। उनका मानना था कि इन कानूनों की मार्फत देश के कृषि क्षेत्र पर भी पूंजीपतियों का कब्जा हो जायेगा और किसानों की स्थिति अपने ही खेतों में किसी नौकर जैसी हो जायेगी। उनकी इस आशंका को सरकारी स्तर पर जितनी भी दूर करने की कोशिश की गई उससे उतना ही अधिक सन्देह बढ़ता गया। सबसे बड़ा विरोध इस बात को लेकर हुआ कि कृषि मंडी व्यवस्था के समानान्तर इन कानूनों की मार्फत सरकार जिस प्रकार निजी वाणिज्यिक या उपज खरीद-फरोख्त केन्द्र स्थापित करना चाहती थी उससे किसानों की आमदनी पर विपरीत असर पड़ता और सरकार द्वारा नियत किये गये फसलों के न्यूनतम कृषि मूल्य प्रणाली के परखचे उड़ जाते। किसानों काे खतरा था कि समानान्तर खरीद केन्दों की मार्फत अन्ततः बड़े-बड़े पूंजीपति कृषि क्षेत्र पर अपनी विशाल पूंजी की मार्फत कब्जा जमाने में सफल हो जाते। इसके साथ ही इन तीन कानूनों में से एक की मार्फत कृषि जन्य उत्पादों की भंडारण सीमा को भी समाप्त कर दिया गया था जिससे खुले बाजार में किसी फसल की आवक समाप्त हो जाने के बाद उसके दाम मनमाने ढंग से आपूर्ति को नियन्त्रित करके बढ़ाने की छूट पूंजीपतियों को मिल जाती। साथ ही ठेके पर खेती की प्रथा जारी करके किसानों को पूंजीपति दासता की बेड़ियों में कस सकते थे। किसानों की इन आशंकाओं को निर्मूल साबित करने के लिए सरकार द्वारा जो भी तर्क दिये जा रहे थे वे किसानों के गले नहीं उतर सके और उन्होंने अपना आन्दोलन जो लगभग एक वर्ष पहले शुरू किया था उसे पूर्णतः गांधीवादी सत्याग्रह के रास्ते से जारी रखा। लोकतंत्र में किसी भी आन्दोलन को तभी जारी रखा जा सकता है जबकि उसे जनता का समर्थन प्राप्त हो। भारत की 130 करोड़ से अधिक आबादी में से लगभग 70 करोड़ लोग खेती पर निर्भर करते हैं (बढ़ती आबादी के संशोधित अनुमानों के अनुसार) अतः बहुत स्पष्ट है कि इस आन्दोलन से भावनात्मक रूप से देश के वे सभी लोग जुड़ गये थे जिनका खेतीबाड़ी से किसी न किसी रूप मे लेना-देना है। अतः केन्द्र सरकार के मुखिया के रूप में श्री मोदी ने इन कानूनों को वापस लेने का एलान करके लोक इच्छा का सम्मान किया है। वैसे कृषि राज्यों का विषय है मगर केन्द्र ने इसमें जो नये तीन कानून बनाये वे व्यापार व वाणिज्य के क्षेत्र में भारत की सरकार को मिले अधिकारों के तहत बनाये। इन्हें सर्वोच्च न्यायालय में भी चुनौती दी गई जिसने तीनों कानूनों को 18 महीने तक ठंडे बस्ते में डालने का फैसला दिया लेकिन इससे भी किसान सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने अपना शान्तिपूर्ण आन्दोलन जारी रखा। इसके साथ यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ये तीनों कानून कोरोना काल के पहले दौर में अध्यादेशों की मार्फत लायी थी जिन्हें बाद में संसद में पारित कराया गया और इस प्रक्रिया में उच्च सदन राज्यसभा में भारी हंगामा तक हुआ। जहां तक विपक्षी दलों का सवाल है तो इन कानूनों के विरोध में सभी विपक्षी दलों ने गजब की एकता दिखाई और किसान आन्दोलन को अपना समर्थन दिया। धीरे-धीरे आन्दोलन राजनीतिक पुट भी अख्तियार करता गया जो लोकतन्त्र में एक सामान्य प्रक्रिया होती है क्योंकि कृषि क्षेत्र शुरू से ही राजनीतिक निर्णयों के अधीन रहा है। जमींदारी उन्मूलन कानून से लेकर खेतों की चकबन्दी तक के सभी फैसले राजनीतिक स्तर पर ही लिये गये हैं।संपादकीय :पाकिस्तान-तालिबान एक समान !त्रिपुरा में अभिव्यक्ति का अर्थ?बलि का बकरा बनते डाक्टरशी जिनपिंग का माओ अवतारकरतारपुर साहिब का महत्वमेराडॉक के साथ सफल वेबिनार लोकतन्त्र में किसी भी वर्ग या समुदाय अथवा किसी खास पेशे से जुड़े लोगों की समस्याओं का निवारण राजनीतिक नेतृत्व द्वारा ही किया जाता है। मगर भारत में कृषि क्षेत्र का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह क्षेत्र आज भी हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। भारत की अंसगठित क्षेत्र की 70 प्रतिशत से अधिक अर्थव्यवस्था इसी क्षेत्र पर निर्भर करती है। वैसे भी किसी देश की आर्थिक स्थिति नापने का सबसे सरल पैमाना यह होता है कि उस देश के किसान की आर्थिक स्थिति कैसी है? यूरोप से लेकर अमेरिका तक के देश इसीलिए खुशहाल हैं कि इनके किसान खुशहाल हैं और उनकी नई पीढि़यां उच्च शिक्षा प्राप्त करके दूसरे व्यावसायिक धंधों में लग जाती हैं। भारत में इस क्षेत्र में बहुत धीमी गति से प्रगति हो रही है अतः किसान की आमदनी बढ़ाये जाने का विषय हर सरकार के सामने मुंह बाये खड़े रहता है। दूसरे बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में पूरी तरह प्रवेश कर जाने के बाद हमने अभी तक कृषि क्षेत्र के लिए वे उपाय नहीं किये हैं जिनसे कृषि उत्पादकता को बढ़ाते हुए हम किसानों की आमदनी बाजार की ताकतों से संचालित होने वाले उसके लिए आवश्यक कच्चे माल की कीमतों के अनुरूप तैयार फसल के दामों में वद्धि कर सकें। इसका एकमात्र रास्ता न्यूनतम समर्थन मूल्य बचता है जिसे किसान कानूनी जामा पहनाना चाहते हैं। यह कार्य मंडी समितियों की मार्फत ही हो सकता है क्योंकि किसान के लिए अपनी उपज का उचित मूल्य पाने का आखिरी दरवाजा ये मंडियां ही होती हैं। यह राज्य सरकारों के कार्य क्षेत्र में आता है अतः अब मंडी प्रणाली को मजबूत बनाने के उपाय किये जाने चाहिए। मगर जो सबसे बड़ा विषय है वह भारत की 130 करोड़ जनता को खाद्यान्न उपलब्ध कराने का है और उचित मूल्य पर इस तरह कराने का है कि गरीब से गरीब व्यक्ति का पेट भी भूखा न रहे। भारत एक कल्याणकारी राज है जिसका लक्ष्य जन कल्याण ही होता है और किसान हमारे समाज का अन्नदाता इसीलिए कहा जाता है कि वह मनुष्य की मूलभूत जरूरत पेट की क्षुधा को शान्त करने का उपाय अपने श्रम से करता है।