प्रवासियों का क्यों ये हाल?

भारत के लाखों लोग रोजगार की तलाश में विदेश जाते हैं।

Update: 2021-01-19 11:10 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत के लाखों लोग रोजगार की तलाश में विदेश जाते हैं। इसी तरह दूसरे देशों के हजारों लोग भी भारत आते हैं। लेकिन भारत आने वालों के साथ यहां अच्छा व्यवहार नहीं होता, ऐसा एक ताजा सूचकांक से सामने आया है। माइग्रेशन इंटीग्रेशन पॉलिसी इंडेक्स (माइपेक्स) के ताजा अध्ययन में भारत को 100 में से 24 अंक ही मिले। पाया यह गया कि भारत आने वाले प्रवासी अलग-थलग रहने को विवश होते हैं।

यूरोप के दो बड़े थिंक टैंकों- बेल्जियम के माइग्रेशन पॉलिसी ग्रुप और स्पेन के सेंटर फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स ने 2004 में इस रैंकिंग को जारी करने की शुरुआत की थी। तबसे इसकी रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र, विषय विशेषज्ञों और दुनिया की सरकारों और नीति निर्माताओं के बीच अच्छी प्रतिष्ठा हासिल हुई है। जिन तीन मुख्य आयामों पर यह इंडेक्स तैयार किया जाता है वे हैं- बुनियादी अधिकार, समान अवसर, और सुरक्षित भविष्य। इन तीनों के आधार पर अलग- अलग देशों की माइग्रेशन इंटीग्रेशन की पद्धतियों का मूल्यांकन किया जाता है। ताजा रैंकिंग में माइग्रेशन के लिए टॉप पांच देशो में कनाडा, फिनलैंड, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल और स्वीडन आए हैं।


टॉप टेन में एशिया का कोई देश नहीं है। अमेरिका 10वें नंबर पर है, जबकि सबसे ज्यादा प्रवासियों को खपाने वाला देश वही है। भारत का नाम उन पांच देशों में शामिल है, जहां प्रवासियों का एकीकरण नहीं हो पाता। लिहाजा कोई प्रवासी लंबे समय तक रह भी जाए, तो भी इन प्रवासियों को समान अधिकार, अवसर या समाज में भागीदारी कभी हासिल नहीं हो पाती। भारत के असंगठित क्षेत्र में लाखों बांग्लादेशी और नेपाली प्रवासी दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। कुछ टैक्सी या ऑटो रिक्शा चलाते हैं। कोई दुकान लगाता है, तो कोई सड़क पर फल और सब्जी की रेहड़ी लगाता है।
कुछ लोग घरों में काम करते हैं, तो कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठानों और दुकानों में। लेकिन शिकायत यह है कि असंगठित क्षेत्र में उनकी मेहनत और योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भारत में ठोस रोजगार और श्रम बाजार में प्रवासियों के लिए समग्र रूप से देखें तो आशाजनक स्थितियां नहीं हैं। समन्वित बाल विकास सेवाओं के तहत पूरक पोषण, अनौपचारिक शिक्षा, टीकाकरण और छोटे बच्चों के हेल्थ चेकअप जैसी सुविधाएं उन्हें भले गाहे-बगाहे मिल जाती हों, लेकिन उन लोगों को गले लगाने के लिए भारतीय समाज तैयार नहीं होता। अब यह हम सबके लिए विचार का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों है?


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