समस्या की जड़ कहां है?

ये मामला विवादास्पद है, लेकिन इसके बारे में कोई सीधा रुख तय करना आसान नहीं है।

Update: 2021-03-19 01:30 GMT

ये मामला विवादास्पद है, लेकिन इसके बारे में कोई सीधा रुख तय करना आसान नहीं है। सवाल है कि अगर देश में लोकतांत्रिक संवाद का अभाव होता जाए और चुनावी बहुमत के आधार पर सरकार असहमति या असंतोष की किसी आवाज को सुनने से इनकार करे, तो असंतुष्ट समूहों के लिए क्या रास्ता रह जाता है? ये सवाल इस खबर से उठा है कि मौजूदा किसानों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के नेता दर्शनपाल ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से कहाहै कि केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों से ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे किसानों और अन्य लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र का उल्लंघन हुआ है। उन्होंने ध्यान दिलाया है कि इस घोषणा-पत्र पर भारत ने भी हस्ताक्षर कर रखे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के एक बयान में कहा गया कि दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन के 110वें दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संबोधित एक ज्ञापन अधिकारियों को सौंपा गया। इसी रोज दर्शन पाल ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार परिषद के 46वें सत्र में वीडियो संदेश भेजा।

अब ये कहा जाएगा कि यह देश के मामले में विदेशी हस्तक्षेप की अपील है। इससे भारत की छवि उस समय और खराब होगी, जब विदेशी संसदों में भारत में लोकतंत्र के कथित दमन की चर्चा हो रही है और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं लोकतंत्र के इंडेक्स पर भारत का दर्जा गिरा रही हैं। इन बातों में दम है। लेकिन असल सवाल देश के अंदर ही हैं। क्या यह सच नहीं है कि देश में आजादियां संकुचित हो गई हैं? आंदोलनों को राष्ट्र-विरोधी और उन्हें बदनाम करने वाले अलग- अलग नाम दिए जाने की प्रवृत्तियां बढ़ गई हैं। इन सबके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? अगर सरकार देश के अंदर सबको साथ लेकर चलने का भरोसा बंधा पाए, तो फिर शायद इसकी नौबत नहीं आएगी कि लोग अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सामने अपनी मुसीबत बताएं। तब अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इंडेक्स को लेकर समाज के एक हिस्से में यह धारणा नहीं बनेगी कि आखिर कोई भारत की हालत की तरफ ध्यान दे रहा है। दरअसल, तब शायद वे संस्थाएं ऐसा करेंगी भी नहीं, क्योंकि आखिर उन्हें भारत से कोई निजी वैर नहीं है। आखिर इन संस्थाओं ने ही पहले भारत की ऐसी छवि बनाई, जिससे हमारा एक सॉफ्ट पॉवर बना था। इसलिए इस सवाल पर अवश्य विचार होना चाहिए कि आखिर किसान आंदोलन ने संयुक्त राष्ट्र की संस्था के पास क्यों गुहार लगाई है?


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