Will Printing More Money : कितना चैलेंजिंग है रुपया अधिक छापकर अर्थव्यवस्था को बचाने की जुगत

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Update: 2021-06-10 09:55 GMT

संयम श्रीवास्तव। भारत की अर्थव्यवस्था (Indian Economy) कोरोना महामारी (Corona Epidemic) की वजह से बेहद बुरे दौर से गुजर रही है. मार्च 2020 से ही भारत में संपूर्ण लॉकडाउन (Lockdown) कई महीनों तक रहा, जिससे कोरोड़ों लोगों की ज़िंदगी प्रभावित हुई, काम-धंधे, व्यापार सब बंद रहा उस वजह से भारत की इकॉनोमी भी प्रभावित हुई. भारत की अर्थव्यवस्था इस दौरान दो तरफ से मार खा रही थी, एक तो काम-धंधा बंद होने की वजह से भारत सरकार (Indian Government) को टैक्स (Tax) नहीं मिल पा रहा था, दूसरी ओर कोरोना से उभरी चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार अपने खजाने से पैसा दिए जा रही थी. चाहे वह गरीबों के खाते में पैसे पहुंचाना हो या फिर लोगों तक राशन पहुंचाना, या फिर कोरोना प्रबंधन के लिए पैसे खर्च करना सरकार का खजाना हर तरफ से खाली हो रहा था. अब बात चल रही है कि सरकार इस आर्थिक मुसीबत से निपटने के लिए और नोट छापने वाली है, यानि 'क्वॉन्टिटेटिव इज़ींग' अधिक नोट छापने को टेक्निकल भाषा में यही कहते हैं.

हालांकि, अधिक नोट छाप कर भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात होगी तो विरोध तो होगा ही क्योंकि किसी भी मंजिल के लिए जब हम सीधे के बजाय कोई आड़ा-तिरछा रास्ता चुनते हैं तो वहां रिस्क तो होता है. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जिस तरह से अमेरिका के फेडरल रिजर्व बैंक ने बीते कुछ वर्षों में ऐसा करके अमेरिका की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया है उसी तरह से हम भी कर सकते हैं. हालांकि कुछ का मानना है कि अगर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ तो हमारा भी हाल वेनेज़ुएला और ज़िम्बॉव्ये की तरह हो जाएगी जो हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंचा देगा. इन देशों को अधिक नोट छापने के बाद भयंकर मुद्रा स्फिती का सामना करना पड़ा था.
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
इस मामले पर टीओआई को दिए एक इंटरव्यू में आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव का कहना है कि मौजूदा हालात में 'मनी प्रिटिंग' एक अच्छा आईडिया नहीं है, क्योंकि इसमें मुनाफे से ज्यादा लागत लग जाएगी. फिलहाल बैंक फंड से भरे हुए हैं और लिक्विडिटी की कोई कमी नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि अगर प्राइवेट क्रेडिट की मांग में तेजी आती है तो भले ही आरबीआई द्वारा घाटे का मॉनेटाइजेशन करने का सवाल उठता है. उनका कहना है कि डायरेक्ट मॉनेटाइजेशन हमारी पॉलिसी क्रेडिबिलिटी को नुकसान पहुंचा सकता है जो लॉन्ग टर्म में महंगा साबित हो सकता है.
हालांकि कोटक बैंक एमडी उदय कोटक इस विषय में अलग राय रखते हैं और उनका मानना है कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर से जो तबाही हुई है उसे देखते हुए अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए अब एक ही रास्ता है कि जल्द से जल्द नोटों की छपाई शुरू होनी चाहिए. वहीं HDFC के चेयरमैन दीपक पारेख के मुताबिक अगर सरकार कोविड से प्रभावित कारोबारों को आंशिक गारंटी या ब्याज में राहत उपलब्ध कराती है तो इससे उनको राहत मिलेगी. उनका कहना है कि इस वक्त बैंकों के पास लिक्विडिटी मौजूद है और वह इसमें सहयोग कर सकते हैं. पारेख का मानना है कि सरकार को घाटे के पीछे भागने की बजाय विनिवेश और असेट मॉनेटाइजेशन को बढ़ावा देना चाहिए.
ज्यादा नोट छापने से क्या हो सकता है?
दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला का नाम आप सब ने सुना होगा और वहां की बदहाली की तस्वीरें भी ज़रूर देखी होंगी. दरअसल वहां हुआ ये कि अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए वहां के केंद्रीय बैंकों ने खूब ढेर सारे नोट छाप दिए. इस वजह से वहां मंहगाई 24 घंटों में ही बढ़ने लगी और बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ी की एक वक्त पर यहां महंगाई 1 करोड़ फीसदी तक पहुंच गई थी. यहां की हालत ऐसी हो गई है कि लोग यहां अंडे और दूध जैसी ज़रूरत की चीजों को खरीदने के लिए थैला भर-भर के पैसे लेकर जाते हैं. दक्षिण अफ्रिकी देश जिम्बॉब्वे ने भी ऐसा ही किया था, जिस वजह से वहां कि करेंसी वैल्यू इतनी गिरी की लोगों की हालत खराब हो गई. इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि वहां एक वक्त में एक अमेरिकी डॉलर की वैल्यू 25 मिलियन जिम्बॉब्वे डॉलर के बराबर हो गई थी. यही वजह है कि कोई भी देश ज्यादा नोट छापने के बारे में जल्दी नहीं सोचता है क्योंकि अगर ज़रा सी भी चूंक हुई तो उनकी भी स्थिति ऐसी ही हो सकती है.
नोट छापने के अलावा और क्या हो सकता है विकल्प
कोरोना महामारी को जड़ से खत्म करने के लिए वैक्सीनेशन बहुत जरुरी है. और वैक्सीनेशने के लिए बहुत पैसा चाहिए. सरकार ने बजट में वैक्सिनेशन के लिए 35000 करोड़ रुपये उपलब्ध कराए हैं पर यह रकम नाकाफी है और इसे कम से कम दोगुना करने की जरूरत है. अगर लॉकडाउन जून के बाद भी आगे बढ़ता है तो गरीबों के सहयोग स्कीम्स को आगे बढ़ाना होगा. इसके लिए भी फंड की जरूरत पड़ सकती है. कोर सेक्टर्स को राहत देने के लिए भी पूंजी की जरूरत होगी. अर्थशास्त्री रंगराजन इसके लिए लगभग 2 लाख करोड़ का हिसाब लगाते हैं जो जीडीपी का 1 फीसदी तक होगा. इसके लिए अन्य खर्च घटाना सबसे बढ़िया विकल्प होगा.
नोट छापने के अलावा जो सबसे सटीक विकल्प होगा वो यह है कि सरकार को टैक्स कम करना होगा या फिर डीजल-पेट्रोल जैसी चीजों को जीएसटी के अंदर लाना होगा, जिससे इन सब चीजों की कीमत कम हो और लोगों को राहत मिल सके. कोरोना की वजह से बेरोजगारी दर चरम पर है और महंगाई बढ़ती जा रही है. ऐसे में अगर सरकार टैक्स में राहत देती है तो लोगों के लिए अपनी जीविका चलाने में आसानी होगी.
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव भी यहीं चाहते हैं कि मौजूदा हालात में आरबीआई को घाटे को पाटने के लिए सीधे नोट छापने की जरूरत नहीं है. उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है तो लागत, फायदे से कहीं ज्यादा आएगी. सिस्टम पहले से ही भारी मात्रा में लिक्विडिटी से पटा पड़ा है. बैंक फंड से लबालब हैं और वे चाहते हैं कि उन्हें सरकार को फाइनेंस मुहैया कराने का मौका मिले.
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