हमें और खासकर मुस्लिम समाज को यह सवाल पूछना होगा कि हिजाब जरूरी है या पढ़ाई?

जिस परिधान यानी हिजाब-बुर्के के पीछे पितृसत्तात्मक मानसिकता काम कर रही है

Update: 2022-02-15 06:16 GMT
आमना बेगम अंसारी। हमें और खासकर मुस्लिम समाज को यह सवाल पूछना होगा कि हिजाब जरूरी है या पढ़ाई? ऐसे सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि कर्नाटक का मामला असल में मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है। बेहतर हो कि आज हम महात्मा गांधी के इस कथन का स्मरण करें कि 'मुस्लिम महिलाओं को पर्दे की गुलामी से बचाना चाहिए। .. अगर आधी आबादी एक खराब प्रथा की वजह से से पंगु बनी रहती है तो हम कभी भी स्वतंत्र और महान होने की आकांक्षा कैसे कर सकते हैं?'
(माई डेज विद गांधी-निर्मल कुमार घोष, पृष्ठ संख्या 140) कर्नाटक के उडुपी जिले में उपजे हिजाब विवाद ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चर्चा का रूप ले लिया है। इसके पक्ष-विपक्ष में कई तरह के तर्क रखे जा रहे हैं। हिजाब की पैरवी करने वालों की ओर से यहां तक कहा जा रहा है कि हिजाब-बुर्का आदि पहनना मुस्लिम महिलाओं का मौलिक अधिकार है और विद्यालयों में स्कूली यूनिफार्म पहनने को कहना मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार है। एक पार्टी ने तो यह नारा देकर हद ही कर दी कि-हिजाब नहीं तो पढ़ाई नहीं। महाराष्ट्र में ऐसे पोस्टर नजर आए, जिनमें लिखा था, पहले हिजाब-फिर किताब।
इस सारे विवाद में हम भूल गए कि इसके मूल में क्या है? महिलाओं को अपनी पहचान छिपानी चाहिए और इसके लिए हिजाब-बुर्का पहनना चाहिए, इस तरह का सोच आखिर किस प्रकार से महिलाओं के हित में है? वास्तव में इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर गहन विचार होना चाहिए था, लेकिन हमारे लिबरल तबके ने अपनी विचारधारा को धता बताकर हिजाब को पसंद के अधिकार से जोड़ दिया। उन्होंने ऐसा करते समय इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि हिजाब को च्वाइस का मसला बनाकर वे अपनी ही विचारधारा के उलट जाकर मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहे हैं।
जिस परिधान यानी हिजाब-बुर्के के पीछे पितृसत्तात्मक मानसिकता काम कर रही है, उसे महिलाओं के अधिकारों के रूप में प्रचारित करने से दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। बात केवल इस दुर्भाग्यपूर्ण चिंतन की ही नहीं है। हम यह भी देख रहे हैं कि यह अफवाह फैलाई जा रही है कि भारत में हिजाब-बुर्के पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जा रही है। यह दुष्प्रचार कुछ बाहरी ताकतों की ओर से भी किया जा रहा है, जबकि सच्चाई यह है कि केवल इतना कहा जा रहा है कि स्कूल का जो ड्रेस कोड है, वह सभी छात्र-छात्रओं पर लागू होता है और उसका पालन सभी को करना चाहिए। अगर कर्नाटक की छात्रओं के लिए हिजाब इतना ही जरूरी है तो जब 2019 में केरल मुस्लिम एजुकेशन सोसायटी ने अपने करीब डेढ़ सौ शिक्षा संस्थानों में बुर्के को प्रतिबंधित किया, तब वहां यह मुद्दा क्यों नहीं बना था? जाहिर है कि इसीलिए कि वहां इस तरह का नैरेटिव काम नहीं आता कि मुस्लिम समाज पर जुल्म हो रहा है।
हमें और खासकर मुस्लिम समाज को हिजाब-बुर्के के मामले में सवाल पूछने ही होंगे? ये सवाल ही हमें यह समझने में मदद करेंगे कि दरअसल मामला मुस्लिम महिलाओं के हक का नहीं, बल्कि उसकी आड़ में उन्हें पर्दे में रखने और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का है। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जो लोग महिला अधिकार की बातें करते हैं और इन दिनों कुछ ज्यादा ही कर रहे हैं, क्या उन्हें वास्तव में मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं के हितों की चिंता है?
यह याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तानी मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को सबसे बड़ा धक्का उस दिन लगा था, जिस दिन शाहबानो प्रकरण में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड कोई सरकारी-संवैधानिक संगठन नहीं, बल्कि महज एक गैर सरकारी संगठन है।
शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जिस तरह पलटा गया, उससे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई कमजोर पड़ी और शायद इसी कारण तीन तलाक की कुरीति से छुटकारा पाने में 70 साल से अधिक का समय लग गया। इस कुरीति को खत्म करने के बाद भी मुस्लिम महिलाओं को अभी भी अन्य समुदाओं की महिलाओं जैसे कानूनी अधिकार नहीं मिले हैं। इस समुदाय में सामाजिक बदलाव भी अभी दूर की बात हैं। हिंदू कोड बिल के जरिये तमाम सुधारों से हमारी हिंदू बहनों के अधिकारों की रक्षा हुई। जहां अन्य समुदायों में सामाजिक सुधारों का सिलसिला कायम है, वहीं मुस्लिम समाज का नेतृत्व धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में अपनी महिलाओं के अधिकारों का हनन करने में लगा हुआ है। बहु-विवाह, हलाला जैसी अमानवीय प्रथाएं जारी हैं। इसी तरह अन्य अनेक कुरीतियों और महिला विरोधी पुरानी पंरपराओं से भी मुस्लिम महिलाएं जकड़ी हुई हैं।
हिंदुस्तानी होने के नाते हमें अपनी मुस्लिम महिलाओं की वास्तविक समस्याओं के समाधान के बारे में सोचना चाहिए, न कि उन पर हिजाब थोपने और उन्हें बुर्के में कैद करने की कोशिश करनी चाहिए। फिलहाल यही हो रहा है। यह याद रखना चाहिए कि जब तक मुस्लिम महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बनी रहेंगी, तब तक मुस्लिम समाज कभी भी तरक्की नहीं कर पाएगा।
जब हम समस्याओं के हल के बारे में विचार करते हैं तो दो तरीके समझ आते हैं। या तो सभी पर्सनल ला कोडिफाइड हों या फिर बिना किसी भेदभाव के सभी समुदायों को समान नागरिक संहिता के दायरे में लाया जाए। एक महिला के तौर पर मुङो लगता है कि भारत की सभी महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए समान नागरिक संहिता का निर्माण मील का पत्थर साबित हो सकता है। चूंकि यह संहिता सार्वभौमिक नागरिक अधिकारों पर आधारित होगी, इसलिए सभी को उसका समर्थन करना चाहिए। इससे ही उन लोगों को हतोत्साहित किया जा सकता है, जो मुस्लिम समाज की महिलाओं को पर्दे में रखने और उनकी हैसियत दोयम दर्जे की बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं।
(लेखिका सिटिजंस फाउंडेशन फार पालिसी साल्यूशंस में रिसर्च एसोसिएट हैं)
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