कहां गए वे लोग

साहित्य में जो लोग घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे

Update: 2022-05-12 19:18 GMT

साहित्य में जो लोग घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे, पता नहीं आज वे लोग कहां गए! दरअसल वे असली साहित्यकार लोग थे। नाक-नक्शे में तो ये लोग हमारी ही तरह थे, परंतु इनकी मुद्रा गंभीर तथा स्वभाव के ये चिड़चिड़े हुआ करते थे। ये लोग थे तो लेखक ही, परंतु लिखते कम और बोलते ज्यादा थे। लिखने के बाद ये लोग अपनी रचनाओं को बांधकर सोने के पलंग के नीचे रख देते थे। प्रकाशन के लिए उन दिनों लघु पत्रिकाएं निकला करती थीं। ये असली साहित्यकार ही इन्हें निकाला करते थे। घर के जेवर या वेतन से वे इन पत्रिकाओं का अनियतकालिक प्रकाशन जारी रखते थे। इनमें उनके ही जैसे खुरदरे और चिड़चिड़े लोगों की रचनाओं का प्रकाशन हुआ करता था। ये लोग अपने को साहित्य का नियंता व नियामक माना करते थे, साहित्य की नींव इन्हीं पर टिकी हुई थी। वे बड़ी व्यावहारिक पत्रिकाओं में लिखने वाले लेखकों को व्यावसायिक माना करते थे तथा उन्हें हेय दृष्टि से देखा करते थे। जो लोग साहित्यिक लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन किया करते थे, वे संपादक व साहित्यकार दोनों हुआ करते थे। वे सेठों से चंदा भी अपने पत्रों को चलाने के लिए लिया करते थे।

सेठ उन्हें निरीह, असहाय तथा गिरा हुआ समझकर दयाभाव से विज्ञापन रूप में कुछ आर्थिक सहयोग देकर उपकृत कर दिया करते थे। ये अपने लेखन में पूंजीपतियों की धज्जियां उड़ाते तथा सर्वहारा के संघर्ष की बात पर जोर देते थे। इसलिए ये लोग जुझारू रूप में भी जाने गए। सेठ यह जानते हुए भी कि इन लघु-पत्रिकाओं के प्रकाशक उन्हें गालियां देते हैं, उसके बाद भी अपना सहयोग जारी रखते थे। वह इसलिए कि ये पत्रिकाएं केवल कुछ सौ की संख्या में हुआ करती थीं तथा उन्हीं के बहुत छोटे दायरे में मात्र असली साहित्यकारों में ही पढ़ी जाती थीं। आम आदमी तक उनकी पहुंच नहीं थी और यदि वह साहित्य आम आदमी तक पहुंच भी जाता था, तो वह समझ नहीं पाता था। अतः उसकी उपादेयता मात्र लेखक समुदाय के मध्य ही मानी जाती थी। व्यावसायिक लेखक इन पत्रिकाओं को देखकर उस समय हंसा करते थे।
उन्हें हंसता देखकर वे लोग दांत पीसते थे तथा वे उनके कोप के भाजन हो जाया करते थे। वे उनके खिलाफ अपनी लघु-पत्रिकाओं में संपादकीय लिखते तथा व्यावसायिक एवं साहित्यिक लेखन की बांट बनाए रखते थे। इससे उनका एक वर्ग व ग्रुप भी बना रहता था। वे लोग धुन के पक्के तथा इरादों को साकार करने वाले थे। उनके घरों में चाहे खाद्यान्न का संकट हो या बच्चों की हालत विपन्न हो, परंतु वे लोग साहित्य के लिए मर मिटा करते थे। उनमें से कुछ लोग ऐसे भी थे जो कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य करते थे। ये लोग दोहरा लाभ कमाने में कामयाब रहे। प्राध्यापक लेखक वर्ग वाला लेखक खस्ताहाल संपादकों को चढ़ाए रखता था अपनी रचनाओं का प्रकाशन कराता रहता था। इससे उनकी साहित्यिक पहचान बनी रहती थी तथा जीवन संघर्ष में उन्हें कठिनाई का अनुभव भी नहीं होता था। ये लोग चतुर व घाघ थे। संपादकों को उल्लू बनाकर अपनी चर्चा करवाना तथा अपना ही साहित्यिक आकलन कराते रहना, ये उनके चतुरतापूर्ण कार्य थे। निरीह व विपन्न संपादक इनके जाल में उलझा रहकर अपने घर को बरबादी के कगार पर पहुंचाकर भी अपने लघु पत्र का अनियतकालिक प्रकाशन बनाए रखता था। अनेक संपादकों ने अपने भरे-भराए घर को साहित्य के चक्कर में खाली किया, यहां तक कि उन्होंने अपने घर की सारी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न भी कर लिया था। उनके घरों में चूल्हे नहीं जल पाते थे तथा वे लोग इसे साहित्य का संघर्ष मानकर चलाते रहते थे।
पूरन सरमा
स्वतंत्र लेखक

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