क्या इमरजेंसी के बाद वाले विपक्ष की शक्ल ले सकेगा मोदी विरोध में खड़े दलों का झुंड?

साल 2014 से अब तक केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है

Update: 2021-08-09 09:28 GMT

संयम श्रीवास्तव। साल 2014 से अब तक केंद्र में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार है और विशेषज्ञों की मानें तो विपक्ष अगर इसी तरह बिखरा रहा तो साल 2024 के लोकसभा चुनाव (2024 Lok Sabha Elections) में भी बीजेपी का पलड़ा भारी रहने वाला है. शायद यही वजह है कि आज देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां धीरे-धीरे एक होने का प्रयास कर रही हैं. दशकों की राजनीति के बाद ऐसा देखने को मिला है जब अलग-अलग विचारधारा के दल एक साथ, एक पार्टी या एक व्यक्ति के विरोध में खड़े हो रहे हैं. यह बिल्कुल करीब 44 साल पहले के भारत की राजनीतिक स्थिति की याद दिलाता है. 70 के दशक में इमरजेंसी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के विरोध में ऐसे ही देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां एक हो गई थीं, इसमें लेफ्टिस्ट, राइटिस्ट हर विचारधारा के दल मौजूद थे. लेकिन तब के विपक्ष की एकजुटता और अब के विपक्ष की एकजुटता में जमीन आसमान का फर्क है. तब जो सामंजस्य विपक्ष में दिखता था आज वह गायब है.


आज के विपक्ष की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में आगे नहीं बढ़ना चाहता, चाहे वह ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) हों या फिर राहुल गांधी (Rahul Gandhi). हालांकि यह दोनों नेता अपने स्तर पर हर संभव प्रयास कर रहे हैं कि समूचा विपक्ष इनके साथ एक मंच पर खड़ा हो. इसीलिए तो ममता बनर्जी ने 5 दिन का दिल्ली दौरा भी किया, जिसमें उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल समेत कई विपक्षी नेताओं से बातचीत की और तो और राहुल गांधी भी चाय पार्टी और संसद में सभी विपक्षी नेताओं को एक साथ कर सरकार को घेरने के लिए राजी करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. हालांकि इन दोनों कोशिशों में कई दल ऐसे भी हैं जो अभी भी इस विपक्षी एकता से काफी दूर मौजूद हैं.


कई मोर्चों में बंटा विपक्ष
राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक ऐसी चीज होती है जो नेताओं को एक साथ रखती भी है और एक दूसरे से दूर भी करती है. ममता बनर्जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा है 2024 के लोकसभा चुनाव में खुद को विपक्ष की तरफ से पीएम उम्मीदवार के तौर पर देखना. बिल्कुल उसी तरह राहुल गांधी की भी ऐसी ही कुछ महत्वाकांक्षा है. हालांकि इन सबके बीच एक और मोर्चा है जो ऐसी महत्वाकांक्षा रखता है. वह है तीसरा मोर्चा, जिसका खांचा लालू प्रसाद यादव जैसे नेता खींच रहे हैं. बीते दिनों ही लालू प्रसाद यादव ने उत्तर प्रदेश के नेता मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव से फिर शरद यादव से मुलाकात की और तो और जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लालू के रंग में रंगे नजर आएं. उन्होंने हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला से भी मुलाकात की. इसके बाद राजनीतिक गलियारे में चर्चा शुरू होने लगी कि क्या ममता बनर्जी और राहुल गांधी जिस विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, लालू, नीतीश, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता उसके इतर एक और मोर्चा 2024 के लिए खड़ा करना चाहते हैं.

पेगासस और कोविड पर बंटा दिखा विपक्ष
इसके साथ ही आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे दल फिलहाल किसी मोर्चे की तरफ नहीं दिखाई दे रहे हैं. आम आदमी पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष के साथ खड़ी होगी इसकी उम्मीद बेहद कम नजर आ रही है. वहीं कांग्रेस के साथ बढ़ती ममता बनर्जी की नज़दीकियों को देखकर यह नहीं लगता कि वाममोर्चा इस गठबंधन के साथ खड़ा होगा. यहां तक कि कई मुद्दों पर भी फिलहाल विपक्ष एक साथ खड़ा नजर नहीं आता. अभी पिछले दिनों ही जब कोविड मैनेजमेंट के लिए पीएम मोदी ने बैठक बुलाई तो उसमें भी दिखा कि कैसे विपक्ष अलग-अलग राय रखता है. दरअसल इस मीटिंग में जहां कांग्रेस, आरजेडी और आम आदमी पार्टी जैसे दल नहीं पहुंचे. वहीं टीएमसी, एनसीपी सहित दूसरे विपक्षी दल इस मीटिंग का हिस्सा बने. पेगासस जासूसी के मुद्दे पर भी पूरा विपक्ष एक साथ एक सुर में बोलते हुए नहीं दिखा.

टीएमसी और कांग्रेस एक साथ होकर भी एक साथ नहीं दिखाई देतीं
ममता बनर्जी ने जब दिल्ली का दौरा किया और उस दौरान उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी से मुलाकात की तो लोगों को लगा कि शायद कांग्रेस पार्टी इस बात पर राजी हो जाए कि 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष के पीएम उम्मीदवार ममता बनर्जी होंगी, लेकिन उसके कुछ ही दिनों बाद राहुल गांधी का जो एक नया रूप देखने को मिला उसने इस धारणा को कहीं ना कहीं तोड़ दिया है. राहुल गांधी ने जिस तरह से संसद में विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश की उसके बाद चाय पार्टी देकर तमाम विपक्षी नेताओं को एक मंच पर लाने का प्रयास किया, इस बात से राहुल गांधी की खूब तारीफ हुई और यहां तक कहा जाने लगा कि राहुल गांधी की सूझबूझ देख कर लगता है कि वह आने वाले 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने बलबूते पर विपक्ष को एक साथ खड़ा कर लेंगे.

राहुल गांधी के इस मजबूत कदम की वजह से ममता बनर्जी का पीएम उम्मीदवार बनने का सपना टूट सकता है और शायद इसका अंदाजा ममता बनर्जी को भी होगा. ममता बनर्जी के साथ समस्या है कि वह बिना कांग्रेस के ना तो विपक्ष की उम्मीदवार बन सकती हैं और ना ही 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए पूरे विपक्ष को एक साथ खड़ा कर सकती हैं. रही बात कांग्रेस की तो वह कभी नहीं चाहेगी की विपक्ष के चुनाव जीतने पर पीएम की कुर्सी पर राहुल गांधी के अलावा कोई और बैठे. हालांकि अगर कांग्रेस इतनी सीटें जीतने में नाकामयाब रही कि वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना सके, इसके बावजूद भी वह ममता बनर्जी जैसी शख्सियत को पीएम की कुर्सी पर बैठने देगी इसकी उम्मीद कम है. क्योंकि इतिहास गवाह है कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ऐसे ही किसी नेता को बैठाया है जो सब की बात सुनकर और पूछ कर आगे चलता हो.

इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के विरोध में पूरा विपक्ष एक साथ था
70 के दशक की राजनीति कुछ और थी, 25 जून 1975 को जब आपातकाल की घोषणा हुई और भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार खत्म कर दिए गए तो इसके विरोध में पूरा विपक्ष लामबंद हो गया. इसमें हर विचारधारा के नेता शामिल थे. जय प्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण, अटल बिहारी वाजपेई, मोरारजी देसाई, नानाजी देशमुख, रामविलास पासवान, सुब्रमण्यम स्वामी, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, अरुण जेटली, एच डी देवगौड़ा, एके गोपालन जैसे कई नेता थे जो अलग-अलग विचारधाराओं वाली राजनीतिक पार्टियों से ताल्लुक रखते थे. लेकिन जब बात विपक्षी एकता की आई तो सभी ने एक सुर में इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का विरोध किया. जिसके बाद इंदिरा गांधी जैसी शख्सियत को चुनाव हारना पड़ा.

उस वक्त के विपक्ष की एकता इसलिए टिकी रही क्योंकि उन्होंने अपने व्यक्तिगत लाभ को चुनाव से पहले नहीं दिखने दिया. यही वजह रही कि विपक्ष की एकता भी जनता को दिखाई दी और जनता ने उसे अपना पूरा समर्थन भी दिया और जनता पार्टी की सरकार देश में बनी. हालांकि आज की राजनीति में ऐसा बिल्कुल नहीं है. चुनाव से पहले ही तमाम बड़े नेता ना कहते हुए भी कह देते हैं कि वह भी पीएम की रेस में खड़े हैं ताकि उनके प्रतिद्वंद्वियों को पता रहे कि उनका रास्ता इतना आसान नहीं है.


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