लेकिन मामला इतना सीधा और आसान नहीं है। पहला सवाल तो यह है कि राज्यों से ओबीसी सूची में संशोधन करने का अधिकार किसने और क्यों छीना था? और दूसरा सवाल यह है कि अगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट रही है तो आधे फैसले को ही क्यों पलटा जा रहा है? क्यों नहीं केंद्र सरकार आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय करने के फैसले को भी पलट रही है? असल में ओबीसी सूची में संशोधन का राज्यों का अधिकार केंद्र ने खुद ही छीन लिया था। प्रधानमंत्री हर जगह, हर चुनाव प्रचार में जोर-शोर से यह बात कहते हैं कि आजादी के 70 साल बाद उनकी सरकार ने ही पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया। लेकिन यह नहीं बताया जाता है कि संविधान के 102वें संशोधन के जरिए पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का जो कानून बना उसी में यह प्रावधान कर दिया गया कि राज्य अब ओबीसी की सूची में फेरबदल नहीं कर सकेंगे। इसमें यह प्रावधान किया गया कि राज्य अगर किसी जाति को ओबीसी सूची में शामिल कराना चाहते हैं तो वे इसके लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को सिफारिश भेजेंगे और पिछड़ा वर्ग आयोग केंद्र को अपनी सिफारिश भेजेगा। इस तरह राज्यों की सूची में फेरबदल का भी अंतिम फैसला केंद्र के हाथ में आ गया था।
अब सवाल है कि तीन साल बाद ही केंद्र सरकार क्यों इसे बदल रही है? क्यों वह अपना अधिकार छोड़ रही है और क्यों राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से सिफारिश का अधिकार लेकर राज्यों के हाथ में दे रही है? इसका तात्कालिक कारण महाराष्ट्र की राजनीति है। असल में भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी को ओबीसी की राजनीति में उलझाना चाह रही है। मराठा आरक्षण रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद महाराष्ट्र सरकार दबाव में तो थी लेकिन उसके पास यह तर्क था कि उसके पास न तो ओबीसी की सूची में संशोधन का अधिकार है और आरक्षण की सीमा बढ़ाने का अधिकार है। उसने मराठों को यह समझाया हुआ था कि ये दोनों काम केंद्र सरकार ही कर सकती है। लेकिन अब केंद्र सरकार ने 127वें संशोधन के जरिए गेंद राज्य सरकार के पाले में डाल दी है।
संसद के दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद जब यह कानून बन जाएगा तब राज्य सरकार की मजबूरी होगी कि वह मराठों को ओबीसी की सूची में शामिल करे। चूंकि राज्य सरकार आरक्षण की सीमा नहीं बढ़ा सकती है इसलिए ओबीसी के लिए तय 27 फीसदी आरक्षण में ही मराठों को भी हिस्सा मिलेगा। इससे राज्य में नए सिरे से टकराव शुरू होगा। ध्यान रहे महाराष्ट्र में ओबीसी राजनीति बहुत मजबूत रही है। दक्षिण भारत के राज्यों खास कर तमिलनाडु को छोड़ दें तो संभवतः पूरे देश में सबसे मजबूत ओबीसी लॉबी महाराष्ट्र में है। मंडल की राजनीति करने वाले राज्यों, उत्तर प्रदेश और बिहार से भी ज्यादा मजबूत ओबीसी लॉबी महाराष्ट्र में है। कुनबी, धनगर, बंजारा, यादव जैसी ओबीसी जातियां बहुत मजबूत हैं और इनका बड़ा राजनीतिक असर है। इनके साथ मराठों का टकराव बढ़ेगा।
मराठा समुदाय सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ा समुदाय नहीं है इसलिए उसे ओबीसी आरक्षण के दायरे में लाते ही संतुलन बिगड़ जाएगा। आरक्षण का अधिकतम लाभ मराठों को मिलने लगेगा। तभी संभव है कि जैसे जाटों को राजस्थान में आरक्षण के दायरे में लाने के बाद गुर्जर समुदाय ने खुद को अनुसूचित जाति-जनजाति में शामिल करने का आंदोलन छेड़ा वैसा कोई आंदोलन महाराष्ट्र में शुरू हो जाए। कुल मिल कर महाराष्ट्र में आरक्षण की राजनीति का पंडोरा बॉक्स खुलेगा, जिसका नुकसान सत्तारूढ़ गठबंधन को हो सकता है। भाजपा के दोनों हाथ में लड्डू है। ओबीसी अगर शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी से बिदकेंगे तो भाजपा के साथ जाएंगे और भाजपा मराठों को भी यह मैसेज देगी कि केंद्र सरकार ने ही उनके आरक्षण का रास्ता साफ किया है।
संविधान के 127वें संशोधन से दूसरे कई राज्यों में भी आरक्षण का मुद्दा फिर शुरू हो सकता है। हरियाणा में जाट आरक्षण फिर से जोर पकड़ सकता है। राजस्थान में भरतपुर और धौलपुर को छोड़ कर बारी जिलों में जाटों को आरक्षण मिला हुआ है और उत्तर प्रदेश में भी जाटों को आरक्षण का लाभ मिलता है। लेकिन हरियाणा के जाट पिछले काफी समय से आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं। तभी सवाल है कि क्या भाजपा हरियाणा में जाट आरक्षण का दांव चल सकती है? ध्यान रहे हरियाणा के जाट भाजपा से नाराज हैं। गैर जाट मुख्यमंत्री बनाने और केंद्रीय कृषि कानूनों की वजह से जाटों में नाराजगी है। लेकिन अगर राज्य सरकार जाटों को ओबीसी सूची में शामिल करके आरक्षण देती है तो पूरी तरह से खेल पलट जाएगा। गुजरात में जरूर भाजपा को मुश्किल आ सकती है क्योंकि ओबीसी सूची में बदलाव का अधिकार राज्यों को मिलने के बाद वहां के पाटीदार आरक्षण का आंदोलन फिर छेड़ सकते हैं। ध्यान रहे पाटीदार अनामत आंदोलन समिति यानी पाटीदार आरक्षण समिति के आंदोलन से ही हार्दिक पटेल नेता बने थे।
बहरहाल, महाराष्ट्र की राजनीति के अलावा तत्काल इस बदलाव का कोई और मकसद समझ में नहीं आता है। यह फालतू का तर्क है कि राज्यों का अधिकार बहाल किया जा रहा है। अगर केंद्र सरकार को राज्यों के अधिकार की इतनी ही चिंता है तो इसी तरह का बदलाव अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूचियों के मामले में क्यों नहीं किया जा रहा है? आखिर अनुसूचित जाति-जनजाति की सूची में फेरबदल का अधिकार भी राज्यों को नहीं है। अगर राज्य भी अपने अधिकारों के प्रति इतने सजग हैं तो वे इसकी मांग क्यों नहीं कर रहे हैं कि एससी और एसटी की सूची में फेरबदल का अधिकार भी उनको दिया जाए? असल में आरक्षण का मामला इतना संवेदनशील है कि कोई भी राजनीतिक दल इसके किसी पहलू पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता है। यही कारण है कि केंद्र सरकार ने 127वें संविधान संशोधन का बिल पेश किया तो सभी विपक्षी पार्टियों ने इसका समर्थन किया।
ऐसा नहीं है कि विपक्षी पार्टियों को पता नहीं है कि इसके जरिए केंद्र सरकार ने क्या राजनीति की है और उसका असल मकसद क्या है लेकिन वे इस पर सवाल नहीं उठा सकते। विपक्षी पार्टियों को पता है कि इस फैसले के बाद राज्यों की मजबूत जातियां खुद को ओबीसी सूची में शामिल कराने का आंदोलन करेंगी। महाराष्ट्र में मराठे, हरियाणा में जाट, गुजरात में पाटीदार, कर्नाटक में लिंगायत इस सूची में शामिल होने की मांग करेंगे और अगर राज्यों ने इनको ओबीसी सूची में शामिल किया तो अति पिछड़ी जातियां, जो अब तक आरक्षण के लाभ से वंचित रही हैं उनको आरक्षण का लाभ मिलने की संभावना और कम हो जाएगी। सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक रूप से मजबूत ओबीसी जातियां आरक्षण का अधिकतम लाभ लेंगी। हैरानी की बात है कि जो पार्टियां जाति आधारित जनगणना की मांग कर रही हैं या जातियों का वर्गीकरण करके अतिपिछड़ी जातियों को आरक्षण दिए जाने के पक्ष में हैं वे भी 127वें संविधान संशोधन का समर्थन कर रही हैं। पार्टियों का यह वैचारिक दोहरापन समझ से परे है।