कहां है वो 'काबुलीवाला'
भारत में साहित्य के इकलौते नोबेल पुरस्कार विजेता महाकवि रवींद्र नाथ टैगोर ने एक कालजयी कहानी लिखी थी
दिव्याहिमाचल.
भारत में साहित्य के इकलौते नोबेल पुरस्कार विजेता महाकवि रवींद्र नाथ टैगोर ने एक कालजयी कहानी लिखी थी-'काबुलीवाला।' उस पर एक खूबसूरत फिल्म भी बनाई गई थी। विद्यार्थी काल में उस कहानी को पढ़ा था, लेकिन उसके निहितार्थ आज समझ आ रहे हैं। 'काबुलीवाला' हमारे घरों की दहलीज़ तक भी आता था। लंबे-चौड़े कद के पठान के कंधों पर एक बड़ी-सी गठरी लटकी होती थी, जिसमें बादाम, काजू, पिस्ता, मुनक्का, किशमिश आदि मेवे और कई अन्य चीजें होती थीं। बचपन में हम उस गठरी को 'जादुई' मानते थे। हमारे लिए 'काबुलीवाला' कौतुहल का पात्र था, लेकिन भारत के घर-घर में वह प्रिय था, क्योंकि हम उसे घर का ही हिस्सा मानते थे। आज अफग़ानिस्तान बदल गया, तो कई सालों पहले 'काबुलीवाला' भी गायब हो गया था। चूंकि संबंध गहरे और पुराने थे, लिहाजा आज भी 'काबुलीवाला' याद आ रहा है। अब उसके काबुल और शेष अफग़ानिस्तान में तालिबान मौजूद हैं, जिन्हें भारत भाग कर आईं अफग़ान बेटियां और औरतें वहशी दरिंदे और पाशविक मान रही हैं। बेटियों की स्थिति क्या है, पूरी दुनिया जानती है। तालिबान को लडक़ी नहीं दोगे, तो पूरे परिवार को मार देंगे। यह धमकी आम है। परिवार विभाजित हो चुके हैं। दिल्ली में ही सैकड़ों अफग़ान बेटियां पढ़ रही हैं और शरणार्थी का जीवन जीने को मज़बूर हैं। जो माताएं अफग़ानिस्तान में फंसी हैं, वे काबुल हवाई अड्डे पर, कंटीली तारों वाली दीवार के पार अपने छोटे-छोटे शिशुओं को अमरीकी या अन्य विदेशी सैनिकों को सौंप रही हैं।
कमोबेश बच्चे तो जि़ंदा रहेंगे! तालिबान तो इतने दरिंदे हैं कि जन्मते शिशु को भी मार देते हैं। कैसी दर्दनाक, क्रूर और विडंबनापूर्ण स्थिति है? जानवर भी बच्चों का इस तरह त्याग नहीं करते, जिस तरह अफग़ान माताओं को करना पड़ रहा है! क्या यही है 'काबुलीवाला' का मौजूदा देश…? एक अनुमान के मुताबिक, करीब 200 ऐसे शिशुओं को अमरीकी सैनिक अपने देश ले गए हैं या ले जा रहे हैं। अफग़ानिस्तान में सरेआम सडक़ों पर अमानुषिक चेहरे घूमते हैं-रॉकेट लॉन्चर, ए.के. 47 राइफल लिए और हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए। वे बिन कारण ही उत्पीडऩ कर रहे हैं और गोलियों से इनसान को भून रहे हैं। काबुल और अ$फगानिस्तान पर अब आतंकियों का कब्जा है। दुर्भाग्य है कि कुछ हिंदुस्तानी उन्हें 'आदरणीय' और 'आज़ादी के लड़ाके' मान रहे हैं। 'काबुलीवाला' के देश में आज न तो कोई हुकूमत है और न ही कोई कानून! तलिबान भी किसी मां-बाप के बच्चे हैं अथवा किसी फॉर्म में उनकी पैदाइश की गई है? यह हैरतभरा सवाल भारत आईं अफग़ान लड़कियां बार-बार पूछ रही हैं। वे तालिबान के इस्लाम और शरिया कानून पर भी सवाल उठाते हुए उसे खारिज कर रही हैं। उनके लिए ये अमानवीय पाप इस्लाम-विरोधी हैं। वे जानना चाहती हैं कि दुनिया के 56 प्रमुख इस्लामी देशों में से सिर्फ पाकिस्तान ने ही तालिबान को समर्थन, मान्यता क्यों दी है? क्योंकि तालिबान उसी की सरज़मीं और पनाहगाहों की एक और आतंकी नस्ल है!
अ$फगानिस्तान में तालिबान हुकूमत आ रही है, लिहाजा नए सिरे से अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा, लश्कर-ए-इस्लाम, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत-उल-अंसार, हक्कानी नेटवर्क, चीन में सक्रिय आतंकी गुट, सीरिया से लौटे दरिंदे, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान आदि आतंकी संगठनों की मौजूदगी महसूस ही जा सकती है। इन आतंकियों और गुटों पर संयुक्त राष्ट्र की पाबंदियां हैं और सुरक्षा परिषद की 'काली सूची' में इनके नाम दर्ज हैं। खलील हक्कानी पर अमरीका ने करीब 37.5 करोड़ रुपए का इनाम भी घोषित कर रखा है। अब नई हुकूमत में हक्कानी का ही चेहरा काबुल और अफग़ानिस्तान की सुरक्षा का प्रभारी बनाया जा सकता है! कितना शर्मनाक विरोधाभास है! दुर्भाग्यपूर्ण है और संयुक्त राष्ट्र के कायदे-कानूनों को सीधी चुनौती देने के आसार हैं! क्या अंतरराष्ट्रीय मंच इसे बर्दाश्त कर सकता है? सुरक्षा परिषद में भारतीय विदेश मंत्री एस.जयशंकर की अध्यक्षता में आतंकवाद पर चर्चा हुई थी कि अ$फगानिस्तान में तालिबान का कब्जा कितनी हद तक दुनिया में आतंकवाद का विस्तार कर सकता है! आतंकी हमले बढ़ सकते हैं! यह आशंका हमारे रक्षा विशेषज्ञों ने भी जताई है। लेकिन विडंबना है कि सुरक्षा परिषद बीते 25 सालों में भी आतंकवाद की परिभाषा तक तय नहीं कर पाई है। तालिबान मानवता के लिए साक्षात् खतरा हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं कर सकता। क्या अब 'काबुलीवाला' के देश से आतंकियों के आगमन का इंतज़ार करें?