सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की भाषा भारत के आम आदमी की भाषा क्यों नहीं बन सकती?

नई शिक्षा नीति, मातृभाषा और अदालत

Update: 2021-03-14 11:59 GMT

पेशे से वकील रह चुके राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पिछले दिनों अदालतों की भाषा को लेकर महत्वपूर्ण बात कही. 6 मार्च को All India State Judicial Academies Directors' Retreat में राष्ट्रपति ने कहा कि 'भाषाई सीमाओं के कारण कोर्ट में वादी को अपने ही मामलों में लिए गए फ़ैसलों को समझने के लिए संघर्ष करना पड़ता है.' उन्होंने सुझाव दिया कि 'सभी उच्च न्यायालय अपने-अपने प्रदेश की लोकल भाषा में जनहित के फ़ैसलों का प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित और उपलब्ध कराएं.'


इस बात को लेकर अक्सर बहस होती है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो या नहीं. नई शिक्षा नीति में सिफारिश भी की गई है कि 5वीं क्लास तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का मीडियम बनाया जाए, लेकिन ये सवाल नहीं उठाया जाता कि अदालती भाषाएं आम आदमी के समझने योग्य क्यों नहीं बनाई जाती हैं.

नई शिक्षा नीति, मातृभाषा और अदालत
न्यायपालिका की कार्यव्यवस्था को करीब से देख चुके देश के राष्ट्रपति जब ये मुद्दा उठा रहे हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इसपर जनता की अदालत में बहस होगी. ये मुद्दा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि शिक्षा का माध्यम और अदालती कार्यवाही की भाषाओं का भी आपस में संबंध है, जिसे समझने की ज़रूरत है.
न्यायालयों की आधिकारिक भाषा क्या हो. ये सवाल वर्ष 2020 में भी उस वक्त चर्चा में आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 'हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम' को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं को पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में अपील करने को कहा था. इस याचिका में 'हरियाणा राजभाषा (संशोधन) अधिनियम' को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई थी. ये अधिनियम हिंदी को राज्य की निचली अदालतों में प्रयोग की जाने वाली एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करता है.

संविधान का अनुच्छेद 348 क्या कहता है?
यहां संविधान के अनुच्छेद 348 को भी समझने की ज़रूरत है, जो दो बातें कहता है. पहली बात, जब तक संसद किसी अन्य व्यवस्था को ना अपनाए, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्यवाही केवल अंग्रेजी भाषा में होगी. दूसरी बात, किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की अनुमति से हिंदी या दूसरी भाषा को हाई कोर्ट की कार्यवाही की भाषा का दर्जा दे सकता है.

इसका मतलब साफ है कि जबतक संसद इस बारे में कोई नया कानून नहीं बनाती, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही बनी रहेगी. यानी अदालत की भाषा को बदलने का अधिकार अदालतों के पास नहीं, बल्कि शासन के पास है.

कोर्ट का 'तर्क' शास्त्र उर्फ..औपनिवेशिक संस्कार

देखा जाए तो जब लोकतंत्र नहीं था, तब भी फारसी या उर्दू अदालत की भाषा हुआ करती थी, क्योंकि देश का शासन इन्हीं ज़ुबानों का इस्तेमाल करने वाले राजतंत्र के हाथ में था. जब अंग्रेजों का ज़माना आया, तब इसी सिद्धांत के तहत कोर्ट की भाषा अंग्रेजी हो गई. औपनिवेशिक प्रभुत्व भी तभी स्थापित होता है, जब उपनिवेश की भाषा पर मालिक देश की भाषा थोप दी जाती है. इसी अलिखित संविधान के तहत आपको दक्षिण अमेरिका या अफ्रीका के अलग-अलग देशों में अलग-अलग (अदालती) भाषाएं मिलेंगी.

मिसाल के तौर पर ब्राजील में पुर्तगाली जबकि लैटिन अमेरिका के बाकी कई देशों में स्पेनिश. उत्तर मध्य अफ्रीकी देश चाड में फ्रेंच जबकि लाइबेरिया या नाइजीरिया में इंग्लिश. इसी तरह लीबिया और सोमालिया में आपको इटली बोलने वाले भी मिलेंगे. थोपी गई भाषा का यही वो औपनिवेशिक संस्कार है, जिसके तहत भारत में और यहां की अदालतों में अंग्रेजी का प्रभुत्व स्थापित है.

कन्नड़ में जिरह होगी तो यूपी के वकील साहब समझेंगे?

तो उपाय क्या है, क्या संसद को कानून बनाकर अदालतों की भाषा बदल देनी चाहिए? इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. मान लीजिए कि कर्नाटक की किसी अदालत में कन्नड़ में कार्यवाही चल रही है. अगर दोनों पक्ष कन्नड़ समझते हैं तो किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए. लेकिन, दो में से कोई एक वकील या कोई एक पक्ष गुजरात या बिहार या उत्तर प्रदेश का होगा तो वो कन्नड़ कैसे समझेगा? अगर किसी वकील या जज ने अपनी पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से की है, तो उसके लिए किसी भी राज्य की स्थानीय भाषा में जिरह करना या अपने दस्तावेज़ तैयार करना बहुत मुश्किल होगा. यानी स्थानीय भाषा के इस्तेमाल का कानून उसके लिए उचित नहीं होगा. यहीं पर भूमिका बनती है नई शिक्षा नीति की.दरअसल, अदालती भाषा की इस समस्या के समाधान के लिए पांचवीं तक या उसके बाद भी मातृभाषा में पढ़ाई के फॉर्मूले को लागू करना होगा.

मातृभाषा में पांचवीं पास से देश को आस

यानी हाई स्कूल से लेकर कानून की पढ़ाई तक का माध्यम बेशक अंग्रेजी हो, लेकिन कम से कम प्राइमरी तक मातृभाषा में पढ़ाई होनी चाहिए. ऐसे छात्र जब कोर्ट में वकील या जज बनकर उतरेंगे तो अंग्रेजी भी समझ, लिख, बोल सकेंगे और अपनी मातृभाषा भी क्योंकि उनकी बुनियाद में मातृभाषा के शब्दों की सीमेंट मिली हुई होगी.

ऐसा करके देश में ऐसे वकीलों और जजों की फौज खड़ी की जा सकती है जो अंग्रेजी और मातृभाषा दोनों के जानकार होंगे. अगर निचली अदालतों में एक-दो और उपरी अदालतों की किसी बेंच में एक जज भी ऐसा 'दुभाषिया' हो और ऐसे ही 'स्किल्ड' वकीलों की तादाद भी धीरे-धीरे बढ़ने लगे तो अदालत की भाषा आम जन के लिए अनजान नहीं रह जाएगी और शायद कोर्ट की कार्यवाही के अनुवाद की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

हो सकता है यहां जिस 'यूटोपिया' की बात की जा रही है, उसमें आधी सदी लग जाए, लेकिन ये 'वोकल फॉर लोकल' न्यायिक व्यवस्था अदालतों के लोकतंत्रीकरण की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी.


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