वास्तव में जब भी कोई बाहरी ताकत किसी अन्य पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहती है तो वह सबसे पहले स्थानीय लोगों के मन में यह भाव भरती है कि वे हीन हैैं। अंग्रेजों ने भी यही सिद्ध करने की कोशिश की, जिसमें वे सफल भी रहे। इसके लिए उन्होंने विभिन्न तरीके अपनाए। उन्होंने चुन-चुनकर हमारा ध्यान हमारी बुराइयों की ओर आकर्षित किया। इस कारण बहुत से लोगों ने उनके प्रभाव में आकर ईसाइयत एवं उसके तौर-तरीकों को अपना लिया, जबकि सच यह है कि उनके समाज में भी ढेरों कुप्रथाएं थीं, जिन्हें लेकर वहां के समाज सुधारकों ने 14वीं सदी से लेकर 16वीं सदी तक विभिन्न आंदोलन चलाए। उस संपूर्ण काल को यूरोप में पुनर्जागरण काल कहा जाता है। ठीक इसी तरह 13वीं सदी के आरंभ में मुस्लिम आक्रांताओं ने (चाहे वे अरब हों या तुर्क या मंगोल) जब भारत पर आक्रमण करके अपना साम्राज्य स्थापित किया तो उन्होंने भी हमारी उन्नत सभ्यता को नकारा। उन्होंने हमारे शिक्षा केंद्रों, पुस्तकालयों और मंदिरों को तहस-नहस किया। उन्होंने अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए विभिन्न तरीकों से देश की संस्कृति को नष्ट किया। उन्होंने लाखों लोगों का नरसंहार किया, उन्हें जबरदस्ती गुलाम बनाया, उनका जबरन मत परिवर्तित किया। इस पूरे काल का इतिहास भी इन आक्रमणकारियों के इतिहासकारों ने ही लिखा, जो अधिकांशत: उनके दरबारी इतिहासकार थे। इसलिए उन्होंने जो कुछ भी लिखा, उसमें सत्यता का अंश बहुत कम था या सत्यता से बहुत दूर था।
स्वयं सल्तनतकालीन इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि उसे सत्य लिखना चाहिए था, किंतु वह सुल्तानों के विरुद्ध लिखने का साहस नहीं कर सकता। इससे हम आसानी से समझ सकते हैं कि अन्य इतिहासकारों ने भी कितना सच लिखा होगा। जैसे मुगलकाल में कुछ अवधि और अपवादों को छोड़कर हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया, वैसे ही ब्रिटिश काल में अंग्रेेेज या यूरोपीय लोगों को विशेषाधिकार मिले हुए थे। ऐसे में उन्होंने भी जो कुछ लिखा, वह अपनी सहूलियत एवं जरूरत के हिसाब से लिखा। तुर्कों, मुगलों की तरह अंग्रेजों ने भी अपने आपको श्रेष्ठ माना और बाकी सभी को अपने से कमतर। उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, शिक्षा आदि को हम पर जबरन थोपा।
यह सच है कि इतिहास को बदला नहीं जा सकता, किंतु उससे सीखा अवश्य जा सकता है। इसके साथ ही इतिहास से यह सबक भी लिया जा सकता है कि जो गलतियां हमारे पूर्वजों ने कीं, उनकी पुनरावृत्ति न हो या भविष्य में उन गलतियों से बचा जा सके, परंतु ऐसा लगता है कि हमने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा। इटली के मशहूर विद्वान मैकियावली ने कहा था कि 'यदि कोई व्यक्ति यह जानना चाहता है कि भविष्य में क्या होने वाला है, तो उसे इस बात पर विचार करना चाहिए कि अतीत में क्या हो चुका है?' यहां मुश्किल यह है कि आजादी के बाद हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने भी छद्म पंथनिरपेक्षता के चक्कर में पड़कर भारतीय इतिहास का नाश कर दिया। इसलिए सबसे पहले भारतीयों को अपने इतिहास एवं संस्कृति को ठीक से समझना होगा, जिससे सभी देशवासी अतीत में हुई गलतियों को समझकर भविष्य को सुधारा जा सके।
भारतीय संस्कृति ने संपूर्ण विश्व को शांति एवं समरसता का संदेश दिया है। उसने 'सर्वे भवंतु सुखिन:' का सिद्धांत देने के साथ 'वसुधैव कुटुंबकम' का संदेश दिया। कभी यह नहीं कहा कि सत्यता केवल उसके ही धर्म में है, अन्य धर्मों में नहीं, बल्कि यह कहा कि 'एकम सत विप्र: बहुधा वदंति' यानी सच या ईश्वर एक ही है, विभिन्न लोग उसे विभिन्न नामों से बुलाते हैं। भारत में हमेशा मानवता को प्रमुखता दी गई है। यदि इस संस्कृति के बारे में देश के युवाओं को बताया जाता है तो इससे क्यों किसी को आपत्ति होनी चाहिए?
मैकाले के जरिये अंग्रेजों ने दो काम किए। एक तो शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखा और दूसरे, शिक्षा को चुनिंदा लोगों तक सीमित रखा। अंग्रेज शासकों का उद्देश्य सबको शिक्षा देना नहीं था। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में वेंकैैया नायडू ने यह कहा कि शिक्षा न सिर्फ सभी के लिए उपलब्ध हो, बल्कि उसका माध्यम वह हो, जिसमें वह अच्छी तरह समझी जा सके। वह यह भी कह रहे हैं कि स्थानीय भाषा में भी शिक्षा उपलब्ध कराई जाए, जिससे सभी देशवासियों का शिक्षा के द्वारा सर्वांगीण विकास हो। कुल मिलाकर यदि हम चाहते हैं कि देश में सामाजिक समरसता एवं सद्भाव का वातावरण हो तो इसके लिए जरूरी है कि देश की शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण किया जाए। युवा पीढ़ी को न सिर्फ भारतीय संस्कृति से परिचित कराया जाए, बल्कि उसे भारतीय इतिहास की सही जानकारी भी उपलब्ध कराई जाए।