संसद का 'खलनायक' कौन

देश के उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू सदन में ही सुबक उठे

Update: 2021-08-13 05:35 GMT

देश के उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू सदन में ही सुबक उठे। वह भावुक नहीं हुए, बल्कि संबोधित करते हुए रो पड़े। यह भारत के लिए शर्मनाक घटना थी। संसद के उच्च सदन में यह अभूतपूर्व और अप्रत्याशित दृश्य था। वह देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पुरुष हैं। सदन में प्रधानमंत्री भी उनके सम्मान में खड़े होते हैं। संसद के साथ-साथ देश की संप्रभुता और गणतांत्रिक मूल्य भी जुड़े हैं। यदि सभापति को पीड़ा और क्षोभ है कि संसद की पवित्रता भंग हुई है और यह कुकृत्य सांसदों ने ही किया है, तो वे सभापति के रुदन की भाषा क्या खाक समझेंगे? हमने बीते 25 सालों के दौरान संसद की कार्यवाही कवर करते हुए कागज़़ों की छीना-झपटी देखी है। बिल फाड़े गए हैं। चिंदियां हवा में उड़ाई गई हैं। यदि भाजपा सांसदों ने, विपक्ष में रहते हुए, सदन की कार्यवाही को बाधित कर पूरे सत्र बर्बाद किए थे, तो वाजपेयी सरकार के दौरान कांग्रेस और विपक्षी सांसदों ने लगातार 21 दिनों तक कार्यवाही नहीं चलने दी थी, लेकिन हमने कभी सभापति या स्पीकर को सुबकते हुए नहीं देखा। यदि लोकतंत्र के संदर्भ में संसद में हंगामा करना और सदन बाधित करना ही संसदीय अधिकार है और आजकल नेता प्रतिपक्ष रहे दिवंगत अरुण जेतली और सुषमा स्वराज के बयान विपक्ष को बहुत याद आ रहे हैं, तो यह एहसास भी होना चाहिए कि संसद की कार्यवाही को चलने देना, महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल पूछना और सार्थक चर्चा के बाद बिल पारित करना भी सांसदों का संसदीय दायित्व है। उन्हें सदन के भीतर ही मेजों पर चढऩे या खड़े होकर नारेबाजी करने, तालियां बजाकर उत्पाती सांसदों का समर्थन करने, पोस्टर और तख्तीबाजी करने के लिए नहीं चुना गया है। यह सरासर गुंडागर्दी है और ऐसे सांसद ही 'खलनायक' हैं, जिन्होंने उपराष्ट्रपति एवं सभापति को आहत किया था। वह रात भर सो नहीं सके और सोचते रहे कि आखिर क्या गलत हुआ है कि सदन में ही उत्पात मचा है? बहरहाल संसद का मॉनसून सत्र निर्धारित समय से दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा।


सभापति और स्पीकर दोनों ने ऐसी कार्यवाही पर वेदना बयां की है, लेकिन 'खलनायकों' के लिए क्षुब्ध क्यों हुआ जाए? संविधान ने दायित्व और अधिकार 'आसन' को प्रदान किए हैं। हम भी मानते हैं कि उत्पाती सांसदों के निलंबन ही समाधान नहीं हैं, सदन आपसी संवाद और चर्चा के साथ ही चलने चाहिए, लेकिन निरंकुश या बेलगाम सांसदों से कैसे निपटा जाए, इस मुद्दे पर सभापति और स्पीकर अन्य पीठासीन अधिकारियों के साथ विमर्श करें। संवैधानिक परामर्श भी लिया जाए कि अधिकतम कार्रवाई क्या की जा सकती है। सत्र के दौरान लोकसभा में करीब 22 फीसदी काम ही किया जा सका और तय वक्त में से 74 घंटे 46 मिनट बर्बाद किए गए। इसी तरह उच्च सदन राज्यसभा में करीब 28 फीसदी काम हो पाया और 70 घंटे से ज्यादा बर्बाद किए गए। बेशक हंगामे और हुड़दंग के बीच 20 बिल, बिना चर्चा के, पारित कर लिए गए। उनका औचित्य क्या है? यदि विधायी कार्य भी पूरा नहीं किया जाता, तो देश की व्यवस्था ही ठहर जाती! चिंतनीय पहलू यह है कि हंगामे के कारण कोरोना महामारी, महंगाई, बेरोजग़ारी, जल-प्रलय आदि महत्त्वपूर्ण मुद्दे क्यों पीछे छूट गए? विपक्ष पेगासस जासूसी विवाद और कृषि के तीन कानूनों को रद्द करने की जिद पर अड़ा रहा। विपक्ष किसी भी बहस या निर्णय के लिए सरकार को मज़बूर नहीं कर सकता। यह कथन सभापति वेंकैया नायडू ने सदन में कहा था। उन्होंने नियम 267 के तहत किसान मुद्दे पर चर्चा के लिए पूरा दिन देने की बात कही। यदि 200 करोड़ रुपए स्वाहा करके संसद को कायम रखना हैै और वह बंजर साबित होती रहे, तो फिर संसद का अस्तित्व बेमानी है।

divyahimachal

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