जातीय जनगणना क्यों
जातीय जनगणना की मांग प्रधानमंत्री मोदी की दहलीज़ तक आ गई है।
दिव्याहिमाचल.
जातीय जनगणना की मांग प्रधानमंत्री मोदी की दहलीज़ तक आ गई है। बेशक जाति एक सामाजिक और सामुदायिक सचाई है, लेकिन आम आदमी, पिछड़े, दबे-कुचले और गरीब को उसी के जरिए सामाजिक न्याय मिलेगा, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। बिहार का ही उदाहरण गौरतलब है, क्योंकि वहीं के नेता सबसे ज्यादा उछल रहे हैं कि लाभकारी योजनाओं का फायदा अंतिम व्यक्ति तक जरूर पहुंचे, लिहाजा जातिवार डाटा उपलब्ध होना चाहिए। बिहार में बीते 16 सालों से लगातार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। उनसे पहले लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे। बिहार का बदनसीब यथार्थ यह है कि अब भी हर साल भयानक बाढ़ आती है, पुल सरीखे निर्माण-कार्य ढह जाते हैं, लोगों के घर ध्वस्त होकर बहने लगते हैं और औसत बिहारी लावारिस की जि़ंदगी जीने को विवश होता है। यह विनाशकारी सिलसिला कभी नहीं रुक पाया है। कमोबेश बाढ़ की व्यवस्था के लिए जातीय जनगणना की कोई जरूरत नहीं थी। कोरोना महामारी के दौरान अस्पतालों में सुअरों को आराम करते भी देखा गया है, बाढ़ में ही ठेले पर बैठकर डॉक्टर को अस्पताल तक जाने के दृश्य भी सामने आए हैं।
दवाओं और इलाज की चरमराती व्यवस्था की बात फिलहाल छोड़ देते हैं। आर्थिक मंदी, महंगाई, बेरोजग़ारी सरीखी समस्याएं तो 'राष्ट्रीय' हैं और विकास के पायदान पर बिहार सबसे निचली जमात में है। इन दुरावस्थाओं का जिक़्र कोई नहीं करता, लेकिन जातिगत जनगणना के मुद्दे पर मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष 'बग़लगीर' हो जाते हैं। जातीय जनगणना के मुद्दे का विश्लेषण हम पहले भी कर चुके हैं। संसद में मोदी सरकार के मंत्री स्पष्ट कर चुके हैं कि जातीय जनगणना देश भर में नहीं कराई जाएगी, लेकिन फिलहाल प्रधानमंत्री का जवाब आना है। बेशक यह असंवैधानिक कवायद नहीं है। गुलाम भारत में 1881 में पहली बार सामान्य जनगणना की गई थी, जिसमें पुरुषों और महिलाओं की संख्या गिनी गई थी। उसके बाद मुसलमान, सिख, पारसी समुदायों की गणना की गई। 1931 की जनगणना में जातीय आधार पर गिनती की गई। 1941 से 2011 तक विभिन्न नामकरणों के तहत जातीय जनगणना की जाती रही, लेकिन आंकड़े कभी भी सार्वजनिक नहीं किए गए। कारण यह भी हो सकता है कि स्वतंत्र भारत में सरदार पटेल, काका कालेलकर, राममनोहर लोहिया से लेकर कर्पूरी ठाकुर तक जातीय जनगणना को वैमनस्य और विभाजक स्थितियों का बुनियादी कारक मानते रहे। यदि तब यह जनगणना जरूरी नहीं थी, तो आज सामाजिक न्याय की बुनियाद जातिवार जनगणना को ही क्यों माना जाए? दरअसल अब यह मुद्दा ज्यादा जोर पकडऩे लगा है, क्योंकि सबसे बड़े राज्य-उप्र-में विधानसभा चुनाव करीब हैं। बिहार और उप्र के अलावा, ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने भी इसी जनगणना की मांग की है। महाराष्ट्र विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित किया जा चुका है।
कुछ भी दलीलें दी जाएं और सामाजिक न्याय का रोना रोया जाए, लेकिन हमारी राजनीति जाति से ही बंधी है और जातीय जनगणना से ऐसे दल अपने वोट बैंक व्यापक करना चाहते हैं। ओबीसी, दलित और आदिवासी की राजनीति करने वाले दल आजकल चिंतित हैं, क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ओबीसी के 44 फीसदी वोट मिले, जबकि विपक्ष को औसतन 27 फीसदी मिले। कभी यह फासला विपरीत होता था। आज दलित समुदाय भी भाजपा के पक्ष में वोट कर रहे हैं और आदिवासी भी अछूते नहीं रहे हैं। दरअसल जातीय जनगणना वे नेता और दल कराना चाहते हैं, जिनकी कुटिल निगाहें पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वोट बैंक पर लगी रही हैं। मुसलमान भी उन्हें वोट देते हैं, क्योंकि वे नफरत की हद तक भाजपा-विरोधी हैं। कभी जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई और सिख समुदायों की गणना को लेकर अभियान नहीं छेड़े गए। इन समुदायों ने आरक्षण की मांग भी नहीं की। इनमें से कइयों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वे मजदूरी करते हैं, ठेला चलाते हैं और फुटपाथिया हैं। ये जातियां न तो मंडल में शामिल हैं और न ही कमंडल को चिंता है। यदि जनगणना का मकसद सामाजिक न्याय है, तो फिर जनगणना 'गरीबी' के आधार पर होनी चाहिए और विसंगतियों के शिकार लोगों का हर स्तर पर उत्थान होना चाहिए।