भारत में अब और ज्यादा जरूरी क्यों लगने लगी है एक समान शिक्षा प्रणाली?
‘स्कूल चले हम’ जैसे नारे के बारे में सोचते हुए अक्सर हमारा ध्यान एक ही देश के अलग-अलग स्कूलों में पल रही गैर-बराबरी पर नहीं जाता
शिरीष खरे, लेखक व पत्रकार।
'स्कूल चले हम' जैसे नारे के बारे में सोचते हुए अक्सर हमारा ध्यान एक ही देश के अलग-अलग स्कूलों में पल रही गैर-बराबरी पर नहीं जाता. एक तरफ हैं दूरदराज के गांव के कुछ सरकारी स्कूल, जहां क, ख, ग, लिखने के लिए ब्लैक-बोर्ड तक नहीं हैं. दूसरी तरफ हैं, अमीर बच्चों के लिए अलग-अलग स्तर के महंगे प्राइवेट स्कूल, जहां संपन्न वर्ग के बच्चे भव्य इमारत, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सर्वसुविधाओं से युक्त व्यवस्थाओं का फायदा उठा रहे हैं.
भारत में कई तरह की असमानताओं को देखते हुए एक समान शिक्षा प्रणाली की मांग शुरू से ही रही है, लेकिन कोरोना-काल में जब बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था पटरी से उतर रही है और देश में खास तौर से वंचित वर्ग के बच्चों और लड़कियों की शिक्षा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण सवाल बन गया है, तब तमाम तरह के भेदभावों को मिटाने के लिए एक समान शिक्षा प्रणाली की अवधारणा को लागू कराना, अब पहले से कहीं अधिक जरूर बात लगती है.
वहीं, प्राइवेट स्कूलों से अलग देखा जाए तो सरकारी स्कूलों में भी केंद्रीय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय स्कूल हैं, सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं और गांव में मेरिट लिस्ट के बच्चों के लिए नवोदय स्कूल तो है हीं.
दूसरी तरफ, प्राइवेट सेक्टर के स्कूलों में हर साल अपने बच्चों की फीस पर लाखों रुपए खर्च करने वाले परिवारों के लिए महंगे से महंगे स्कूलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. तो कहने को देश के सभी बच्चों को समान अवसर मिलने चाहिए. लेकिन, शिक्षा के मामले में परिवार की सत्ता और पैसे के बूते बच्चों को अलग-अलग स्तर पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल हो रही है.
स्पष्ट है कि सभी के लिए शिक्षा कई परतों में बंट चुकी है. खास तौर से पिछले तीन दशकों से शिक्षा का व्यवसायीकरण जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसके समानांतर स्कूली बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उपलब्धता के मद्देनजर यह बंटवारा उसी गति से फल-फूल रहा है.
सरकारी स्कूलों की हालत छिपी नहीं है
बता दें कि भारत में दिसम्बर, 2008 को देश के सभी 6-14 साल तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का मौलिक हक दिया गया था. लेकिन, सरकारी आकड़ों के हवाले से यह तथ्य छिपे नहीं हैं कि देश के विभिन्न राज्यों में बच्चों की एक बड़ी तादाद है, जो प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं. देश के कई दुर्गम इलाकों में ऐसे स्कूल हैं, जहां पांचवीं के बच्चे अपनी मातृभाषा में भी अच्छी तरह से दो-चार वाक्य लिख ही पाएं, जरूरी नहीं.
नई शिक्षा नीति के मसौदे में भव्य परिसर और अधिक संख्या वाले स्कूलों पर जोर दिया है, जो कि शिक्षा के बुनियादी ढांचे को तैयार करने के लिहाज से अच्छी बात है. लेकिन, देश के विभिन्न राज्यों से बड़ी संख्या में सरकारी स्कूल बंद होना चिंता का विषय है. उदाहरण के लिए, वर्ष 2015 से अब तक हरियाणा में दौ सौ से ज्यादा सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया था. उसके बाद से कई राज्यों में सरकारी स्कूल बड़ी संख्या में बंद किए जा रहे हैं.
इन स्कूलों को बंद करने के पीछे तर्क दिया जाता है कि ऐसे स्कूलों में बच्चों की संख्या अपेक्षाकृत कम हैं. लेकिन, इसके कारण से छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे जिले का उदाहरण लें, तो वहां तुलसी डोंगर की पहाड़ी पर बसे चांदामेटा गांव का स्कूल बंद होने से आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल का सफर प्रतिदिन 12 किलोमीटर लंबा हो गया है. इसके लिए उन्हें छोटी उम्र में ही जंगल के उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना पड़ रहा है. ऐसी स्थितियों में विशेष तौर पर आदिवासी अंचलों की लड़कियों के लिए बुनियादी शिक्षा पाना और अधिक मुश्किल हो गया है.
शिक्षा रोजगार से जुड़ा मुद्दा है. इसलिए, बड़े होकर बहुत से बच्चे आजीविका तलाशने की पंक्ति में सबसे पीछे खड़े मिलते हैं. दुनिया के अमीर देश जैसे अमेरिका में सरकारी स्कूल बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव माने जा रहे हैं. वहां काफी हद तक आज भी शिक्षा व्यवस्था पर आम जनता का नियंत्रण बना हुआ है. इसके ठीक विपरीत विकासशील देशों में प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेने का सिलसिला जोर पकड़ता जा रहा है. गरीब से गरीब के परिवार का सपना होता है कि वह अपने बच्चे को अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाए. लेकिन, यह बहुत मंहगे होते जा रहे हैं. इसलिए, सरकार के साथ समुदायों की यह जवाबदेही है कि वह सार्वजनिक शिक्षा यंत्र को फिर से मजबूत बनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से मुहिम शुरू करे.
विविधतासम्पन्न भारतीय संस्कृति का समावेश भी हो
इसलिए, शिक्षा जगत के कई जानकार अब इस व्यवस्था में व्यापक पड़ताल की वकालत कर रहे हैं. इनमें से कुछ जानकार मानते हैं कि देश के हर हिस्से में शिक्षा में एक समान सुविधाएं मुहैया कराने के लिए नीति और योजनाएं बनाई जाएं. हां, भारत के विविधतापूर्ण देश है, इसलिए पाठ्यक्रम और शिक्षण की पद्धतियों में जरूर की विविधताओं का सम्मान किया जाए. ऐसे में एक पुरानी मांग के मुताबिक शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न मापदंड, नीति और सुविधाओं के तहत होने वाले भेदभाव बंद होने की मांग समय की दरकार भी है.
दूसरे अर्थों में शिक्षा के दायरे से सभी तरह की परतों को मिटाकर एक ही परत बनाई जाए. इससे हर बच्चे को अपनी भागीदारी निभाने का समान मौका मिलेगा. बता दें कि कोठारी आयोग (1964-66) देश का ऐसा पहला शिक्षा आयोग था, जिसने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक बदलावों के मद्देनजर कुछ ठोस सुझाव दिए थे. इस आयोग के अनुसार समान स्कूल के नियम पर ही एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार हो सकेगी, जहां सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे. यदि ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों से बाहर निकलकर प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेंगे. इससे देश में शिक्षा की पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी.
1970 के बाद से सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आने लगी थी. लेकिन, नब्बे के दशक के बाद से स्थिति बिगड़ते हुए यहां तक पहुंच गई है कि ऐसे स्कूल मात्र गरीबों के लिए समझे जाने लगे हैं. कोठारी आयोग द्वारा जारी सिफारिशों के बाद भारतीय संसद 1968, 1986 और 1992 की शिक्षा नीतियों में एक समान स्कूल व्यवस्था की बात तो करती है, लेकिन इसे लागू करने के बारे में सोच नहीं पा रही है.
इसी तरह, सरकार की विभिन्न योजनाओं के अर्थ भी भिन्न-भिन्न हैं. जैसे कि कुछ योजनाएं शिक्षा के लिए चल रही हैं तो कुछ महज साक्षरता को बढ़ाने के लिए. इसके बदले सरकार क्यों नहीं एक ऐसे स्कूल की योजना बनाती है, जो सभी सामाजिक और आर्थिक हैसियत को दरकिनार करते हुए देश के सभी बच्चों को एक जैसी गुणवत्ता पर आधारित शिक्षा उपलब्ध करा सके. फिर वह चाहे कलेक्टर या मंत्री का बच्चा हो या चपरासी का. सब साथ-साथ पढ़ें और फिर देखें पढ़ने में कौन कितना होशियार है.
स्कूल से ही शुरू हो समानता का विचार
दरअसल, एक समान शिक्षा प्रणाली में एक ऐसे स्कूल का विचार है, जो योग्यता के आधार पर ही शिक्षा हासिल करना सिखाता है. इसकी राह में न धन का सहारा है और न किसी तरह की सत्ता का. इसमें न टयूशन के लिए कोई शुल्क होगा और न ही किसी प्रलोभन के लिए स्थान. लेकिन, सच्चाई यह है कि जो भेदभाव स्कूलों की चारदीवारियों में है, वही समाज में भी मौजूद है. इसलिए, समाज के उन छिपे हुए कारणों को पकड़ना होगा, जो स्कूल के दरवाजों से घुसते हुए ऊंच-नीच की भावना बढ़ाते हैं. इस भावना के होते हुए सरकारी स्कूल व्यवस्था का सपना सच नहीं हो सकता.
वहीं, कुछ जानकारों का मत है कि केवल शिक्षा में ही समानता की बात करना ठीक नहीं होगा, बल्कि इस व्यवस्था को व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है. गोपालकृष्ण गोखले ने 1911 में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का जो विधेयक पेश किया था, उसे समाज में एकाधिकार बनाए रखने वाली ताकतों ने तब भी पारित नहीं होने दिया था.
इसके पहले भी महात्मा ज्योतिबा फूले ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भारतीय शिक्षा आयोग (1882) को दिए अपने ज्ञापन में कहा था कि सरकार का अधिकांश राजस्व तो मेहनत करने वालों मजदूरों से आता है, फिर भी इसके बदले दी जाने वाली शिक्षा का पूरा फायदा अमीर लोग उठाते हैं. आज देश को आजाद हुए 70 साल से ज्यादा समय बीत गया है और उनके द्वारा कही इस बात को करीब 140 साल.
इन दिनों शिक्षा में व्यवसायीकरण की हवा बहुत तेज है और स्थिति पहले से अधिक विकट हो चुकी है. ऐसी स्थिति में एक जनकल्याणकारी राज्य में शिक्षा के अधिकार को बहाल करने के बाद मौजूद परिस्थितियों से उलट शिक्षा के बुनियादी विचार को लागू करने की जरूरत है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)