निरर्थक व्यय
भारतीय जन प्रतिनिधित्व कानून में व्याप्त खामियों को कई बार दूर करने की निर्वाचन आयोग की चेष्टा नक्कारखाने में तूती की आवाज सिद्ध हुई है।
Written by जनसत्ता; भारतीय जन प्रतिनिधित्व कानून में व्याप्त खामियों को कई बार दूर करने की निर्वाचन आयोग की चेष्टा नक्कारखाने में तूती की आवाज सिद्ध हुई है। इसने भारत सरकार को जब जब देशहित में इसके जटिल प्रावधानों को हटाकर तर्कसंगत सुझाव प्रस्तुत किए, उसमें से अधिकांश आज भी कानून मंत्रालय की संदूक में दम तोड़ रहे हैं। बीते सप्ताह भारतीय निर्वाचन आयोग ने बीस साल पुराने लागू अपने प्रस्ताव में भारत सरकार से परिवर्तन का आग्रह करके नई बहस को जन्म दे दिया है।
निर्वाचन आयोग ने अपने नए प्रस्ताव में सरकार से यह अपेक्षा की है कि चुनावी जटिलता और खर्चे को देखते हुए विधानसभा और लोकसभा के प्रत्याशी को किसी एक ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने का कानून पास किया जाए। आयोग ने यह भी विकल्प सुझाया है कि अगर ऐसा संभव न हो तो उन उम्मीदवारों पर भारी जुर्माना लगाया जाए जो दो जगह से चुनाव जीतने के बाद एक क्षेत्र से त्यागपत्र देकर दुबारा उपचुनाव कराने की परिस्थिति उत्पन्न कर देते हैं। ऐसा होने से पुन: सरकारी तंत्र को चुनाव कार्य में लगाने की अनिवार्यता से प्रशासन के मूल जनहित के कार्य शिथिल रहते हैं और सरकारी कोष से भारी राशि व्यय करनी पड़ता है।
2004 में भी निर्वाचन आयोग ने इस प्रकार के संशोधन हेतु प्रयास किया था, किंतु सरकार की निष्क्रियता के कारण यह फलित नहीं हो सका। हम अवगत हैं कि लोकसभा या विधानसभा के किसी निर्वाचन क्षेत्र में उपचुनाव में करोड़ों रुपए निरर्थक व्यय होते हैं, जो देश के आम करदाताओं की गाढ़ी कमाई का हिस्सा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कानून मंत्रालय निर्वाचन आयोग के इस सकारात्मक सुझाव पर गंभीरतापूर्वक विचार कर कानून में संशोधन करेगा। संसद को भी बिना पूर्वाग्रह के ऐसे प्रस्तावों को पारित करने की दिशा में रचनात्मक रुख रखना चाहिए। संसद में जनता के प्रतिनिधि को जनता के हितार्थ वैसे सभी लंबित मसलों को बारी-बारी से सुधार कर लोकतंत्र की गरिमा में और वृद्धि के प्रकल्प ढूंढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए।
रविवार को भारतीय सेना के तीनों प्रमुखों ने केंद्र की अग्निपथ योजना को लेकर एक संयुक्त प्रेस बैठक की। यहां तक तो ठीक है। मगर उनका यह कहना कि इस योजना को किसी भी कीमत पर वापस नहीं लिया जाएगा। यह भाषा एक पेशेवर सेना के अधिकारी के मुख से सुन कर कुछ अटपटा लगा। अमूमन देखा गया है कि सेना के लोग राजनीतिक भाषा का प्रयोग नहीं करते। मगर रविवार की प्रेस वार्ता से लग रहा था कि तीनों सेना प्रमुख सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता हैं। सरकारी योजना का प्रचार कर रहे हैं। क्यों पुरानी भर्ती प्रक्रिया को खत्म किया जा रहा है? क्यों जवानों को मिलने वाली ग्रेचुटी, मेडिकल, पेंशन आदि भत्तों को खत्म किया जा रहा है? अगर इन सुविधाओं को खत्म ही करना था तो जनप्रतिनिधियों से इसकी शुरुआत होनी चाहिए थी।
देश का बेरोजगार समझ गया है कि रोजी देना इस सरकार के बूते की बात नहीं है। पहले भी अपने गलत फैसलों पर यह सकरकार पलटी मार चुकी है। मसलन भूमि अधिग्रहण कानून, यूनिवर्सिटी फैकल्टी आरक्षण पर '13-पाइंट रोस्टर' कानून तथा अभी अभी चंद माह पूर्व कृषि कानून को भी इस सरकार ने वापस लिया था। इसलिए अग्निपथ को भी वापस ले लेना चाहिए।