शिखा ने गर्मी झेली है, बरसात झेली है और अब ठंड से निपटने की तैयारी कर रही है। हाल के किसान आंदोलन और इरोम शर्मीला के 16 वर्षों के लंबे उपवास के बाद शायद एक महिला द्वारा अपनी मांग को लेकर शिखा पाल का अपनी तरह का अकेला जुझारू प्रदर्शन है। उत्तर प्रदेश सरकार का एक दूसरा विज्ञापन है जो दावा करता है कि सरकार ने साढ़े चार लाख लोगों को रोजगार दिया है जिसमें डेढ़ लाख महिलाएं हैं। किंतु 30000 अनुदेशक व 69000 कम्प्यूटर प्रशिक्षक, जो सरकारी विद्यालयों में रुपए 7000 के मासिक मानदेय पर काम करते हैं, नियमितीकरण की मांग कर रहे हैं। शारीरिक शिक्षा के 32022 व उर्दू के 4000 शिक्षक, जिनको पिछली सरकार ने रखा था, की भर्तियों पर वर्तमान सरकार ने रोक लगा रखी है। 12800 विशेष बीटीसी व 12400 बीटीसी, यह कहते हुए कि यदि सरकार को उन्हें रखना नहीं था तो उन्हें प्रशिक्षण क्यों दिया गया, अपनी नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हैं। इस प्रकार नौकरियों के इंतजार में अथवा अपनी सेवा शर्तों से असंतुष्ट लोगों की संख्या साढ़े चार लाख से कहीं ज्यादा है। साफ है कि तस्वीर उतनी गुलाबी नहीं जितनी उत्तर प्रदेश सरकार के विज्ञापनों में नजर आती है। बल्कि स्थिति काफी विस्फोटक है क्योंकि शिखा पाल पानी की टंकी पर चढ़ी हुई हैं और दूसरे असंतुष्ट भी अपना धैर्य खो रहे हैं। बेरोजगारी की समस्या का मूल कारण है जबसे हमारी सरकार ने निजीकरण व उदारीकरण की आर्थिक नीति अपनाई है, नियमित नौकरियों के पद कम किए जा रहे हैं, जो बहुत जरूरी नहीं हैं, वे पद खत्म किए जा रहे हैं, नियमित पदों को संविदाकर्मियों से भरा जा रहा है अथवा नौकरियां ठेके पर दी जा रही हैं।
इससे रोजगार की संख्या व गुणवत्ता दोनों पर असर पड़ा है, जबकि युवा जनसंख्या बढ़ी है, शिक्षा का स्तर बढ़ा है, कुछ क्षेत्रों जैसे पुलिस भर्ती में, जिनमें पहले महिला अभ्यर्थी नहीं होती थीं, अब महिलाओं ने भी दावेदारी की है। रोजगार का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, किंतु जीने का अधिकार है और बिना रोजगार के सम्मानपूर्वक जी पाना मुश्किल है। भारत का मेहनतकश, खासकर असंगठित क्षेत्र में, न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करता है और साफ तौर पर गरीबी, कुपोषण व रोग से पीडि़त है। शिक्षित बेरोजगार की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। कुछ अपवाद छोड़, जिन्हें अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियां मिल जाती हैं, ज्यादातर बहुत कम वेतन पर अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता कर जीते हैं और किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सेवा क्षेत्र अकार्यकुशलता व भ्रष्टाचार का शिकार है। यहां तक कि शिक्षा की प्रक्रिया को ही भ्रष्ट बना दिया गया है। भारत की बेरोजगारी अथवा अर्द्धबेरोजगारी की समस्या का हल यह है कि रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया जाए। अमीर-गरीब के अंतर को कम करना पड़ेगा। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारा एक पूंजीपति मुकेश अंबानी तो दुनिया के दस सबसे अमीर लोगों में शामिल हो जाए और आधी आबादी इतनी गरीबी में जीने को मजबूर हो कि अपने बच्चों का कुपोषण भी दूर न कर सके। डा. राममनोहर लोहिया का सिद्धांत कि अमीर-गरीब की आय का फर्क दस गुणा से ज्यादा नहीं हो, को लागू किया जाना चाहिए। सरकार को लोगों की रोटी, कपड़ा व मकान की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
लेकिन सरकारी नीतियों की विडंबना यह है कि इसके पहले कि लोग अपने बच्चों को ठीक से खिला-पिला पाएं, उनके हाथ में मोबाइल फोन आ जाता है जो हमारी दूसरे दर्जे की दूरसंचार की जरूरत को पूरा करता है। आखिर ऐसी स्थिति क्यों आती है कि एक तरफ बेरोजगारी है तो दूसरी तरफ विद्यालय व अस्पताल में कर्मियों की कमी है? किसी भी सरकारी विद्यालय का दौरा कर लिया जाए तो पता चल जाएगा कि शिक्षकों की कमी है। किसी सरकारी अस्पताल चले जाएं तो वहां अस्पताल की इलाज करने की क्षमता से ज्यादा मरीज नजर आएंगे। तो सरकार को और कर्मियों को काम पर रखने से कौन रोक रहा है जिससे उसके संस्थान तो ठीक तरीके से संचालित हों? बिना इसके प्रगति संभव नहीं है, विश्वगुरू बनना तो दूर की बात है। यह साफ है कि सरकार ने अपनी दोषपूर्ण नीतियों, जैसे निजीकरण-उदारीकरण की, से खुद के लिए समस्या खड़ी कर ली है और राजनीतिक दलों में नई नीतियों को अपनाने की इच्छा शक्ति नहीं रही जिससे पूरी व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन लाए जा सकें। उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के 2015 व 2018 के दो फैसले हैं जिनमें कहा गया है कि सरकारी वेतन पाने वाले अपने बच्चों को सरकारी विद्यालय में पढ़ाएं व अपना व अपने परिवार का इलाज सरकारी अस्पताल में कराएं, लेकिन उत्तर प्रदेश की कोई भी सरकार इन्हें लागू करने को तैयार नहीं है। इस तरह भारत में बेरोजगारी की समस्या विकराल है, जिसे सुलझाने के प्रयास करने होंगे।
-(सप्रेस)
संदीप पांडेय
स्वतंत्र लेखक