उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: मुस्लिमों का 'स्ट्रेटजिक शिफ्ट' और वोटों का समीकरण

मुस्लिमों का ‘स्ट्रेटजिक शिफ्ट’ और वोटों का समीकरण

Update: 2022-02-04 12:50 GMT

संजय सिंह

मुसलमानों की 'स्ट्रेटजिक वोटिंग' (रणनीतिक मतदान) एक लंबे समय से चर्चा का विषय रही है। पिछले कुछ दशकों में जब से बीजेपी केन्द्र व राज्यों में सत्ता के लिए चुनावी मुकाबलों में मुख्य प्रतियोगी के रूप में सामने आई है, तबसे ये चलन में आ गया है।
यूपी विधानसभा चुनावों में इस बार एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है और वो ये कि मुस्लिम समुदाय द्वारा स्ट्रेटजिक वोटिंग अब बीते दौर की बात हो गई है। अब दौर 'स्ट्रेटजिक शिफ्ट' यानी रणनीतिक बदलाव का है। एक खास तरह का तरीका पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साफ नजर आने लगा है, जहां 10 फरवरी को चुनाव होना है और यही तरीका बाकी प्रदेश में दोहराया जाना तय मानिए।
पश्चिमी यूपी के गाजियाबाद, लोनी, बागपत, शामली, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर और अमरोहा आदि इलाकों के दौरे पर इन इलाकों के मुस्लिम समुदाय के लोगों से बात करने के बाद एकदम स्पष्ट तौर पर ये इशारा मिलता है कि 'स्ट्रेटजिक शिफ्ट' को लेकर उनके विचार और उद्देश्य एकदम स्पष्ट हैं, जोकि राजनीतिक रूप से बेहद चुनौतीपूर्ण माने जा रहे इन चुनावों में जारी है।
क्या है आखिर मुस्लिम वोटर्स का मूड?
मुस्लिम समुदाय का इरादा अब किसी खास उम्मीदवार या खास पार्टी को पहले की तरह वोट देने का कतई नहीं है, बल्कि सपा, बसपा, एआईएमआईएम अथवा कांग्रेस, जिस किसी भी पार्टी का उम्मीदवार उस विधानसभा सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार के खिलाफ मजबूती से चुनौती दे सकता है, वोट उसी को जाएगा। लेकिन मोटे तौर पर मुस्लिम समुदाय ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और उनके गठबंधन सहयोगियों को स्वीकार कर लिया है, जिसे वो 'समाजवादी गठबंधन' कहते हैं।
दरअसल, ये उत्तर प्रदेश में ही अनोखा नहीं हुआ है। ये तरकीब पिछले साल पश्चिम बंगाल के चुनावों में ही सोची व कामयाबी से आजमाई गई थी, जब मुस्लिम समुदाय के सभी वोट मोटे तौर पर ममता बनर्जी को मिले थे। जबकि फुरफुरा शरीफ के एक प्रभावशाली मौलाना और आईएसएफ के मुखिया पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ समझौते के बाद तमाम शोर शराबे के बावजूद कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों को इन चुनावों में मुंह की खाने के लिए छोड़ दिया गया।
"इस बार मुस्लिम वोट इकट्ठा अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और उसकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) को जा रहा है। पिछली बार की तरह नहीं, जब अमरोहा जैसे जिलों में मुस्लिम वोट सपा, बसपा और कांग्रेस में बंट जाता था, इस बार मुस्लिम समुदाय के अंदर कोई संदेह या भ्रम नहीं है, पूरे यूपी में समाजवादी पार्टी और इसके गठबंधन को ही वोट देना है। आप इसे पश्चिम बंगाल प्रभाव कह सकते हैं"।
शुजा एक और बात कहते हैं जो बीजेपी के लिए सबक हो सकती है-
"इस बात से कोई इनकार नहीं है कि केन्द्र की सभी कल्याणकारी योजनाओं, या हाउसिंग स्कीम्स, या शौचालय या बिजली कनेक्शंस या फिर आजकल उदारता से बांटा जा रहा मुफ्त राशन, उनका यहां ईमानदारी से और समान वितरण हुआ है। अगर बीजेपी मुस्लिम समुदाय से संवाद बनाने में कुछ बेहतर चेहरों को सामने रखती और उनके साथ लगातार बातचीत जारी रखती तो उसके पास अगले कई दशकों तक देश में राज करने की क्षमता होती। आखिर कब तक मुस्लिम समुदाय और सबसे ताकतवर राष्ट्रीय राजनीतिक दल (बीजेपी) एक दूसरे से दुश्मनों की तरह व्यवहार करते रह सकते हैं"।
सीटों और टिकट का समीकरण
एक और दिलचस्प पहलू है। दरअसल, पिछले चुनावों के मुकाबले समाजवादी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या कम हो गई है। लेकिन ये एक समस्या नहीं है, कहा जा रहा है कि ये काफी सोच-समझकर लिए गए फैसले का हिस्सा है। अब तक सपा का ये चलन रहा था कि वो अमरोहा जिले की चार में से तीन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को मौका देती थी, लेकिन इस बार के चुनावों में ऐसा नहीं किया है।
मुजफ्फरनगर में भी 6 विधानसभा सीटों में से ज्यादातर विधानसभा सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार ही सपा के होते थे, लेकिन इस बार ऐसा नहीं किया गया है। ये हैरान करने वाला है, लेकिन इससे कोई मुश्किल उन्हें नहीं होने जा रही है। मुस्लिम समुदाय इससे नाराज नहीं है बल्कि इसे 'बेहतर चुनावी रणनीति' माना जा रहा है।
"मोदी की बोटी-बोटी" वाले बयान से चर्चा में आए मशहूर मुस्लिम नेता इमरान मसूद, जो हाल ही में कांग्रेस छोड़कर सपा में आ चुके हैं, को सपा ने टिकट नहीं दिया है। उनके समर्थक कह रहे हैं कि इमरान लोकसभा चुनाव लड़ेंगे, वह कभी विधानसभा सीट तो चाहते ही नहीं थे। कदील राणा और अमीर आलम जैसे प्रभावशाली नेताओं को भी मुजफ्फरनगर में नजरअंदाज कर दिया गया है।
पेशे से वकील शहनाज हैदर बताते हैं-
अखिलेश यादव के करीबी नेता जावेद आब्दी जो अमरोहा की नौगावां सादात सीट से दो बार चुनाव लड़ चुके हैं, को भी इस बार टिकट से मना कर दिया गया है। उनकी जगह पहले हसनपुर के पूर्व विधायक कमाल अख्तर को टिकट देने का ऐलान किया गया, लेकिन बहुत जल्द उनको भी बदलने का ऐलान हुआ, और समरपाल सिंह को यहां से सपा प्रत्याशी बनाया गया, जबकि अख्तर को मुरादाबाद की एक विधानसभा में भेजा गया। एक मुस्लिम बाहुल्य इलाके में हिंदू प्रत्याशी को उतारना, सपा में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।
मुस्लिम समुदाय के विभिन्न तबकों से चुनाव में बीजेपी के खिलाफ समाजवादी पार्टी और आरएलडी गठबंधन के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं।
बड़ौत में एक कार मैकेनिक रहमान कहते हैं-
"सपा का गठबंधन ही इकलौता विकल्प है। अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाना है"। ऐसी ही भावनाएं बागपत में हाजी उस्मान, शामली में किसान अरशद फरीदी और सहारनपुर में एक व्यापारी राणा अल्ताफ ने व्यक्त कीं। समझ लीजिए कि मिजाज क्या है, ये सूची बढ़ती जाएगी।
मुस्लिम समुदाय के बुजुर्गों ने ये भी तय किया है कि, "कोई भी समुदाय से ना तो कोई भड़काऊ बयान देगा और ना ही किसी भी तरह के उकसावे पर आक्रामक तरीके से प्रतिक्रिया ही देगा"। उनको डर है कि कहीं अप्रत्यक्ष रुप से कोई भी आक्रामक रवैया कहीं साम्प्रदायिक रंग ना ले ले, जिसके चलते हिंदू वोटों का बीजेपी के पक्ष में एकतरफा ध्रुवीकरण ना हो जाए।
कुछ लोग यूपी चुनाव में मुस्लिम वोटों के इस तरह इकट्ठा होने को पश्चिम बंगाल के समानांतर बताते हैं। लेकिन वो भूल जाते हैं कि हर चुनाव का अपना एक अलग गणित और गति है और अखिलेश यादव ममता बनर्जी नहीं है, कम से कम अभी तक तो नहीं।
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