हम भारत के वासी

Update: 2023-02-13 04:51 GMT

आदित्य चोपड़ा: इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि भारत जितना हिन्दुओं का देश है उतना ही मुसलमानों का भी है। हिन्दू-मुसलमान दोनों इस मुल्क की ताकत रहे हैं और सदियों से रहे हैं। बेशक 1947 में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों के साथ षड्यन्त्र करके मुसलमानों के लिए भारत को तोड़कर अलग से पाकिस्तान बनवा लिया मगर हकीकत यही रहेगी पूरे भारत की आजादी के लिए हिन्दू-मुसलमान दोनों ने ही मिलकर जद्दोजहद की। इस फेर में पड़ने की जरूरत बिल्कुल नहीं है कि भारत में इस्लाम के फैलने के क्या कारण रहे, मगर यह जानने की जरूरत है कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मोहम्मद साहब के जीवन काल में ही सन् 629 में केरल के कोच्चि शहर के निकट मस्जिद का निर्माण हो गया था जिसे चेरामन मस्जिद कहा जाता है। यहां अरब से आये व्यापारियों के एक दल ने मस्जिद का निर्माण कराया था।मजहब के विस्तार के बहुत से कारण हो सकते हैं जिनमें राज्यश्रय से लेकर राजभय तक शामिल हो सकता है मगर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1947 में भारत के आजाद होने से पहले देश में मुसलमानों की कुल आबादी 25 प्रतिशत ही थी। इस 25 प्रतिशत आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में इस हकीकत के बावजूद शामिल तब था जब अंग्रेजों ने 1909 में ही हिन्दू व मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की गरज से मुसलमानों को पृथक निर्वाचन मंडल दे दिया था। ऐसा ही अंग्रेजों ने सिखों को भी अलग करने की नीयत से 1919 में पृथक निर्वाचन मंडल दे दिया था। परन्तु तब भी मुसलमानों की एक दर्जन से अधिक ऐसी संस्थाएं या पार्टियां अथवा तंजीमें थी जो अंग्रेजों के खिलाफ महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन का समर्थन कर रही थीं और उसमें शिरकत भी कर रही थीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण देवबन्द की मुस्लिम धार्मिक संस्था जमीयत उल-उलेमा-ए हिन्द थी जिसका गठन 1919 में ही हुआ था और इसने खिलाफत आन्दोलन में महात्मा गांधी से सहयोग करने की अपील की थी जिसे बापू ने इस वजह से स्वीकार किया था कि खिलाफत आन्दोलन मूलतः अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ ही था। इसके बाद जमीयत ने लगातार आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के साथ संघर्ष किया और मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग की राजनीति का विरोध किया और भारत के बंटवारे का पुरजोर विरोध किया।जमीयत के वर्तमान अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी के पितामह उस समय जमीयत के प्रमुख थे और उन्होंने जिन्ना की पृथक 'मुस्लिम कौमियत' के मुकाबले 'मुत्तैहदा कौमियत' का विमर्श या बयानिया भारत के मुसलमानों को दिया और अपील की कि वे पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करें। इस नजर से देखा जाये तो 1947 में जो मुल्क पाकिस्तान वजूद में आया वह पूरी तरह 'नाजायज' था। क्योंकि भारत के लोगों की कौमियत उनके मजहब से नहीं बल्कि पूरे हिन्दोस्तान में फैले उनके बसेरों से तय होती थी और वे किसी भी मजहब के मानने वाले हो सकते थे। अतः जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के पिछले शुक्रवार को नई दिल्ली में हुए वार्षिक इजलास में इसके अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी का यह ऐलान कि भारत मुसलमानों का भी उतना ही है जितना कि यह हिन्दुओं का। हमें गौर से यह सोचने की जरूरत है कि हिन्दू-मुसलमानों के बीच यदि नफरत का माहौल रहता है तो उससे अन्त में भारत ही कमजोर होता है और देश के विकास में विपरीत असर पड़ता है।संपादकीय :बाल विवाह : असम में बवालइंसान हों या जानवर- आशियाना सबको चाहिएसंसदीय प्रणाली मजबूत रहेब्रिटेन को इस्लामी कट्टरपंथ से खतरागैस पाइपलाइन : अमेरिका-रूस में ठनीराज. का जन- हितकारी बजटभारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हिन्दू-मुसलमान का कहीं कोई भेद नहीं है। इस अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। परन्तु इसके साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि जहनी तौर पर भी हिन्दू व मुसलमान दोनों ही समय के अनुसार विकास करें और मजहबी रूढ़ीवाद व अंध विश्वास से बाहर निकलें तथा वैज्ञानिक सोच को अपनाएं जिसकी ताईद भारत का संविधान करता है। मौलाना महमूद मदनी का यह कहना कि मुसलमान समान नागरिक आचार संहिता के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि इससे उनके संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार प्रभावित होते हैं, एक विरोधाभासी सोच है क्योंकि संविधान की निर्देशिका में ही समान नागरिक आचार संहिता की बात कही गई है मगर यह भी वास्तविकता है कि भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता और अन्तर्विरोधी समाज में इसे लागू करना बहुत मुश्किल व जोखिम भरा काम है। यदि ऐसा न होता तो 2018 में केन्द्र द्वारा गठित इस मुद्दे पर विचार करने के लिए गठित चौहान समिति की रिपोर्ट को सरकार 'सलाह' का नाम न देती।हमारे आदिवासी समाज से लेकर 'जातीय' वर्गों के समाज में ब्याह-शादी से लेकर बहुपत्नी की भिन्न-भिन्न परंपराएं और जातीय कानून हैं। इन रूढि़यों को केवल शिक्षा के प्रसार से ही समाप्त किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में मौलाना मदनी का यह कहना कि सरकार मदरसों के कामकाज में हस्तक्षेप न करें न्यायोचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि शिक्षा के अभाव से मुस्लिम समाज की आज जो आर्थिक बदहाली है वह किसी से छिपी हुई नहीं है। अतः मदरसों को आधुनिक भारत में मजहब की स्वतन्त्रता के नाम पर केवल मजहबी तालीम देने तक सीमित नहीं रखा जा सकता क्योंकि वयस्क होकर प्रत्येक हिन्दू-मुस्लिम नागरिक को भारत के संविधान के अनुसार ही अपने निजी विकास की छूट है। मौलाना मदनी का यह कहना समोयचित है कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम शुरू होने चाहिए मगर मजहबी शिक्षा पाने के लिए पंथनिरपेक्ष भारत में 'घर' ही सबसे बेहतर जगह हो सकती है। क्योंकि भारत के संविधान में धार्मिक स्वतन्त्रता व्यक्तिगत आधार पर ही दी गई है। यही नियम हिन्दुओं पर भी लागू होता है।



क्रेडिट : punjabkesari.com

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