कहां गुम हो रही है स्वतंत्र और निष्पक्ष नौकरशाही !

झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती, पशुपालन महकमे के पूर्व सचिव महेश प्रसाद, पूर्व एएचडी सचिव फूल चंद सिंह, पूर्व वित्त आयुक्त के. अरुमुगम, पूर्व पीएच‌ईडी सचिव जूलियस बेक,दुमका में आयुक्त रहे श्रीपति नरायण दूबे जैसे नौकरशाह बिहार झारखंड के सजायाफ्ता नाम हैं

Update: 2022-04-29 13:11 GMT

Faisal Anurag

झारखंड के पूर्व मुख्य सचिव सजल चक्रवर्ती, पशुपालन महकमे के पूर्व सचिव महेश प्रसाद, पूर्व एएचडी सचिव फूल चंद सिंह, पूर्व वित्त आयुक्त के. अरुमुगम, पूर्व पीएच‌ईडी सचिव जूलियस बेक,दुमका में आयुक्त रहे श्रीपति नरायण दूबे जैसे नौकरशाह बिहार झारखंड के सजायाफ्ता नाम हैं. इनमें कई दिवगंत हो चुके हैं.नेताओं के साथ मिल कर राज्य के खजाने की लूट के हिस्सेदार , उनकी मिसाल ने पूरी नौकरशाही को लेकर सवाल खड़े किए. ये उस ब्यूरोक्रेसी के प्रतिनिधि रहे हैं जिसे देश और विकास के लिए इस्पात का ढांचा माना जाता रहा है.
इस्पात का यह ढांचा जंग खा कर तेजी से खंडहर बनने की ओर बढ़ रहा है. ऐसे अफसरों की फेहरिस्त बहुत लंबी है.सवाल है कि नौकरशाही की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह अपने राजनेता आकाओं के हिसाब से ढल जाती है. प्रशासनिक सेवाओं से सीधे राजनीति में छलांग लगा कर भविष्य सुरक्षित करने के बढ़ते उदाहरण तार तार संवैधानिक मर्यादाओं की दर्दनाक दास्तां से कम नहीं है.
कन्नन गोपीनाथ या टीएन शेषन जैसे लोग को अपवाद बन कर रह गए हैं जो सरकार की नीतियों पर सवाल उठा सकें और आइएएस से त्यागपत्र देने का साहस दिखा सकें.सेवा काल के दौरान नेताओं का पिछलग्गू होने और बतौर पुरस्कार सांसद, विधायक , मंत्री बनने वाले पूर्व नौकरशाहों की संख्या से स्पष्ट है कि प्रशासनिक सेवा का ढांचा और उसकी संवैधानिक मर्यादा और शपथ का तेजी से क्षय हो रहा है. जम्मू-कश्मीर के शाह फैसल, जो यूपीएससी के टॉपर रहे हैं, ने अफसरी छोड़ कर राजनीतिक दल बनाया और फिर अब वापस अफसरी में लौट आए हैं.
बिहार में भी डीजीपी रहे गुपतेश्वर पांउेय ने इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने का एलान किया और फिर सेवा में वापस भी आ गए. इस तरह की मिसाल एक पतनशील नौकरशाही में ही मिल सकती है.ध्यान रखना होगा कि संविधान सभा की बहस के दौरान तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने कहा था "मेरे सचिव मेरे विचारों के विरोध में नोट लिख सकते हैं. मैंने अपने सभी सचिवों को वह स्वतंत्रता दी है. मैंने उनसे कहा है कि अगर वे इस डर से अपनी ईमानदार राय नहीं देते हैं कि इससे उनके मंत्री नाराज हो जाएंगे, तो बेहतर है कि वे घर चले जाएं. मैं एक और सचिव लाऊंगा. मैं अपनी राय की स्पष्ट अभिव्यक्ति से कभी नाराज नहीं होता. " न तो पटेल जैसे नेता आज हैं और न ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या मंत्री से असमहति जताने वाले अफसर.साहसी और असहमति जताने वाले अफसरों का टोटा एक गंभीर मर्ज का लक्षण है.
पिछले तीन दशकों में जितने भी बड़े भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए हैं उसमें अफसरों और नेताओं की मिलीभगत के अनेक प्रमाण मौजूद हैं (उदाहरण के बतौर टूजी और कोयला घोटाले में बड़े अफसरों की नेताओं के साथ मिलकर की गयी भ्रष्टाचार में भागीदारी). अशोक खेमका जैसे अफसर तो अपवाद ही हैं जिनका हर तीन चार माह में तबादला हो जाता है.क्योंकि वे नियम विरूद्ध किसी नेता का आदेश नहीं मानते. राबर्ट बाडरा का जमीन घोटाला हो या फिर हरियाणा के मुख्यमंत्री और मंत्रियों के आदेशों को आंख मूंद कर मानने से इंकार करने का साहस दिखा कर नियमानुसार चलने का उनका इतिहास किसी देश के लिए गौरव का विषय है. खेमका अपवाद नहीं नियम के प्रतीक होते तो देश, समाज की दशा दिशा कुछ और होती.
ऐसे अफसरों का उपाहस जिस तरह उड़ाया जाता है उससे नए अफसरों का मनोबल प्रभावित होता है. कानून के हिसाब से चलने की बजाय राजनेताओं के आदेशों के अनुकूल चलने की आदत में ढल जाने के लिए आखिर कौन बाध्य करता है?वोहरा आयोग और मोइली कमेटी ने विवेक सम्मत नौकरशाही के लिए , जो कानून के अनुकूल ही कार्य करे, प्रशासनिक सुधार के लिए अनेक सुझाव दिए. इन सुझावों की अब तो चर्चा ही नहीं होती. नरेंद्र मोदी की सरकार ने तो विभिन्न क्षेत्रों के प्रोफेसनल और विशेषज्ञों को सीधे तीन साल के लिए नियुक्त करने का एक नया सिलसिला शुरू किया. तो क्या इस प्रक्रिया से नौकरशाही में सुधार की मांग को पूरा किया जा सकता है.
इसे लेकर देश में विशेषज्ञों के अलग अलग विचार हैं. लेकिन मूल सवाल तो यह है कि आखिर राजनेता अफसर गठजोड़ कब तक जारी रहेगा. क्या कोई शासक अफसरों के विवेक और साहसी फैसलों की प्रवृति को बढ़ावा देगा और असहमति जताने वाले अफसरों को संवैधानिक संरक्षण का मार्ग प्रशस्त करेगा ?झारखंड के वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव, जो खुद नौकरशाही से राजनीति में आए हैं, ने कहा है कि संयुक्त बिहार में नौकरशाही बेहतर थी. झारखंड की नौकरशाही की क्षमता पर सवाल उठा कर रामेश्वर उरांव ने राजनीति और नौकरशाही के संबंधों पर एक बहस छेड़ दी है. इस सवाल का स्वयं रामेश्वर उरांव को ही जबाव देना चाहिए कि सेवा काल के बाद राजनीति को ही मंजिल मानने की जो प्रवृति नौकरशाही में हावी है, उससे प्रशासन,लोकतंत्र और राजनैतिक पारदर्शिता प्रभावित होती है या नहीं ?

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