सुरेश सेठ: इस बात पर खुशी प्रकट की जा सकती है कि जिस देश के हम गुलाम रहे, उसे पछाड़ कर हमने दुनिया में पांचवां दर्जा हासिल कर लिया और बहुत जल्दी आशावादी भविष्यदर्शियों के अनुसार हम दुनिया में तीसरे नंबर की आर्थिक ताकत होने जा रहे हैं।
स्वाधीनता के शतकीय उत्सव की ओर चलते पुण्य पथ पर कदम ऐसे बढ़ाए जाएं, ताकि जब यह महोत्सव हो, तो लोगों के पेट में रियायती रोटी नहीं, अपनी मेहनत की कमाई होगी और आम जिंदगी फुटपाथों और अंधेरी बस्तियों का सहारा लेने के बजाय कबूलसूरत रहने का आसरा ढूंढ़ सकेगी। लेकिन आज की जिंदगी जो एक ही मील पत्थर के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही है, कब तक और कितने दिन तक यों ही जीती रहेगी? इस सवाल के जवाब में सही उत्तर नहीं, केवल दिलासा मिला है। दिलासा देने वाले चेहरे अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनका अंदाज एक जैसा।
भूखा आदमी रोटी के लिए तरस गया, मिला तो इस शस्य-श्यामला धरती पर जीने के गर्व का आशीर्वाद मिला। उसने न जाने कितने सपने देखे थे! ऊसर रेगिस्तान में हरीतिमा बिछा देने के सपने, पहाड़ काट कर सड़कें बना देने के सपने, नदियों की धारा बदल कर आपका घर-द्वार और भूमि नहला देने के सपने या..। लेकिन पहाड़ कटे तो बादल फटे। उनका घर-द्वार, पशु, मालमत्ता सब कुछ उसमें बह गया।
कितने सपने देखते हुए, बाढ़ अचानक आई, वे बाढ़ में लुप्त हो गए। उस इलाके के मूल निवासी अब परेशान और बदहाल हैं हाथों में तख्तियां लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं कि नहीं, पहाड़ों का और आधुनिकीकरण नहीं चाहिए। यह बादलों का सीना चीर कर उन्हें फटने के लिए मजबूर कर देता है। यह कैसा पर्यटन विकास है कि पहाड़ काट कर सड़कें बनार्इं और उससे अचानक और असाधारण बाढ़ प्रकट हुई और नई पुरानी सब सड़कें बहा ले गई। नए पर्यटकों को वहां कौन अपनी बाहों में समेटे, यहां तो अपनों के लिए भी सांस भरना मुहाल हो गया। तरक्की की दुहाई देने वालों ने बताया कि विकास करना है तो यह सब तो झेलना ही पड़ेगा।
क्या-क्या झेलें हम? क्या सिर्फ सपना देखने की इतनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है? सोचा था सदियों पुरानी खेती करने की समझ बदल देंगे। बागवानी करेंगे, सेबों के बगीचे लगाएंगे, खेती नहीं, जैविक खेती करेंगे। जीवन का कायाकल्प करने के लिए नए किसान कानून बने हैं। देश जीवन निर्वाह खेती के दुश्चक्र से निकलेगा। निजीकरण, व्यावसायीकरण और ठेका क्रांति की कृपा से अभावग्रस्त लोगों के वारे-न्यारे हो जाएंगे।
लेकिन मौसम अभिशाप हो गया। जब कहो, 'काले मेघा पानी दे' तब तो पानी बरसा नहीं और उसे अलविदा कहने का वक्त आया तो इतना बरसा कि सेब चकत्तेदार और निर्बल काया के पैदा होने लगे। जिन देशों का कभी नाम नहीं सुना था, उनके फलों ने हमारे बगीचावानों को छका दिया और अपनी उपज ठेकेदार तोल कर नहीं, कुल उपज का कौड़ी दाम लगाते नजर आए। यहां कुछ नहीं बदलता।
पहले फसलें उगती थीं, सूदखोर महाजनों के आशीर्वाद से जो अपने ऋण बोझ की कृपा से औने-पौने दाम इन खड़ी फसलों का सौदा कर जाते थे। अब तरक्की हुई, फसल मंडी में लाए, तो यहां निजी घरानों के मुंशी-दलाल ठेका संदेश ले आया। किसान में इंतजार की क्षमता नहीं थी। पहले भी चोरी-चुपके इन्हीं की झोली में गिरती थी, अब यही कानूनसम्मत और खुलेआम हो गया। हम अपने दिल की बात किसे बताएं? इस देश का आम आदमी कभी कह नहीं पाता और बदलाव के नारों, कोलाहल और तरक्की के दावों के बीच उसके 'स्वामीनाथन' का नाम डूब जाता है। अब उसे चुकाया जाता है दिन-रात सरपट भागती लागत का विचार करके नहीं, किताबी गुणकों के आधार पर।
कितनी तरक्की के आंकड़े उसके जी का जंजाल हो गए हैं। एक दिन कह दिया था कि इस भ्रष्टाचारी समाज पर कुठाराघात करेंगे… तेरी जेब में पड़े सब नोट गैरकानूनी हो गए। एक हजार के नोट से काला धन जोड़ते थे, इसे बंद करके दो हजार का नोट चला दिया। नतीजा आया, भ्रष्ट समाज कुछ और भ्रष्ट हो गया। लेकिन उन आंकड़ों को नहीं सुनना है, जो अपनी सच्चाई से और उदास कर दें।
कहा गया कि महामारी की दूसरी दमघोंटू लहर में देश के अलग-अलग राज्यों में एक भी आदमी आक्सीजन की कमी से नहीं मरा। महामारी टीकाकरण अभियान में इस देश ने विश्व के रिकार्ड तोड़ दिए। लोगों में ऐसी प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई कि अब महामारी की नई लहर में लोग पहले से बीमार तो अधिक पड़ेंगे, लेकिन मरेंगे कम। सरकारी अस्पतालों तक जाने की नौबत नहीं आएगी, क्योंकि इस बार निजी अस्पताल ही अपूर्व सेवाभाव से सब संभाल लेंगे। इसीलिए हमारा विश्वास सार्वजनिक क्षेत्र से उठने लगा और उसकी जगह तारणहार बन रहा है निजी क्षेत्र। तो अब इसी निजी क्षेत्र पर भरोसा करना होगा और आगे बढ़ने का सपना देखना होगा।
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