'आयुर्वेद' को सनातन संस्कृति के प्राचीन दस्तावेज 'अथर्ववेद' का उपवेद माना जाता है, जो कि आयुर्वेद का मूल आधार व प्राचीनता का साक्ष्य है। भारत में भगवान 'धन्वंतरि' को आयुर्वेद चिकित्सा का देवता तथा वैदिक चिकित्सक व आयुर्वेद के आदि आचार्य 'अश्विनी कुमारों' को देवताओं का वैद्य माना गया है। हजारों वर्ष पूर्व इस भारतभूमि पर मृत शरीर को स्वस्थ करने में सक्षम 'संजीवनी विद्या' के परोधा 'महर्षि शुक्राचार्य' तथा उच्चकोटी के आयुर्वेदाचार्य एवं शल्य चिकित्सा के पितामह व 'सुश्रुत संहिता' के रचयिता 'महर्षि सुश्रुत' हुए। उन्हीं सुश्रुत के शिष्य महर्षि 'वाग्भट' हुए। वाग्भट ने ही आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथों 'अष्टांगसग्रह' व 'अष्टांगहृदय संहिता' की रचना की थी। आयुर्वेद को वैज्ञानिक स्वरूप देने वाले व 46501 श्लोकों से परिपूर्ण ग्रंथ 'मात्रेय संहिता' के रचनाकार महर्षि 'पुनर्वसु आत्रेय' प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे। पुनर्वसु आत्रेय के प्रतिभाशाली शिष्य आचार्य 'अग्निवेश' ने 'अग्निवेशतंत्र' की रचना की थी। आयुर्वेद के विकास में महर्षि 'च्यवन' की अहम भूमिका थी। भारत सहित कई देशों में लोग शारीरिक दुर्बलता व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए भारत में सर्वाधिक बिकने वाले आयुर्वेदिक उत्पाद 'च्यवनप्राश' का इस्तेमाल करते हैं, मगर च्यवनप्राश महान् आचार्य 'च्यवन' के अद्भुत ज्ञान व मेहनत की उत्पत्ति है। च्यवन ऋषि के नाम पर ही यह औषधि वर्तमान में च्यवनप्राश के रूप में जानी जाती है।
'तक्षशिला' विश्वविद्यालय के छात्र व प्रसिद्ध चिकित्सक 'जीवक कुमार भृत्य' भी इसी भारत में हुए। अश्वचिकित्सा पर आयुर्वेद आधारित विश्व के प्रथम ग्रंथ 'शालिहोत्र संहिता' के रचयिता व पशु चिकित्सा विज्ञान के संस्थापक महर्षि 'शालिहोत्र' थे। हाथियों से संबंधित शारीरिक विज्ञान के प्रथम आचार्य तथा 'गजशास्त्र' व 'हस्त्यायुर्वेद' के रचनाकार 'पालकाप्य मुनि' भी इसी भारत में हुए। महाभारत काल में पांडव पुत्र 'नकुल' को अश्वचिकित्सा व 'सहदेव' को 'गोचिकित्सा' का विशेषज्ञ माना गया है। वाल्मीकि कृत रामायण में पर्याप्त उल्लेख है कि रणभूमि में मूर्च्छित हुए पराक्रमी योद्धा 'लक्ष्मण' को रावण के राजवैद्य 'सुषेण' ने संजीवनी औषधि के उपचार से स्वस्थ करके अपना शाश्वत वैद्य धर्म निभाया था जो कि दुनिया भर के चिकित्सकों के लिए एक मिसाल है। मगर हैरत होती है कि हमारे मनीषियों की प्राचीन विरासत आयुर्वेदिक चिकित्सा का समृद्ध व गौरवशाली इतिहास संजोए भारत में मेडिकल के छात्रों को दशकों से ग्रीक दार्शनिक हिप्पोक्रेटिस की शपथ दिलाई जाती है तथा आयुर्वेद के सर्वोत्तम ग्रंथ 'चरक संहिता' के रचनाकार एवं 'फादर ऑफ मेडिसिन' 'महर्षि चरक' के नाम की शपथ तीखे विवाद का विषय बन जाती है। अंग्रेज हुकूमत ने आयुर्वेद पद्धति को उपेक्षित करके पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली का वर्चस्व कायम करने के कई प्रयास किए थे। मगर भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक व अंधविश्वास करार देने वाले पश्चिमी देश आज 'आयुर्वेद' को ही तस्लीम कर रहे हैं। ब्राजील देश आयुर्वेद को अपनी राष्ट्रीय नीति में शामिल कर चुका है।
विश्व के कई देश आयुर्वेद को अपने रैगुलर मेडिसिन सिस्टम में लागू कर चुके हैं। 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' आयुर्वेद को पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली के रूप में मान्यता दे चुका है। अब सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सेवाभाव व योग साधना से भरी जीवनशैली वाले हमारे ऋषियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण कितना विकसित था तथा प्राचीन भारत का आयुर्वेदिक चिकित्सा ज्ञान व उद्देश्य कितना व्यापक था। इसीलिए कई रोगनाशक औषधियों के उल्लेख से परिपूर्ण हमारे मनीषियों द्वारा रचित ग्रंथों का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। मुगल व अंग्रेज शासन से जद्दोजहद करने वाला आयुर्वेद इस वैज्ञानिक युग में भारत सहित विदेशों में भी लोकप्रिय हो चुका है। आयुष मंत्रालय की स्थापना के बाद आयुर्वेद को काफी प्रोत्साहन मिला है। देश में आयुर्वेद के कई संस्थान हैं जिनमें केरल के 'कोटक्कल' में सन् 1902 में स्थापित 'आर्य वैद्यशाला' विख्यात है जहां कई विदेशी लोग अपना इलाज करवाते हैं। बहरहाल अनादिकाल से दुनिया को मेडिटेशन से लेकर मेडिसिन तक का अद्भुत ज्ञान देने वाले ऋषियों के देश भारत में मेडिकल के छात्रों को 'महर्षि चरक शपथ' लेना गर्व का विषय होना चाहिए। बेशक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान बहुत उन्नति कर चुका है, मगर भारत की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद तथा इसके अद्वितीय ग्रंथों के रचयिता चरक, सुश्रुत, पुनर्वसु, जावाल, अत्रि, जातूकर्ण, पराशर, अग्निवेश, च्यवन व भारद्वाज ऋषि जैसे आचार्यों के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
प्रताप सिंह पटियाल
लेखक बिलासपुर से हैं