उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: अयोध्या के बाद अब मथुरा का मुद्दा क्यों उठा रही भाजपा?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ऐन पहले भाजपा ने ठंडे बस्ते में पड़ा मथुरा की कृष्ण जन्म भूमि का मुद्दा जिस तरह से उछाला

Update: 2021-12-03 06:19 GMT
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ऐन पहले भाजपा ने ठंडे बस्ते में पड़ा मथुरा की कृष्ण जन्म भूमि का मुद्दा जिस तरह से उछाला है, उसके दो संदेश साफ हैं। पहला तो पार्टी आगामी चुनाव में भी साम्प्रदायिकता के अपने आजमाए हुए पिच पर फिर खेलने जा रही है, दूसरे, भाजपा का यह कमजोर आत्मविश्वास है कि वह योगी राज में सुशासन और विकास जैसे मुद्दों के भरोसे चुनाव जीत पाएगी। वरना अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर विहिप हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार ने पिछले साल साफ कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता भव्य राम मंदिर का निर्माण है।
अर्थात् बाकी मुद्दे अभी गौण हैं। लेकिन सवा साल बाद ही यूपी के उपमुख्यमंत्री और भाजपा में विहिप से आए केशव प्रसाद मौर्य ने हाल में ट्वीट कर नई राजनीतिक सनसनी पैदा कर दी कि 'अयोध्या काशी में भव्य निर्माण जारी, मथुरा की तैयारी।' यह सिर्फ संयोग नहीं है कि काशी में विश्वनाथ कॉरिडोर का शुभारंभ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 13 दिसंबर को करने जा रहे हैं।
मथुरा मुद्दे की राजनीतिक पड़ताल से पहले अयोध्या में बाबरी ध्वंस के समय देश भर में गूंजे नारे को याद करें, वो था- 'अयोध्या पहली झांकी है, मथुरा काशी बाकी है।'लिहाजा अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हिंदुओंके पक्ष में आने के बाद अब मथुरा विवाद की चुनाव में सियासी लहरें उठाने की तैयारी हो चुकी है। यह मामला भी मथुरा जिला सिविल कोर्ट में चल रहा है।
क्या है आखिर मामला?
दरअसल, कोर्ट में श्रीकृष्ण विराजमान की याचिका में 13.37 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक की मांग की गई है। याचिका में आधा दर्जन भक्तों ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच 1968 में हुए समझौते को अवैध बताते हुए उसे निरस्त करने और मस्जिद को हटाकर पूरी जमीन मंदिर ट्रस्ट को सौंपने की मांग की है।
श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान ( पूर्व मे सेवा संघ) और शाही ईदगाह मस्जिद के बीच हुए समझौते के मुताबिक तय हुआ था कि मस्जिद जितनी जमीन पर बनी है, बनी रहेगी। अब श्रीकृष्ण सेवा संस्थान का कहना है कि जिस जमीन पर मस्जिद बनी है, वह श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट के नाम पर है और शाही ईदगाह ट्रस्ट ने मुसलमानों की मदद से श्रीकृष्ण से सम्बन्धित जन्मभूमि पर कब्जा कर ईश्वर के स्थान पर एक ढांचे का निर्माण कर दिया।
संस्थान के अनुसार भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण का जन्मस्थान उसी ढांचे के नीचे स्थित है। कहा जाता है कि औरंगजेब ने 1669 में श्रीकृष्ण मंदिर ध्वस्त कर उसकी जगह ईदगाह का निर्माण करा दिया था।
यह भी मान्यता है कि कुल देवता के रूप में भगवान श्रीकृष्ण का पहला मंदिर श्रीकृष्ण के पड़पोते वज्रनाभ ने बनवाया था। लेकिन इस पूरे प्रकरण में कानूनी पेंच वर्ष 1991 में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा पारित धार्मिक आराधना अधिनियम है।
इसके मुताबिक 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी के समय धार्मिक स्थलों का जो स्वरूप था, उसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन उस एक्ट से केवल अयोध्या में श्रीराम जन्म भूमि को अलग रखा गया था। इसका अर्थ यह है कि तब तक कृष्ण जन्म भूमि का विवाद नए सिरे से नहीं उठा था।
बेशक, नारे के बतौर यह मुद्दा जरूर रहा है, लेकिन चुनावों में कभी कोर इश्यु नहीं बना। तो अब ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुद्दे को फिर से जिलाने की जरूरत पड़ गई।
इसके चार कारण दिखते हैं-
पहला तो किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की हालत पतली होना। यह इलाका ब्रजमंडल भी कहलाता है। इसी को जाट लैंड के रूप में भी जाता है, क्योंकि यहां जाट बड़ी संख्या में रहते हैं और किसान आंदोलन में उनकी अहम भूमिका रही है।
दूसरे, ब्रजमंडल में भगवान राम के बजाए श्रीकृष्ण का ज्यादा महत्व रहा है। यहां लोग अभिवादन के रूप में भी 'जय श्रीराम' के बजाए 'जय श्रीकृष्ण' ज्यादा बोलते हैं। भाजपा को लगता है कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा उठाने से किसानों में मोदी-योगी सरकार के प्रति नाराजी कम होगी और वो वापस हिंदू छतरी में लौट आएंगे।
तीसरे, इस मुददे को उठाने से सरकार के लिए नकारात्मक साबित होने वाले दूसरे मुद्दे दब जाएंगे।
चौथे, भगवान कृष्ण उस यादव समाज के मुख्य आराध्य हैं, जिनकी संख्या यूपी में कुल ओबीसी आबादी का करीब 9 फीसदी है। यादव मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी के साथ जुड़े हैं। भाजपा को लगता है कि श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा उठाने से यादव वोटो में भी सेंध लगाई जा सकती है।
गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की बंपर जीत का कारण यह था कि उसे गैर यादव वोटरों ने भारी समर्थन दिया था। इस बार पार्टी को भरोसा नहीं है कि गैर यादव पहले की तरह भाजपा के साथ खड़े रहेंगे।
अगर यादव भाजपा की तरफ खिंचे तो समाजवादी पार्टी को नुकसान होगा, जो इस चुनाव में सत्ता की दूसरी बड़ी दावेदार पार्टी है। योगी आदित्यनाथ के रूप में अगड़ी जाति के संन्यासी को मुख्यमंत्री बनाने से पिछड़ो में असंतोष पहले से है। हालांकि इस पर मरहम लगाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी कैबिनेट में 28 ओबीसी नेताओं को जगह दी है।
भाजपा को यह दांव इसलिए भी चलना पड़ा है, क्योंकि ब्राह्मण वोट इस बार भी उसके साथ रहेगा, इसका यकीन नहीं है। भाजपा की चिंता इसलिए भी है कि यूपी में ओबीसी मतदाता लोकसभा चुनाव में तो मुख्य रूप से भाजपा को वोट देते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में वो अलग-अलग जातियों में बंटकर वोट करते हैं।
अगर सपा ओबीसी के साथ-साथ मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा अपने साथ ले गई तो भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सकती है। हालांकि यह इतना आसान नहीं है।
ओबीसी वोट गोलबंद करने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जातिगत जनगणना के मुद्दे को फिर हवा दे दी है, जबकि भाजपा इस मुद्दे पर अपनी मुट्ठी बंधी हुई ही रखना चाहती है।
भगवान कृष्ण की शिक्षाओं में से एक यह भी है कि वक्त के हिसाब से अपनी रणनीति बदलो। लगता है भाजपा ने इसी को ध्यान में रखकर राम जन्म भूमि मुद्दे को श्रीकृष्ण जन्म भूमि मुद्दे से रिप्लेस करने का काम शुरू कर दिया है, लेकिन क्या यह मुद्दा राम जन्म भूमि की तरह आंदोलित कर पाएगा, इसका जवाब आने वाले वक्त में मिलेगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
 
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