कहां गए वे दिन

वे दिन, जब गांव या मोहल्ले के कोई बुजुर्ग राह चलते किसी साइकिल सवार को रोक कर उसे साथ बिठा कर ले चलने का आदेश दे देते थे। आज किसी से निवेदन करते हुए भी डर लगता है कि कहीं वह मना न कर दे।

Update: 2022-09-23 05:37 GMT

संजय दुबे; वे दिन, जब गांव या मोहल्ले के कोई बुजुर्ग राह चलते किसी साइकिल सवार को रोक कर उसे साथ बिठा कर ले चलने का आदेश दे देते थे। आज किसी से निवेदन करते हुए भी डर लगता है कि कहीं वह मना न कर दे। अगर बैठा भी लिया तो दिमाग में यह चलता रहता है कि किसी सही आदमी के साथ बैठे हैं या नहीं! जबकि उस समय ज्यादातर साइकिल वाले खुद ही रोक कर बाबा या चाचा बोल के बैठा लेते थे।

ये मंजर कम से कम आज से बीस साल पहले तक मौजूद रहा। अब यह गांव में तो दिखता ही नहीं है, और शहर तो शहर ही है! आज जब किसी किशोरी को स्कूल जाते समय कुछ लोगों द्वारा अगवा कर लिया जाता है, किसी से छेड़खानी या फिर बलात्कार की खबर आती है, तब भी अपने पुराने दिन याद आते हैं, जब पूरे मोहल्ले के या गांव के लड़के-लड़कियां साथ पैदल या साइकिल से स्कूल जाते थे। सभी के बीच बस एक ही संबंध होता था, भाई और बहन का या फिर एक दूसरे का खयाल रखने का। ऐसे में मजाल था कि कोई उसे छेड़ दें! अगर किसी को किसी से इश्क या प्यार जैसा कुछ महसूस भी होता था तो समाज के वरिष्ठ उसे संभाल लेते थे।

आज के दौर में किसी बच्ची या किशोरी के अपहरण या उससे छेड़खानी या बलात्कार की खबर आती है तो पुराने दौर में कम संसाधनों और तकनीक के बावजूद व्यवस्था के काम करने के तौर-तरीके याद आते हैं। एक घटना की याद आती है, जिसमें एक बार अपने मोहल्ले के कक्षा आठ में पढ़ने वाला छात्र और कक्षा बारह की छात्रा साथ में कालेज गए। उस दिन छात्रा से एकतरफा प्यार के चलते दूसरे मोहल्ले के एक लड़के ने अपने प्यार का इजहार कर दिया।

इसकी सूचना दूसरे दिन कालेज जाते समय सभी लड़के, लड़कियों को पता चली। सबने मिल कर एक तयशुदा कार्यक्रम के तहत उस लड़के की 'खातिरदारी' कर दी। सबसे दिलचस्प बात यह रही कि इस बात को लड़कों या लड़कियों ने अपने घर में किसी को नहीं बताया। हालांकि घर वालों को यह बात पता चल गई। पर किसी के अभिभावक ने इसकी बाबत बच्चों से बात नहीं की, क्योंकि उन्हें लगा था कि बच्चों ने जो किया सही किया है। किशोरवय में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन अगर वह एकतरफा हो या उसके अपराध की ओर जाने की आशंका हो तो उससे उचित तरीके से और वक्त पर निपटना एक जरूरी सामाजिक जिम्मेदारी होती है।

एक दौर था जब राह चलते कोई भी अपने सिर पर बोझ या सामान का गट्ठर उठा कर रख देने या उसमें सहयोग करने को बेहिचक कह देता था। अमूमन हम सब बिना संकोच के ऐसा कर भी देते और हमें अच्छा भी लगता था। बोझ से लेकर छप्पर तक। इन सारे कामों के पीछे कोई स्वार्थ नहीं रहता था, क्योंकि सबको पता था कि जरूरत पड़ने पर अगर हम किसी के काम नहीं आएंगे तो हमारी जरूरत पर भी कोई नहीं आएगा। इसमें एक बात और थी कि आज की तरह अपनेपन का दिखावा नहीं था। लोग फोटो खिंचवाने के लिए मदद नहीं करते थे। आजकल अपनापन दिखाने वाले अचानक बहुत ज्यादा तादाद में मिल जाते है।

प्रशंसा सुनना मनुष्य की खूबी है या कमी? इसे समझना थोड़ा मुश्किल है। यह कभी-कभी व्यक्ति के लिए जहां जरूरी होती है, वहीं कभी-कभी घातक भी। अक्सर प्रशंसा से बढ़िया काम करने वालों के हौसले बढ़ते हैं, वहीं इसके उलट जब कोई काम समाज को तोड़ने, अंधविश्वास बढ़ाने या मूढ़ बनाने के लिए हो, तब इसका निषेध आवश्यक हो जाता है। इन दिनों चाटुकारिता और झूठी प्रशंसा सर्वत्र देखी जा सकती है। यहां इसका इतना प्रभाव पड़ चुका है कि सरकार बदलते ही अफसरों की निष्ठा रातोंरात बदल जाती है तो सामाजिक संगठनों के उद्देश्य भी। सत्ता में बिराजे दल के नेताओं को जो भी पसंद हो, उसी के अनुरूप नौकरशाही काम करने लगती है। ऐसे चलन के चलते सबसे ज्यादा नुकसान कर्मठ लोगों को उठाना पड़ रहा है, क्योंकि उन्हें बिना मतलब किसी के सामने खुशामद नहीं करने नहीं आता।

ऐसा भी नहीं कि इस तरह के अपनेपन के आवरण में लिपटी चालाकी लोगों को पता नहीं चलती। फिर भी कुछ लोग इसे नजरअंदाज कर देते है। इसी बड़प्पन के चलते ऐसे स्वार्थी तत्त्वों का हौसला बढ़ जाता है। वे मान बैठते हैं कि सामने वाला मूर्ख है। उससे जो चाहे, काम करवाया जा सकता है। सहृदयता के साथ निस्वार्थ भाव अभी भी दुर्लभ नहीं है। दुर्लभ है तो व्यक्तिगत धैर्य की सीमा, जिसके चलते सभी को सब कुछ तुरंत चाहिए।

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