किसलिए ऐसा कानून?
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कानपुर में हुई 27वीं बैठक में जो प्रस्ताव पारित किए गए, उनमें ईशनिंदा कानून बनाने की मांग भी शामिल है। बोर्ड का कहना है
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की कानपुर में हुई 27वीं बैठक में जो प्रस्ताव पारित किए गए, उनमें ईशनिंदा कानून बनाने की मांग भी शामिल है। बोर्ड का कहना है कि देश में पैगंबर मोहम्मद साहब और अन्य पवित्र धार्मिक प्रतीकों का अपमान करने वाली घटनाओं में बढ़ोतरी को देखते हुए ऐसा कानून लाना जरूरी है। संभवत: अपनी तरफ से उदारता का परिचय देते हुए एआईएमपीएलबी ने इस प्रस्तावित कानून में सभी धर्मों को शामिल करने का सुझाव दिया, लेकिन सचाई यही है कि सभी धर्मों को शामिल करने से इस सुझाव की मूल प्रकृति में कोई खास बदलाव नहीं आता, न ही इसमें निहित खतरे कम होते हैं।
सबसे पहले तो यही देखने की बात है कि जिन देशों में ऐसा कानून सख्ती से लागू है, उनकी आज क्या दशा है। सबसे अच्छा उदाहरण पड़ोसी देश पाकिस्तान ही है, जो इस कानून के तहत मौत की सजा का इंतजार कर रहे या आजीवन कैद काट रहे लोगों की संख्या के मामले में पूरी दुनिया में अव्वल है। इस कानून और इसके तहत दी जाने वाली सजा ने एक समाज या राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान को तरक्की की कोई सीढ़ी नहीं दी। अगर कुछ दिया तो यही कि वहां धार्मिक कट्टरपंथी तत्वों का समाज पर शिकंजा और मजबूत कर दिया।
सच है कि ऐसे कानून दुनिया के बहुत से देशों में लागू थे, पर जैसे-जैसे शिक्षा और विकास की रोशनी पहुंची, ऐसे कानून कमजोर होते गए। ज्यादातर देशों ने या तो इस कानून को खत्म कर दिया या इन पर अमल कम कर दिया। दुनिया भर में विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले कानूनों पर जोर दिखने लगा, न कि इस पर पाबंदियां लगाने वाले कानूनों पर। जहां तक अपने देश की बात है तो हमारा संविधान वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हम एक धर्मनिरपेक्ष समाज हैं। बेशक संविधान तमाम नागरिकों को अपने-अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता भी देता है और नागरिकों के धार्मिक विश्वास का सम्मान भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए तमाम कायदे-कानून पहले से मौजूद हैं।
अगर कोई व्यक्ति किसी धर्म के प्रतीकों का अपमान करता है तो उसके खिलाफ इन कानूनों के तहत उपयुक्त कार्रवाई की जा सकती है। इन कानूनों की खासियत यह भी है कि ये धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की मंशा और धर्म से जुड़े किसी पहलू की स्वस्थ, तार्किक आलोचना में फर्क कर सकते हैं। एक लोकतांत्रिक समाज में यह फर्क बने रहना जरूरी है। ईशनिंदा कानून लाने जैसी मांगें समाज की दृष्टि में इस फर्क को धुंधला बनाने और धर्म को संपूर्णता में तर्कपूर्ण बहसों से दूर करने की कही अनकही इच्छा से प्रेरित हैं। इसलिए इनसे सतर्क रहने में भलाई है।