Uttar Pradesh : जब खुद मुख्यमंत्री को कहना पड़े कि समय से दफ्तर आना होगा तो समझिए अफसर कितने बेअंदाज हो गए हैं

गुड गवर्नेंस के लिए जरूरी है जवाबदेही

Update: 2022-04-13 11:45 GMT
रंजीब |  
एक जमाना था जब मिलीजुली सरकारों और आया राम, गया राम की राजनीति से उपजी अस्थिरता को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के विकास में सबसे बड़ी बाधा माना जाता था. अब हालात ऐसे नहीं रहे. बीते करीब डेढ़ दशक से उत्तर प्रदेश में जनता ने स्थिर सरकारें बनाई हैं. 2007 के चुनाव से लेकर हाल में हुए 2022 के चुनाव तक जनता ने बेबाकी के साथ किसी एक दल को बहुमत दिया है. इतना ही नहीं 2022 में तो जनता ने योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के नेतृत्व में 5 साल राज कर चुकी बीजेपी (BJP) की सरकार को दोबारा मौका देकर करीब साढ़े तीन दशक दशक बाद फिर ऐसा कर दिखाया है. यानि अस्थिर सरकारें अब यूपी में विकास की राह का रोड़ा नहीं रहीं. तो क्या मान लिया जाए कि अब उत्तर प्रदेश में विकास की बयार बहने लगी है और यह सिलसिला लगातार दोबारा चुनकर आई सरकार के शासनकाल में और रफ्तार पकड़ेगी? ऐसा होना आसान नहीं लगता.
योगी आदित्यनाथ सरकार 2.0 के शुरुआती दिनों को देखें तो इसके संकेत मिल रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी दूसरी पारी को पहले की तुलना में कहीं ज्यादा पेशेवर गवर्नेंस के तौर-तरीकों से चलाना चाहते हैं. इस लक्ष्य को अमलीजामा पहनाने के लिए जो प्रयास हो रहे हैं उनसे साफ है कि उत्तर प्रदेश में विकास की राह में सियासत या सरकारों का स्थिर या अस्थिर होना सबसे प्रमुख पैमाना नहीं है. बल्कि सबसे बड़ा पैमाना उत्तर प्रदेश में अच्छी कार्य संस्कृति यानी वर्क कल्चर का नहीं होना है.
मंत्रियों के छापे में खुली पोल
मुख्यमंत्री योगी का 12 अप्रैल को अपने अफसरों की टीम के साथ बैठक में यह कहना कि वे सुनिश्चित करें कि अधिकारी और कर्मचारी तय समय पर दफ्तर आएं और जाएं और साथ ही लंच की अवधि को आधे घंटे से ज्यादा ना करें, यह बताता है कि यदि खुद मुख्यमंत्री को समय पर दफ्तर आने और बेवजह लंच के ब्रेक को न खींचने की नसीहत देनी पड़े तो यह समझा जाना चाहिए कि सरकार की योजनाओं को अमल में लाने वालों की कार्य संस्कृति कतई अच्छी नहीं है.
सरकार के मुखिया की यह अकेली फिक्र नहीं है. ऐसे दर्जनों वाकये हो चुके हैं जो बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में सरकारी तंत्र को सामान्य रूप से काम करने की आदत कम है. मसलन वर्तमान सरकार में उपमुख्यमंत्री एवं स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक जब लखनऊ के सबसे नामी सरकारी अस्पताल केजीएमयू का औचक निरीक्षण करने पहुंचे तो उन्हें दर्जनों खामियां मिलीं. मंत्री को सार्वजनिक रूप से फटकार लगानी पड़ी और कहना पड़ा कि यह रवैया न बदला तो कड़ी कार्रवाई होगी. ऐसा ही अनुभव कई अन्य मंत्रियों को भी अपने संबंधित विभागों का औचक निरीक्षण करने पर हो चुका है.
यहां उस घटना का उल्लेख करना भी जरूरी है जिसमें मुख्यमंत्री द्वारा नई सरकार बनने के बाद फिर से जनता दर्शन कार्यक्रम शुरू करने पर कुछ मामले ऐसे भी सामने आए इनसे पता चला कि यह पिछली सरकार के कार्यकाल में भी अपनी फरियाद लेकर आ चुके हैं और इसका निपटारा उनके संबंधित जनपद में होना था जो हो नहीं पाया. लिहाजा वे फिर लखनऊ पहुंचे. यदि दूरदराज के जिलों से भी लोगों को अपनी समस्याओं की सुनवाई कराने के लिए खुद मुख्यमंत्री के पास पहुंच ना पड़े तो इससे ही समझ सकते हैं कि सरकार के इरादों और उसे अंजाम तक पहुंचाने वाले तंत्र की सोच में कितना बड़ा अंतर है.
विभागवार 100 दिन का एजेंडा बनाने का आदेश
वर्तमान सरकार को पेशेवर तरीके से चलाने के लिए मुख्यमंत्री ने विभागवार 100 दिन का एजेंडा बनाने और उन्हें सेक्टर में बांट कर प्रोफेशनल तरीके से काम करते हुए समयबद्ध तरीके से लक्ष्य हासिल करने का निर्देश दिया है. केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार में भी विभागवार समयबद्ध तरीके से लक्ष्य तय कर उन्हें हासिल करने की व्यवस्था के तहत काम होता है जिसमें नियमित रूप से प्रगति की समीक्षा भी की जाती है और एक तय अंतराल के बाद खुद प्रधानमंत्री विभागों के कार्यों की प्रगति की समीक्षा करते हैं.
उत्तर प्रदेश में भी योगी आदित्यनाथ सरकार 2.0 में बेहतर कार्य संस्कृति बनाने का जोर है. 100 दिन का एजेंडा उसी दिशा में एक कदम है. सिद्धांत रूप से यह रणनीति निश्चय ही उत्तर प्रदेश के लिए बहुत जरूरी है लेकिन जिस अफसरशाही और सरकारी तंत्र को इसे जमीन पर उतारना है उसके काम करने के तौर-तरीके गए 5 साल में भी नहीं बदले.
इतना ही नहीं दोबारा से उसी पार्टी की सरकार बनने और मुख्यमंत्री भी पूर्व का ही होने के बावजूद इसे इस सरकारी तंत्र का बेपरवाह और बेखौफ होना ही तो माना जाएगा, वरना मंत्रियों के दौरे और औचक निरीक्षण में इतनी खामियां क्यों मिल रही हैं भला? इतना ही नहीं क्या यह शर्मनाक नहीं है कि खुद सरकार के मुखिया को अपने अफसरों की कोर टीम की बैठक में यह कहना पड़े कि दफ्तर समय से आने की आदत डालनी चाहिए.
काम में कोताही करने वालों को बख्शा नहीं जा रहा
यहां ध्यान रखना होगा कि दोबारा सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री ने कड़े तेवर दिखाते हुए एक आईएएस अफसर वह एक आईपीएस अफसर को भ्रष्टाचार और काम में कोताही के कारण सस्पेंड भी किया है. कुछ अन्य अफसरों पर भी कार्रवाई हुई है. इसके बावजूद सरकारी तंत्र अपने ढर्रे को बदलता हुआ नहीं लग रहा. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश ही वह राज्य है जहां 90 के दशक में महाभ्रष्ट आईएएस अधिकारी चुनने की मुहिम तक हो चुकी है और बाकायदा महाभ्रष्ट अफसरों की सूची भी जारी हुई थी. हालांकि उसे लेकर बहुत विवाद हुआ लेकिन यह सच है कि जनता की यह आम शिकायत रहती है कि सरकारी दफ्तरों में काम व्यवस्था के तहत तो होता ही नहीं अलबत्ता रिश्वत की मांग करने वाले भी बहुतेरे मिल जाते हैं.
यही कार्य संस्कृति बदलना योगी आदित्यनाथ की दोबारा चुनकर आई सरकार की सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी. इसमें शक नहीं कि दोबारा बनी सरकार को पेशेवर तरीके से चलाने में मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी कोई गुरेज नहीं कर रहे और केंद्रीय नेतृत्व का भी इसमें भरपूर समर्थन मिल रहा है लेकिन यह इतना आसान होगा इसमें संदेह की बहुत गुंजाइश है.
यही वजह है कि उत्तर प्रदेश को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने कि लक्ष्य को लेकर चल रही वर्तमान सरकार के लिए इसे हासिल करने की राह में वर्तमान वर्क कल्चर ही सबसे बड़ा रोड़ा है. विकास के लक्ष्य सही दिशा में हैं और यदि उन्हें सही तरीके से धरातल पर उतारा जाए तो उत्तर प्रदेश को एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लक्ष्य में कामयाबी मिलना बड़ी बात नहीं. बशर्ते अफसरशाही के एक बड़े वर्ग के स्तर पर व्याप्त शिथिलता और भ्रष्टाचार को पूरी तरीके से नियंत्रित किया जा सके.
गुड गवर्नेंस के लिए जरूरी है जवाबदेही
गुड गवर्नेंस के बिना काम नहीं बन सकता है और इसके लिए जरूरी है कि जवाबदेही हो, पारदर्शिता हो और मितव्ययिता हो. सरकारी खजाने की मजबूती यानी राजकोषीय दृढ़ता बनाए रखना बेहद जरूरी है और यह तभी संभव है जब ऊपर के तीनों पैमानों पर शासन व्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करें. ढीले राज्य की अवधारणा से उत्तर प्रदेश के सरकारी तंत्र को बाहर लाना ही बड़े लक्ष्यों को हासिल करने की सबसे जरूरी शर्त है. सरकारों की स्थिरता के दौर में भी यदि ऐसा ना हो सका तो यह उत्तर प्रदेश के लिए बड़ा दुर्भाग्य होगा.
वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर ए.पी. तिवारी भी मानते हैं कि सरकार के लक्ष्य बेहद महत्वाकांक्षी हैं और प्रदेश की बेहतरी के लिए भी हैं. राजनीतिक प्रतिबद्धता भी दिखाई दे रही है लेकिन इसमें कामयाबी पाने के लिए अफसरशाही और कर्मचारी वर्ग को सही रास्ते पर लाना होगा. वरना लक्ष्य को हासिल करने में बड़ी मुश्किलें खड़ी होंगी.
प्रोफेसर तिवारी कहते हैं, "1 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य हासिल हो सकता है क्योंकि पोटेंशियल है और पॉलिटिकल कमिटमेंट भी है लेकिन कमी नौकरशाही एवं कर्मचारियों से पर्याप्त समर्थन मिलने के मामले में होती है. एग्जीक्यूटिव का सपोर्ट नहीं मिलता है. यदि खुद मुख्यमंत्री को यह कहना पड़ रहा है कि समय से दफ्तर आना चाहिए तो इससे पता चलता है कि सिस्टम में कहीं कुछ बड़ी कमी है और इसको ठीक करना जरूरी है. उसके बगैर सरकार द्वारा तय किए गए उत्साह से लबरेज लक्ष्यों को हासिल करना बहुत मुश्किल काम होगा। यूपी की ब्यूरोक्रेसी बहुत ताकतवर है और वह जल्दी अपनी बनी बनाई व्यवस्था को बदलने नहीं देना चाहती। किसी भी सरकार के लिए यह बहुत आसान हालत नहीं होते."
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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