जब राजा बने व्यापारी

गुजरात में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि राजा बने व्यापारी तो जनता बने भिखारी

Update: 2022-06-20 13:51 GMT

Dr. Pramod Pathak

by Lagatar News

गुजरात में एक कहावत है जिसका अर्थ है कि राजा बने व्यापारी तो जनता बने भिखारी. अब यह महज इत्तेफाक नहीं है कि यह गुजरात की कहावत है. मगर चलिए उस पर बहुत बहस का कोई अर्थ नहीं. वैसे आज यह एक हकीकत है कि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और बढ़ती महंगाई ने एक अच्छी खासी जमात का मासिक बजट बुरी तरह से बिगाड़ दिया है. और यह उनका हाल है जो तथाकथित मध्यम वर्ग के लोग हैं जो मासिक बजट बनाने की सोच सकते हैं. एक और भी जमात है. रोज कमाने और खाने वाली. उसकी हालत और भी बुरी है. रोजगार के अवसर घट रहे हैं. नौकरियां कम हो गई हैं. छोटे और खुदरा व्यापार दम तोड़ रहे हैं.
बढ़ रही है अरबपतियों की पूंजी : इसका मतलब यह नहीं कि बड़े व्यापार की स्थिति बहुत अच्छी है. हां कुछ अरबपतियों की पूंजी बढ़ रही है. शेष की तो घट ही रही है. मगर जो हमारा सरकारी तंत्र है, वह जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के इर्द-गिर्द घूम रहा है. 5 खरब डॉलर का आंकड़ा छूने की कवायद में 140 करोड़ की आबादी के हितों को नजरांदाज किया जा रहा है. हो सकता है कि जीडीपी 5 खरब डालर तक पहुंच ही जाए. मगर किस कीमत पर. और फिर इस 5 खरब डॉलर का बहुत बड़ा हिस्सा किसके पास जाएगा यह भी सोचने की बात है.
हवाई यात्रा करने वालों को हवाई चप्पल पहनने की नौबत : कभी दावा किया गया था कि ऐसे अच्छे दिन आएंगे कि हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज में घूम पाएगा. मगर स्थिति यह है कि बहुत से हवाई यात्रा करने वालों को हवाई चप्पल पहनने की नौबत आ गई. दरअसल आर्थिक प्रगति का एक नियम होता है. एक व्याकरण भी होता है. आर्थिक प्रगति एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें हम पूर्व की नीतियों की समीक्षा कर उसके द्वारा मिली प्रगति के आधार पर विश्लेषण करते हैं और भविष्य की प्रगति की योजना बनाते हैं. लेकिन पूर्व की नीतियों को खारिज कर भविष्य के निर्माण की सोच बुनियादी तौर पर त्रुटिपूर्ण है.
मात्र सरकारों के बदलने से नहीं बदलती हैं नीतियां : सरकारों का बदलना एक सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और दुनिया के समृद्ध से समृद्ध लोकतंत्र में भी सरकारें बदलती रही हैं. लेकिन वहां पूर्व की नीतियों का आकलन कर उनका लाभ उठाने की कोशिश होती है. परिवर्तन के साथ निरंतरता पर भी ध्यान दिया जाता है. अमेरिका का ही उदाहरण लें. दुनिया का सबसे समृद्ध और मजबूत लोकतंत्र. वहां के लोकतंत्र का इतिहास 250 वर्षों का है. इस लंबे अरसे में कितनी बार सरकारे बदलीं. मगर जो बुनियादी नीतियां हैं, उनको हर सरकार ने अपनाया. चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो. यही कारण है कि अमेरिका अपने विकास के एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाता रहा. यदि हर नई सरकार पिछली सरकार की बनाई गई नीतियों को पलटती रहती तो अमेरिका की प्रगति वैसी नहीं होती जैसी कि हुई.
परिवर्तन के लिए होना चाहिए ठोस तार्किक आधार : राष्ट्र कोई प्रयोगशाला नहीं है कि रोज नए प्रयोग किए जाएं. परिवर्तन जरूरी होते हैं लेकिन उसके पीछे ठोस तार्किक आधार होना चाहिए ना कि यह मानसिकता कि पिछली सरकारों को नीचा दिखाने के लिए उसकी सारी नीतियों को उलट दिया जाए. हम आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं और इस 75 वर्ष वर्ष के अर्से में भारत ने कई सरकारें देखीं और काफी प्रगति भी की. 75 वर्ष पहले की स्थिति में उस समय के हालात को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनी थी. उसमें से कुछ नीतियां आज भी कारगर हैं जो बहुत सोच समझ कर बनाई गई थी. क्या उन सारी नीतियों को बदलने की आवश्यकता है? यही प्रश्न खड़ा करना चाहिए किसी भी नीति को बदलने के पहले. अब अग्नि मित्र के प्रयोग की ही बात करें. क्या यह सामरिक महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है.
सेना को मात्र रोजगार का माध्यम समझना ठीक नहीं: सेना को सामान्य रोजगार सृजन का माध्यम समझना बहुत तार्किक नहीं लगता. पूर्व सेना प्रमुख जनरल रावत ने भी एक बार ऐसा ही कहा था. सेना की जिम्मेदारी की गंभीरता को देखते हुए 4 साल की अवधि वाली बात बहुत दूरदर्शी योजना नहीं लगती. हर नीति गत बदलाव को लागत और लाभ की दृष्टि से देखना उचित नहीं है. बहुत युक्तिसंगत भी नहीं है. कुछ लागत निवेश की दृष्टि से भी देखे जाने चाहिए. हर चीज को नफा नुकसान के पलड़े में नहीं तौला जा सकता.
राष्ट्रहित से भी जुड़ी होनी चाहिए कंसलटेंट की राय : दरअसल आजकल सरकारों में कंसलटेंट यानी तथाकथित विशेषज्ञ की राय को तरजीह देने का चलन है. मगर कंसलटेंट का नजरिया राष्ट्रहित के दूरगामी लाभ को तरजीह दे यह जरूरी नहीं. फिर आजकल ज्यादातर कंसलटेंट तो बहुत बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जिनका अपना अलग लक्ष्य होता है. वह राय बेचते हैं और उस राय की कीमत लेते हैं. मगर क्या उनकी राय राष्ट्रहित के सारे आयामों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं. संभवत: नहीं.
हर चीज व्यापारिक नजरिये क्यों देखती है सरकार : आजकल एक फैशन बन गया है यह कहना कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है. तो फिर सरकार हर चीज को व्यापारिक दृष्टिकोण से क्यों देखती है. कुछ बातें लाभ हानि की परिधि से ऊपर होती हैं. लागत और निवेश में फर्क करना जरूरी होता है. ईस्ट इंडिया कंपनी का दृष्टिकोण अपनाकर हम आधुनिक भारत की नीतियां नहीं बना सकते. कुछ संस्थाएं राष्ट्र के लिहाज से अति महत्वपूर्ण हैं और उनमें किसी भी किस्म की मिलावट की गुंजाइश नहीं है. सेना चयन की प्रक्रिया एक स्थापित विधि है और समय की कसौटी पर खरी उतरी है. हर जगह बदलाव की नीति बहुत तर्कसंगत नहीं होती,यह समझना चाहिए .

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