'बांग्ला इतिहासेर संबंधे एकटी कोथा में बंकिम चंद्र ने लिखा, 'मुग़लों की विजय के बाद बंगाल की दौलत बंगाल में न रहकर दिल्ली ले जाई गई। लेकिन प्रतिष्ठित इतिहासकार केएन पणिक्कर के मुताबिक़ 'बंकिम चंद्र के साहित्य में मुस्लिम शासकों के खिलाफ कुछ टिप्पणियों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि बंकिम मुस्लिम विरोधी थे। आनंदमठ एक साहित्यिक रचना है। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में हैं, वहीं शेष पद बांग्ला भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा इस गीत को स्वरबद्ध किया गया था। पहली बार इस गीत को 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। 1905 में यह राजनीतिक सक्रियता और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक लोकप्रिय मार्चिंग गीत बन गया, जो इस तरह से है : वंदे मातरम् वंदे मातरम्, सुजलां सुफलाम् मलयज शीतलाम् शस्य श्यामलाम् मातरम्, शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् सुखदां वरदां मातरम्॥ 1॥ इसका अर्थ है कि मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूं, ओ माता! पानी से सींची, फलों से भरी, दक्षिण की वायु के साथ शांत, कटाई की फसलों के साथ गहरी, माता! उसकी रातें चांदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं, उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है, हंसी की मिठास, वाणी की मिठास, माता! वरदान देने वाली, आनंद देने वाली। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। बाद में रविंद्र नाथ टैगोर ने उसे 1896 के कांग्रेस अधिवेशन में गाया था। बंकिम चंद्र चटर्जी ने जब इस गीत की रचना की थी, तब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और उस दौरान हर समारोह में 'गॉड सेव द क्वीन गीत गाया जाता था। भारतीयों को यह नागवार गुजरता था। बंकिम चंद्र चटर्जी ने आहत होकर इस गीत की रचना की और उसका शीर्षक 'वंदे मातरम् दिया।
भारत के राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के ऐतिहासिक और समकालीन भारत में महत्त्व के बारे में जानना जरूरी है। देशभक्ति के इस गीत को भारत के राष्ट्रीय गीत के बजाय एक गीत के रूप में देखें। वंदे मातरम् की रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। इससे पहले कि उन्होंने अपना मैग्नम ओपसए आनंदमठ लिखा था। उन्होंने तब उपन्यास में कविता को शामिल किया। बंकिम चंद्र ने गीत लिखते समय बंगाल की प्राकृतिक सुंदरता से प्रेरित था। गीत में वह मां दुर्गा को सर्वोच्च देवी के रूप में देखती हैं। उपन्यास आनंदमठ 1763-1800 के संन्यासी विद्रोह की ऐतिहासिक घटना के बारे में है और इसलिए यह गीत देशभक्ति के आधार पर पूरी तरह से फिट बैठता है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और मुख्य रूप से बंगाल के विभाजन के दौरान इस गीत ने लोकप्रियता और एक राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त किया। यह रवींद्रनाथ टैगोर थे जिन्होंने गीत को एक धुन दी और राष्ट्रवादी और देशभक्त भावनाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में इसे लोकप्रिय बनाया। 1896 में कलकत्ता में नेशनल कांग्रेस असेंबली के सत्र में पहली बार वंदे मातरम् गाया गया था। यह तथ्य कि यह स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपने प्राणों का बलिदान देने वाले शहीदों को भी गौरवान्वित करता है, इसने इसे राष्ट्रीय गीत के लिए उपयुक्त विकल्प बना दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 को वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी। इस गीत में हर उपमा एक निराला छंद है। वह हमें शब्द और उसके अर्थ की दुनिया के पार ले जाता है। या कहें ले जा सकता है, अगर हम जाना चाहें।
जैसा कि प्रो. रामचंद्र गांधी, जो महात्मा गांधी के पौत्र के रूप में ज्यादा जाने जाते हैं, ने एक अंतरंग बातचीत में कहा था कि बाकी गीत का सौंदर्य अपना है, पर उसके शुरू के दो शब्द 'वंदे मातरम् ही अपने आप में संपूर्ण काव्य हैं, जैसे 'सत्यमेव जयते है। उनका आशय लय से था, जो कविता की धड़कन होती है। वंदे मातरम् में संस्कृत और बांग्ला का मिला-जुला प्रयोग अपने में एक खूबी है। भारतीय भाषाओं के जानकार उसे पकड़ सकते हैं। अंग्रेजी में श्री अरविंद के कुशल अनुवाद के बावजूद शब्द-समूहों की खनक उसमें नहीं आती। वंदे मातरम् में काव्य के साथ अनूठी सांगीतिकता है। उसे कई रूपों में संगीतबद्ध किया जा सकता है। रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एआर रहमान तक इसके उदाहरण हमारे सामने हैं। रवींद्रनाथ ने गीत का सिर्फ पहला अंतरा संगीतबद्ध किया था। वह राग देस में था। वास्तव में वंदे मातरम् सिर्फ राष्ट्रीय गीत ही नहीं बल्कि राष्ट्रवाद की एक पवित्र अभिव्यक्ति है जिसे धर्म विशेष से न जोड़ते हुए राष्ट्र आत्मा के प्रतिरूप में परिभाषित किया जाना होगा।
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डा. वरिंदर भाटिया
कालेज प्रिंसीपल