सीबीआई की साख, कन्विक्शन रेट में सुधार के एजेंसी के दावे पर क्यों उठ रहे सवाल
सीबीआई डायरेक्टर सुबोध कुमार जायसवाल ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दायर किया है, उससे न केवल इस जांच एजेंसी के कामकाज की मौजूदा स्थिति स्पष्ट होती है
सीबीआई डायरेक्टर सुबोध कुमार जायसवाल ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दायर किया है, उससे न केवल इस जांच एजेंसी के कामकाज की मौजूदा स्थिति स्पष्ट होती है बल्कि उन अड़चनों का भी पता चलता है जिनका इसे सामना करना पड़ता है। एक मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस एस के कौल और जस्टिस एम एम सुंद्रेश की बेंच ने तीन सितंबर को कहा था कि सीबीआई चीफ एजेंसी के कामकाज का पूरा ब्योरा पेश करें ताकि यह अंदाजा मिल सके कि पिछले दस वर्षों के दौरान मामले दर्ज करने और उन्हें सुलझाने के मामले में एजेंसी कितनी कामयाब या नाकाम रही है। हलफनामे पर गौर करने से स्पष्ट होता है कि 2011 से अब तक की अवधि में सीबीआई द्वारा दर्ज मामलों में कन्विक्शन रेट 65 से 70 फीसदी के बीच है।
ज्यादा सटीकता से कहा जाए तो 2011 से 2014 तक कन्विक्शन रेट 67 फीसदी से 69 फीसदी तक पहुंचाई जा सकी, उसके बाद 2015 में अचानक यह गिरकर 65.1 फीसदी पर आ गई, जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए 2020 में 69.8 फीसदी तक आई। साल 2015 में आई इस अचानक गिरावट की वजहें साफ नहीं हो पाईं, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि सीबीआई चीफ इसे अगले साल ही 75 फीसदी तक ले जाने का इरादा रखते हैं। बहरहाल, पहली नजर में कन्विक्शन दर के मौजूदा आंकड़े भी कम नहीं कहे जा सकते। खासकर तब जब एनसीआरबी (नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो) के आंकड़ों के मुताबिक, आईपीसी के तहत दर्ज किए गए मामलों में कन्विक्शन रेट 2020 में 59.2 फीसदी ही है।
वैसे जानकार सीबीआई चीफ के इस हलफनामे में दिए गए तथ्यों पर भी सवाल उठाते हैं। उनके मुताबिक यह स्पष्ट नहीं है कि हलफनामे में कन्विक्शन रेट तय करने का आधार ऊपरी अदालतों के अंतिम निर्णय को बनाया गया है या निचली अदालतों के शुरुआती फैसलों को। इसी तरह यह भी साफ नहीं है कि एक मामले के विभिन्न आरोपियों पर दिए गए फैसले को अलग-अलग देखा गया है या समग्रता में? जाहिर है कि सीबीआई के कामकाज की तस्वीर काफी हद तक इस तरह के डीटेल्स पर निर्भर करती है।
हलफनामे में अदालतों से स्टे ऑर्डर जारी किए जाने और कई राज्यों द्वारा सीबीआई को मिली जांच करने की आम इजाजत वापस लिए जाने जैसी अड़चनों का भी जिक्र है, जो कुछ हद तक जायज हैं। मगर जहां तक संपूर्णता में इस जांच एजेंसी की विश्वसनीयता का सवाल है तो यह मानना होगा कि कुछ मामलों में सही ढंग से काम करने और कुछ अन्य मामलों में ढिलाई बरतने से विश्वसनीयता नहीं हासिल हो सकती। जिस तरह से कई हाई प्रोफाइल मामलों में सरकार के इशारे पर यह एजेंसी अपना रुख तय करती है, वह इसकी साख बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसलिए इसे स्वायत्त बनाना होगा।