क्यों वामदल भारत की राजनीति में अप्रासंगिक हो गए हैं?

एक समय वह भी था जब लोग अपने को कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी कहने में गर्व महसूस करते थे

Update: 2021-07-21 07:59 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क|  अजय झा | एक समय वह भी था जब लोग अपने को कम्युनिस्ट (Communist) या मार्क्सवादी (Marxist) कहने में गर्व महसूस करते थे. समाज में उन्हें पढ़े लिखे और विद्वान लोगों के रूप में देखा जाता था. विश्व की दो महाशक्तियां सोवियत यूनियन (Soviet Union) और चीन (China) कम्युनिस्ट देश होते थे, क्यूबा के शासक फिदेल कास्त्रो (Fidel Castro) के भी भारत में असंख्य प्रशंसक होते थे. भारत के तीन राज्यों – पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में वामदलों की सरकार होती थी, कई अन्य राज्यों में भी उनकी स्थिति मजबूत होती थी और देश में हड़ताल और प्रदर्शन पर उनका आधिपत्य होता था.

किसान और मजदूरों के हितैषी के रूप के देखे जाते थे और जहां किसी फैक्ट्री या दफ्तर के बाहर लाल झंडा दिख जाता था तो मालिकों के पसीने छूटने लगते थे. कुल मिलाकर देश की राजनीति और भारतीय समाज में वामपंथियों का दबदबा होता था. क्योंकि बदलाव प्रकृति का अटूट नियम है, समय में बदलाव आया और अब आलम यह है कि वामदल अपने अस्तित्व को बचाने में लगे हैं. 34 साल तक पश्चिम बंगाल (West Bengal) में सत्ता में रहने के बाद 2011 में सिंगुर जमीन अधिग्रहण पर एक आन्दोलन शुरू हो गया और वाममोर्चा चुनाव हार गयी.

JNU से बाहर भी युवा होते हैं

धीरे-धीरे वामदल पतन की ओर बढ़ता गया और वर्तमान में स्थिति ऐसी है कि जिस पश्चिम बंगाल से लोकसभा में वामदलों का डंका बजता था, आज वहां से ना तो एक सांसद है और ना ही पश्चिम बंगाल विधानसभा में कोई विधायक. त्रिपुरा में भी 2018 में वामदलों को हार का सामना करना पड़ा और हाथ से सत्ता जाती रही. केरल अब एकमात्र राज्य है जहां अभी भी वामदलों की सरकार है. सोवियत यूनियन के बिखरने के बाद दुनिया भर में कम्युनिस्ट मूवमेंट को झटका लगा और भारत में वामपंथी अपने को बदलते परिवेश में ढाल नहीं पाए. वामदल भूल गए कि जवाहरलाल यूनिवर्सिटी से बाहर भी युवा होते हैं जिनकी सोच JNU के कामरेडों से अलग होती है, जिसका परिणाम है कि चाहे कोई अभी भी वामपंथ की विचारधारा से जुड़ा हो, अब लोग अपने को खुलेआम वामपंथी कहने से हिचकिचाते हैं.

वाम दलों ने अपनी गलतियों से नहीं सीखा

गलतियों के कारण इतिहास में बड़े-बड़े साम्राज्य का पतन हो गया था और यहां भारत में वामपंथी विचारधारा से जुड़े दलों ने एक के बाद एक इतनी गलती की जिसे गिनना भी मुश्किल है. पर कुछ ऐसी गलतियां हैं जिसका जिक्र जरूरी है यह समझने के लिए कि कैसे और क्यों भारत की राजनीति का एक मजबूत स्तम्भ ध्वस्त हो गया.

जहां भारत के सभी अन्य दलों के प्रेरणाश्रोत भारतीय ही थे, जैसे कांग्रेस पार्टी के लिए महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु, भारतीय जनता पार्टी के लिए श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय, समाजवादी दलों के राममनोहर लोहिया, वहीं भारत के दो प्रमुख दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के प्रेरणाश्रोत क्रमशः लेनिन और माओ थे. सोवियत यूनियन और चीन के बीच जब टकराव शुरू हो गया तो सीपीआई से माओ समर्थकों ने अलग हो कर सीपीएम के नाम से अपनी अलग पार्टी का गठन कर लिया.

दरअसल सोवियत यूनियन से भारत में कांग्रेस पार्टी सरकार के घनिष्ट संबंध थे, मास्को के दबाव में सीपीआई को एमरजेंसी का भी समर्थन करना पड़ा था. वहीं भारत और चीन के लगातार बिगड़ते संबंधों के कारण सीपीएम को चीन समर्थक होने का खामियाजा भुगतना पड़ा. और अब दोनों प्रमुख वामदल अनाथ से हो गए हैं.

दूसरी सबसे बड़ी गलती सीपीएम ने 1996 में की. 1996 के चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा चुनी गयी थी, किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नही मिला था. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी और एक योजना के तहत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने केंद्र में अल्पसंख्यक सरकार बनायी. हालांकि इस सरकार के पास बहुमत का आभाव था, इसलिए वाजपेयी सरकार ने 16 दिनों के बाद त्यागपत्र दे दिया. बीजेपी की योजना थी कि भारत की जनता को बताएं कि अगर उनका साथ मिले तो उसमें एक अच्छी सरकार देने की क्षमता है. इसका नतीजा हुआ कि 1998 में हुए चुनाव के बाद 2004 तक केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चली और 2014 से लगातार दो बार बीजेपी पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही है. पर सीपीएम में इस सोच का अभाव था.

वामदलों के पास मौका था खुद को साबित करने का

वाजपेयी सरकार के इस्तीफे के बाद गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी दलों ने यूनाइटेड फ्रंट का गठन किया, जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में भी जाना जाता है. कांग्रेस पार्टी बीजेपी के बढ़ते प्रभाव से डर कर फिर चुनाव नहीं चाहती थी, लिहाजा उसने तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर से समर्थन देने की घोषणा की. अब बारी थी तीसरे मोर्चे के किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए मनोनीत करने की. कम्युनिस्ट नेता ज्योति बासु 1977 से लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे, उनके नाम पर सभी सहमत थे और बासु राजी भी थे, पर सीपीएम के पोलित ब्यूरो ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया. सीपीएम का तर्क था कि साझा सरकार में उनकी पार्टी का एजेंडा नहीं चलेगा, लिजाहा सत्ता से दूर रहना बेहतर है. फिर पहले एच.डी. देवेगौड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी और तीसरे मोर्चे की सरकार लगभग 21 महीनों तक चली. बाद में सीपीएम के नेताओं ने अपनी गलती मानी. बीजेपी ने 13 दिनों तक सरकार चला कर अपनी शक्ति में इजाफा किया, हालांकि सीपीएम के हाथ से केंद्र में अच्छी सरकार चला कर दूसरे राज्यों में विस्तार करने का सुनहरा अवसर नहीं आ पाया.

2004 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर किसी दल या गठबंधन को बहुमत हासिल नहीं हुआ. वाममोर्चा 59 सांसदों के साथ के बड़ी शक्ति बन कर सामने आई जिसमे सीपीएम के 43 सांसद थे. वाममोर्चा ने कांग्रेस पार्टी को समर्थन देने की घोषणा की पर सरकार में शामिल होने से फिर से मना कर दिया. केंद्र में उन दिनों उनकी तूती बोलती थी और मनमोहन सिंह सरकार को वाममोर्चे की हर बात माननी ही पड़ती थी. लेकिन 2008 में फिर एक बार सीपीएम से एक बड़ी गलती हो गयी. भारत और अमेरिका के बीच परमाणु संधि का सीपीएम ने विरोध किया. सीपीएम अभी तक बदली नहीं थी और उसकी सोच वही दकियानूसी थी.

 क्योंकि वह कम्युनिस्ट हैं, उन्हें अमेरिका का विरोध करना ही था. कांग्रेस पार्टी तो एक बार घबरा गयी पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिन पर आरोप लगता था कि वह हर फैसला कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और सीपीएम के दबाव में ही लेते थे, पर परमाणु संधि पर वह भी जिद पर अड़ गए. वाममोर्चे ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. कांग्रेस को जोड़तोड़ से सरकार चलाने का पूर्व अनुभव था, इसलिए मनमोहन सिंह सरकार यूपीए से बाहर की अन्य क्षेत्रीय दलों के समर्थन से चलती रही, 2009 के चुनाव में परमाणु संधि का असर दिखा. देश की जनता और खास कर युवा पीढ़ी अमेरिका से बेहतर संबंध के पक्षधर थे, लिहाजा परमाणु संधि के विरोध का नतीजा रहा कि वाममोर्चा 59 सीटों से लुढ़क कर 24 सीटों पर आ गयी और सीपीएम 43 सांसदों से 16 सांसद पर आ कर टिक गयी. कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की शक्ति में इजाफा हुआ और उसे अब वाममोर्चे के समर्थन की जरूरत नहीं थी.

प्रकाश करात को CPM की बदहाली का जिम्मेदार बताया जाता है

2008 में प्रकाश करात सीपीएम के महासचिव होते थे और उनकी पार्टी के लोग उन्हें ही सीपीएम की बदहाली का जिम्मेदार मानते हैं. जाहिर सी बात है कि चीन को भारत और अमेरिका का नजदीकी संबंध नागवार था और चीन के कहने पर ही प्रकाश करात ने परमाणु संधि का विरोध किया था. पार्टी इतनी अप्रासंगिक हो गयी और आम जनता से इतनी दूर कि 1977 से लगातार सात बार पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने और 34 सालों तक सत्ता में रहने के बाद 2011 के विधानसभा चुनाव वाममोर्चा हार गयी और अब नतीजा यह है कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा में वाममोर्चे का एक भी विधायक नहीं है.

वह दिन दूर नहीं है जब वाममोर्चा, खासकर सीपीएम इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह जाएगी, क्योंकि पार्टी में अभी भी दुविधा की स्थिति है – अगर माओ जिंदाबाद और चीन जिंदाबाद का नारा नहीं लगाते हैं तो पार्टी की फंडिंग बंद हो जाएगी, और अगर चीन का समर्थन करते रहे तो फिर भारत में चीन विरोधी मूड के कारण जनता से और दूर. पार्टी इस मझधार से कैसे निकले वह उसे सूझ नहीं रहा है. अगर केरल का साथ नहीं होता तो वामदलों का जिक्र वामपंथी विचारधारा की तरह अब तक सिर्फ किताबों में ही सिमट कर रह गया होता

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