जनता से रिश्ता वेबडेस्क। धरती खेत होने से पहले जंगल ही तो थी। खेत वीराने हो सकते हैं, जंगल कभी वीराने नहीं होते। वह लाखों जीवों और वनस्पतियों का प्रश्रय होते हैं। जब जंगलों को खेत बनाने की बात आई थी या कहिए हमारे पूर्वजों द्वारा उन्हें कब्जाने की बात आई थी, तब हमारे पूर्वजों और जंगल के वाशिंदों के बीच एक समझौता हुआ था। 'मानव जंगलों से अपने उद्देश्य की पूर्ति करे, जीवन निर्वाह करे लेकिन वन्यजीवों के अस्तित्व का अतिक्रमण न करे और साथ ही उनका अस्तित्व बचाए रखे। 'समझौता लिखित तो था नहीं, नैतिक था। बात भी शायद तब की है जब मानव को भी लिपिज्ञान नहीं था।
अब 'अन्य' और 'वन्य' का तो नहीं पता, लेकिन मानव होने के नाते मानव के बारे में कह सकता हूं कि नैतिकता के आयाम समय और परिस्थिति तय करती है। वही हुआ मानव ने अपना समझौता तोड़ दिया। नतीजतन बड़ी संख्या में प्रजातियां विलुप्त हो गईं। मानव को जो अपने हित की लगीं उन्हें पालतू बना लिया। उन पालतू में जो ज्यादा हित ही लगीं उनको 'माता' तक बना लिया। समय बदलते ही यह निर्भरता शिफ्ट भी हो गई, और यह माता 'आवारा' हो गईं।
मानव ने 'साइंस' से मिला ज्ञान भिड़ाया और कहा 'ओवर्ग्रेजिंग' का संकट आ गया है अब हमें इन्हें मारकर खा लेना चाहिए। और यह क्रम भी शुरू हो गया। पहले उनके पर्यावास खाए, फिर उन्हें ही खा लिया। जो बचे हैं वह हमारे खेत में आते हैं, वही जिन्हें हम आवारा कहते हैं। वे आते हैं, अपना जीवन पालने या फसल चरने नहीं,,,अपने अस्तित्व का हक़ मांगने। उस समझौते की याद दिलाने जो हमारे पूर्वजों ने उनके पुरखों से किए थे। जब से मेरी चेतना का विस्तार शुरू हुआ, मैंने अपनी दादी से एक नसीहत सुनी थी। जोकि उपरोक्त समझौते वाली मेरी हायपोथेसिस के करीब है। यह दरअसल एक लोककथा थी।
गांव के खपरैल वाले घर में आले ज्यादा थे, दरवाजे कम। घर में कई जानवरों व पक्षियों का हमारे साथ सह अस्तित्व था। दादी की नसीहत अक्सर तब आती थी, जब हम जानवरों के बेरोक-टोक अपने घर-आंगन में प्रवेश करने को अपने क्षेत्र का अतिक्रमण मानते और उनपर बल प्रयोग करते। सबसे ज्यादा शिकार कुत्ते होते थे, जिनकी क्षुधा उन्हें खतरे में डालकर हमारी थाली का जूठन चाटने को मजबूर कर देती थी।
गांव के अलग-अलग घरों से दिन में कई बार कुत्तों के विलाप की आवाज सुनाई देती थी, जोकि रसोई में घुसने या जूठी थाली को चाटने के चलते दण्डित किए जाते थे। हम लोग भी बिना किसी संकोच के कुत्तों को डंडे से मार देते थे। तब मेरी दादी कहती थीं कि वह तुम्हारा हक नहीं खा रहा, तुम उसके हक़ का खा रहे। उसने तो तुम्हारी ख़ुशी के लिए अपना हक कुर्बान कर दिया, तुमपर भरोसा किया तुम्हारा आश्रित बन गया।
'सृष्टि के प्रारंभ में जब खाद्य बांटे जा रहे थे, तब इन्हीं लोगों (कुत्तों या जानवरों) को अनाज का हक मिला था और मानव को मिला था 'काठ'। इन लोगों ने ब्रह्मा से निवेदन किया, हम अनाज उगाने में अक्षम हैं। हमारी शारीरिक बनावट खेती लायक नहीं है। आप कृपया अन्न का हक़ मानव को दे दीजिए, वह स्वयं का पोषण करने के साथ ही हमारा भी ख्याल रख लेंगे', यह कहानी वह एकबार फिर कहती, जब भी हम कुत्तों को पीटते।
यह वाकये नब्बे के दशक में उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक इसी रूप में रहे। मैंने उनसे एकबार पूछा कि आपने यह कहानी कहां सुनी, तो उन्होंने अपने दादा के बारे में बताते हुए कहा कि वे सुनाते थे। उनकी उम्र से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि उनके दादा 18वीं सदी के अंत में रहे होंगे। उनके दादा को भी यह ज्ञान मौखिक परम्परा में उनके पुरखों से मिला होगा! क्योंकि न मेरी दादी को अक्षर ज्ञान था, न उनके दादा को।
इस प्रसंग का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ ताकि यह बता सकूं कि कैसे जंगलों के वास्तविक स्वामी व उसके संसाधनों के प्रथम अधिकारी जीवों के साथ हुए मानव के 'उस समझौते' को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ब्रह्मा का नाम पर ही सही लोगों तक पहुंचाया जाता रहा।
हो सकता है, कि समय-समय इस कहानी में बदलाव हुए हों, और जानवरों के नाम भी बदलते रहे हों, क्योंकि जिस तरह से आज गौ-वंश 'आवारा' की श्रेणी में आते हैं, नब्बे के दशक तक यह गोधन माने जाते थे और खेती का पूरा दारोमदार इन्ही पर था। उस समय सबसे बड़े 'आवारा' कुत्ते होते थे।
कुछ समय पहले कोई दूसरे जानवर रहे होंगे। लेकिन उस लोककथा का भाव एक ही था कि खाद्य के संसाधनों पर पहला अधिकार वन्य जीवों था और जब हमारी 'सुरसा के मुंह' की तरह बढ़ती जरूरतों ने उनके पर्यावासों को खेत का रूप दिया था, तो उन जीवों की जीविका का दायित्व स्वीकारा था।
जंगल को खेत करते समय मानव की घोषणा थी कि हम इससे इतना उगा सकते हैं कि हमारे साथ ही तुम्हारा पोषण भी हो जाएगा।
समय बदलने के बाद वह खेत कम पड़ने लगे, उन जीवों व जानवरों के पर्यावास का अतिक्रमण इसी 'वादे' के साथ जारी रहा। उन जानवरों का सिर्फ पर्यावास ही नहीं छीना गया, उन्हें खेतों में जोता गया, उन्हें दुहा गया। उनके रोयें काटकर खुद ओढ़े गए, उनकी चमड़ी उतारकर पैरों में पहनी गई। अनाज पूरा नहीं पड़ा तो उन्हें ही खा लिया गया। आज वे ही आवारा हैं। वे ही हमारे जीवन का 'संकट' हैं, जिनके अस्तित्व को हमने हजारवें हिस्से तक सिकोड़ दिया। आज वही 'हमारी' फसलों को चौपट करने आते हैं, और 'सरकार' अनदेखी करती है।
वही जिनका सबकुछ होकर भी आज वे 'आवारा' हैं। जिनका अपना हम मांगना मानवता को 'संकट-ग्रस्त' कर देता है। यह वही हैं जो कभी पूज्य थे, माता थे। सत्य-शुभ-शिव महादेव तक हमारे निवेदनों के वाहक नंदी थे। जो राधा-कृष्ण के अमर प्रेम के पहले साक्षी थे।
यह वही आवारा हैं जिनके पूर्वजों के पर्यावास हमने खेती के नाम पर छीने थे, आज भी उनके बछड़ों को खूंटे से बांधकर उनका 'हक दुहते' हैं जोकि हमारी मजबूत मांसपेशियों व चाय कि चुस्कियों के लिए जरूरी है, लेकिन वे 'आवारा' हैं!