लोकसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी से बड़ा चेहरा बन जाएंगे केजरीवाल?
Will Kejriwal become a bigger face than Mamata Banerjee before the Lok Sabha elections?
नरेन्द्र भल्ला |
अगला लोकसभा चुनाव होने में अभी पूरे दो साल बाकी हैं लेकिन उससे पहले इस साल के अंत में राजनीति के लिहाज़ से देश के सबसे अहम राज्य गुजरात के अलावा हिमाचल प्रदेश की विधानसभा के चुनाव होने हैं.उसके बाद अगले साल यानी 2023 में देश के नौ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे,जो सही मायने में 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल समझे जाएंगे.राजनीति के जो धुरंधर आज ये मान रहे हैं कि अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने के लिए पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ही इकलौता बड़ा चेहरा बनेंगी, तो शायद वे इस नतीजे पर पहुंचने की बहुत ज्यादा जल्दबाजी दिखाने के साथ ही बड़ी गलती भी कर रहे हैं.
वह इसलिये कि सियासत में अपना एक्सपोजर दिखाने से ज्यादा अपने प्रदेश से बाहर निकलकर दूसरे राज्य की जनता का दिल जीतते हुए वहां की सत्ता में काबिज होना बेहद मायने रखता है.आधुनिक राजनीति की भाषा में इसे मीडिया के शोर-शराबे से दूर रहकर जमीन पर साइलेंट तरीके से अपना काम करते हुए उसे अंजाम तक पहुंचाने का सफल प्रयोग समझा जाता है.राजनीति के सबसे महानतम जानकार भी इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि लोगों की जिस नब्ज़ को देश की दो बड़ी पार्टियों के तमाम दिग्गज़ नेता भी समझ पाने में नाकामयाब हो गए,उसे इनकम टैक्स की नौकरी छोड़कर राजनीति में कूदे अरविंद केजरीवाल ने समझने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगाया.दिल्ली के बाद पंजाब की सत्ता में आम आदमी पार्टी का काबिज़ होना,ये बताता है कि केजरीवाल के मंसूबे कुछ ज्यादा ही बड़े हैं,जिसे हासिल करने के लिए वे अपने पुराने आजमाए हुए प्रयोगों के साथ कुछ नई तरकीब का भी इस्तेमाल करने से आने वाले वक्त में पीछे नहीं हटेंगे.
वैसे गुजरात की राजनीति के जानकार बताते हैं कि पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गढ़ समझे जाने वाले अहमदाबाद में हुए केजरीवाल के रोड शो ने बीजेपी के दिग्गज़ों की आंखें खोल दी हैं कि इस बार वहां सब कुछ एकतरफा नहीं है बल्कि मुकाबला कांग्रेस की बजाय आप के साथ होने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं.हालांकि वहां चुनाव होने में अभी छह महीने से ज्यादा का वक़्त बाकी है और तब तक सियासी तस्वीर में कितना बदलाव आयेगा, इसका अंदाजा फिलहाल नहीं लगाया जा सकता.लेकिन कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही नज़र आ जाते हैं,सो अपने पहले रोड शो के जरिये शक्ति प्रदर्शन करने को अगर कोई तमाशा बताकर उसे हवा में उड़ाने की बात करता है,तो ऐसे नेता सियासी रुप से जमीनी हकीकत से कोई वास्ता न रखते हैं और न ही ऐसा करना चाहते हैं.
अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जरिये अपनी सियासी पारी शुरु करने वाले केजरीवाल की राजनीति को जो लोग नजदीक से जानते हैं,वे मानते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के एक साथ ढेर सारे उम्मीदवार उतारकर और उनकी जमानत जब्त करवाकर वे राजनीति का सबसे कड़वा स्वाद चख चुके हैं.इसीलिये उन्होंने अपनी सियासी रणनीति में ये बदलाव किया है कि केंद्र की सत्ता से पहले उन छोटे राज्यों पर सारा फोकस किया जाये, जहां उनकी बात सुनी भी जाती है और वो वोटों में तब्दील भी होती है.
दिल्ली के बाद पंजाब में तो आप ने अपना झंडा गाड़ लिया लेकिन इन्हीं चुनावों में उत्तराखंड और गोवा में भी केजरीवाल और उनकी पार्टी ने पूरी ताकत लगाई थी.उत्तराखंड के नतीजे तो उनके लिए बेहद निराशाजनक रहे लेकिन गोवा में दो सीटें जीतकर वहां ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को भी पछाड़ दिया,जिसके खाते में एक भी सीट नहीं आई.लेकिन हैरानी की बात ये है कि पहली बार चुनावी किस्मत आजमाने वाली आप गोवा की दो क्षेत्रीय पार्टियों को पटखनी देते हुए 6.77 फीसदी वोट हासिल करक
महाराष्ट्रवादी गोमानतक पार्टी के बराबर आ खड़ी हो गई.इसे भी देश की राजनीति में केजरीवाल की एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है. दरअसल, केजरीवाल हर राज्य में कुछ सीटें जीतकर या फिर वहां से मिलने वाले वोट प्रतिशत के लिहाज से आम आदमी पार्टी को 2024 से पहले ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रुप में चुनाव आयोग से मान्यता दिलाने के लिए बेताब हैं.वे विपकसज के किसी भी नेता से टकराव करने की बजाय बेहद खामोशी से अपने लिए एक बड़ी लकीर खिंचते जा रहे हैं.
इसीलिये इस साल गुजरात औऱ हिमाचल प्रदेश पर उनका सारा ध्यान है.अगले साल के अंत में जिन नौ राज्यों में चुनाव होने हैं,उनमें अपना सारा ध्यान उन्होंने छत्तीसगढ़ और राजस्थान में लगा रखा है.चूंकि मध्यप्रदेश के मुकाबले ये दोनों ही छोटे राज्य हैं और यहाँ उन्हें अपनी पार्टी के लिये काफी गुंजाइश भी नज़र आ रही है.इसलिये उन्हें लगता है कि इन दोनों ही राज्यों के कुछ अच्छी छवि वाले नेताओं को अपने साथ जोड़कर सत्ता पाने की राह को आसान बनाया जा सकता है
ऐसी खबर है कि छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंह देव को आप में शामिल होने की पेशकश दी गई थी,जिसे उन्होंने फिलहाल ठुकरा दी है.उनकी छवि एक ईमानदार व सख्त मंत्री की रही है और कोविड महामारी के दौरान उनके किये कामों की हर तरफ सराहना भी हुई है. सिंह देव ने शनिवार को रायपुर प्रेस क्लब में मीडियाकर्मियों के साथ अनौपचारिक बातचीत में इस बात से इनकार नहीं किया कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली पार्टी आप ने उनसे संपर्क किया था.
लेकिन आप में जाने की अटकलों को खारिज़ करते हुए सिंह देव ने ये भी साफ कर दिया कि "मैं अरविंद केजरीवाल जी से नहीं मिला हूं, लेकिन यह भी सच है कि राजनीति में बहुत से लोग संपर्क में रहते हैं और संपर्क बनाते भी हैं. ऐसा नहीं है कि लोगों ने मुझसे संपर्क नहीं किया, लेकिन मैंने उनसे कहा कि मेरे परिवार की पांच पीढ़ियां कांग्रेस से जुड़ी रही हैं और मैं इससे आगे सोच भी नहीं सकता. सोनिया जी और राहुल के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है.'
हालांकि उन्होंने बीजेपी में जाने की खबरों को भी गलत बताते हुए कहा कि " मैं कभी भी BJP में नहीं जाऊंगा. मैं ऐसी राजनीति में नहीं जाना चाहता, जिस पार्टी के साथ मेरे वैचारिक मतभेद हैं." दरअसल,15 साल तक इस नक्सल प्रभावित राज्य में राज करने वाली बीजेपी की रमन सिंह सरकार को शिकस्त देकर साल 2018 में सत्ता में आई कांग्रेस सरकार बनने के बाद एक फार्मूले पर सहमति बनने और उसे अमल में न लाने पर ही सारा विवाद खड़ा हुआ है.फार्मूला ये था कि पहले ढाई साल तक मौजूदा सीएम भूपेश बघेल सरकार की बागडोर सम्भालेंगे और बाकी के ढाई साल सिंह देव को मुख्यमंत्री बनाया जायेगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
जाहिर है कि कांग्रेसी सरकार में कुर्सी हथियाने के लिए गुपचुप तरीके से चल रही इस लड़ाई की भनक जब केजरीवाल के कानों तक पहुंचीं होगी,तो उन्होंने अपने दूतों को ये संदेश देने में जरा भी देर नहीं लागाई होगी कि फौरन सिंहदेव को थाम लिया जाये. इसलिये कि प्रदेश में उनसे बेहतर व बड़ा चेहरा आप को नहीं मिल सकता.बेशक आज सिंह देव ने आप में शामिल होने से इनकार कर दिया है लेकिन कौन जानता है कि अगले डेढ साल में क्या होने वाला है क्योंकि राजनीति में कभी कुछ भी निश्चित नहीं होता ?