उत्तराखंड: कैसे आपदा प्रतिरोध में सक्षम बनेगा
ऐसे में जरूरी है कि राजनीतिक बयानबाजी के बजाय जमीनी स्तर पर ठोस कार्रवाई हो।
विगत 13 अक्तूबर, 2021 को अंतरराष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दिवस पर डिजास्टर रेजीलियंट उत्तराखंड यानी आपदा प्रतिरोध में सक्षम उत्तराखंड विषय पर राज्य सरकार ने एक संगोष्ठी आयोजित की। निश्चित रूप से इसमें कई तरह की सिफारिशें की गई होंगी। लेकिन सिर्फ चार दिन बाद ही राज्य में अतिवृष्टि के चलते भारी क्षति को टालने में असमर्थ आपदा तंत्र और प्रशासन की स्थितियों ने ऐसी संगोष्ठी की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया।
जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आपदाग्रस्त क्षेत्रों का हवाई दौरा किया था, तो उन्होंने कहा था कि केंद्र ने अतिवृष्टि संभावित आपदा की चेतावनी राज्य को 36 घंटे पहले ही दे दी थी। इतने घंटों की अग्रिम चेतावनियों में तो भारत के ही कई राज्यों में चक्रवाती तूफानों से भारी क्षतियों को टाला गया है।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन तंत्र को बताना चाहिए कि 36 घंटे पहले चेतावनी मिलने के बाद उसने जोखिम वाले क्षेत्रों से कितने लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया था? किन जोखिम स्थलों पर बचाव दल मुस्तैद थे? क्या भूस्खलन से ग्रस्त व संभावित क्षेत्रों की विशेष निगरानी शुरू हुई थी? सुरंगों पर सुरक्षात्मक उपाय किए गए थे? आपदाओं में पुल-पुलिया अक्सर क्षतिग्रस्त होती हैं। क्या ऐसे पुलों पर रेड अलर्ट के बाद निगरानी बढ़ाई गई थीं?आपदा प्रबंधन के सामान्य सिद्धांत के अनुसार, आपदाग्रस्त क्षेत्र में सबसे पहले स्थानीय जन पहुंचते हैं, इसलिए आपदा प्रबंधन रणनीति बनाने में जनता को शामिल किया जाना चाहिए। किंतु आज भी जनहित की अवहेलना करते हुए गैर कानूनी ढंग से सड़क निर्माण का मलबा नदियों या खेतों में डाला जाता है। सड़क या सुरंग बनाने के लिए बारूदी विस्फोट किया जाता है।
लोगों को भरोसे में लिए बगैर मनमाने ढंग से बांध-जलाशयों के गेट खोले व बंद किए जाते हैं। इससे डूब क्षेत्रों में लोग निरंतर भयभीत रहते हैं। ऐसे में जनता आपदा प्रबंधन के सूक्ष्म नियोजन में कैसे बराबरी की भागीदार हो सकेगी? स्थानीय स्तर के ज्ञान, तकनीकों व घटनाओं के दस्तावेजीकरण व सामयिक उपयोग करने से भविष्य की आपदाओं से बचाव व राहत में मदद मिल सकती है।
समय की मांग है कि राज्य प्रशासन अब एक साथ कई आपदाओं के लिए तैयार रहे। भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने, ग्लेशियर पिघलने से जनित आपदाएं एवं जंगल की आग में से कोई भी दो-तीन आपदाएं एक साथ अलग-अलग क्षेत्रों में आ सकती हैं। ऐसे में जरूरी है कि राजनीतिक बयानबाजी के बजाय जमीनी स्तर पर ठोस कार्रवाई हो।