Uttar Pradesh Assembly Elections 2022: पसमांदा कार्ड के सहारे मुस्लिम वोटों में सेंध लगाना चाहती है बीजेपी
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में बीजेपी ने मुस्लिम वोट (Muslim Vote) हासिल करने के लिए एक ख़ास रणनीति तैयार की है
यूसुफ़ अंसारी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में बीजेपी ने मुस्लिम वोट (Muslim Vote) हासिल करने के लिए एक ख़ास रणनीति तैयार की है. इस पर वह ख़ामोशी से काम भी कर रही है. दरअसल बीजेपी की नज़र मुस्लिम समाज के सबसे बड़े हिस्से यानि सामाजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों पर है. भारतीय राजनीति में इन्हें पसमांदा मुसलमान कहा जाता है. आज़ादी के बाद कांग्रेस से लेकर यूपी में एसपी और बीएसपी तक ने पसमांदा मुसलमानों (Pasmanda Muslim) की अनदेखी की है. लिहाज़ा इस बार बीजेपी पसमांदा कार्ड खेलकर मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है.
दरअसल बीजेपी के एजेंडे पर पसमांदा मुसलमान 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले से हैं. 2013 में बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के पहले नरेंद्र मोदी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की एक बैठक में पसमांदा मुसलमानों को साथ लेकर चलने का मुद्दा उठाया था. लेकिन तब बीजेपी कट्टर हिंदुत्व के मुद्दे पर चलना चाहती थी. लिहाजा इस मुद्दे को छोड़ दिया गया. 2017 में यूपी के विधानसभा चुनाव में भी यही हालात थे. इस मुद्दे को बीजेपी ने नहीं उठाया. लेकिन 7 साल केंद्र में और 5 साल यूपी में सरकार चलाने के बाद अब बीजेपी को लगता है कि पसमांदा मुसलमानों से सहानुभूति दिखाकर मुस्लिम समाज के इस बड़े हिस्से को पार्टी के साथ जोड़ा जा सकता है. लिहाज़ा यूपी विधानसभा चुनाव में पसमांदा कार्ड के ज़रिए मुस्लिम समाज में घुसपैठ करने की रणनीति बनाई गई है.
कौन हैं पसमांदा मुसलमान
'पसमांदा' फारसी का शब्द है. ये दो शब्दों से मिलकर बना है 'पस' या पीछे और 'मांदा' यानि छूट जाना. इस तरह विकास की दौड़ में पीछे छूट गए मुसलमानों को ही पसमांदा मुसलमान कहा जाता है. लिहाज़ा मुस्लिम समाज में पिछड़े वर्ग में आने वाल मुसलमानों को ही राजनीतिक भषा में पसमांदा मुसलमान कहा जाता है. मुस्लिम समाज में क़रीब 80 प्रतिशत मुसलमान पसमांदा यानि पिछड़े हैं. लेकिन राजनीति में इनका प्रतिनिधित्व न के बराबर है. ये कालांतर में हिंदू पिछड़ी और दलित जातियों से धर्मांतरण करके मुसलमान बने हैं. बाकी 20 प्रतिशत मुसलमान अलग-अलग समय में अरब देशों और मध्य एशिया से आए हुए मुसलमानों के वंशज हैं. ये ख़ुद को बेहतर मुसलमान मानते हैं. सदियों से सत्ता के करीब रहने की वजह से ये आर्थिक रूप से मज़बूत हैं. आज़ादी के बाद से सभी राजनीतिक दलों में इन्हीं का वर्चस्व रहा है.
पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की सहमति
बीजेपी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि पसमांदा मुसलमानों को साथ लेकर चलने की रणनीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की भी पूरी सहमति है. बीजेपी के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा ने बाक़ायदा एक ब्लू प्रिंट तैयार करके उत्तर प्रदेश में पसमांदा मुसलमानों को साधने की योजना बनाई है. इसी ब्लूप्रिंट पर उत्तर प्रदेश बीजेपी के चुनावी रणनीतिकार काम कर रहे हैं. 9 अक्टूबर को लखनऊ में बीजेपी के प्रदेश संगठन के प्रभारी सुनील बंसल के नेतृत्व में हुई अहम बैठक में पसमांदा मुसलमानों को साधने की रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिए 6 नेताओं की कमेटी बनाई गई. इसमें योगी सरकार के मंत्री मोहसिन रज़ा भी शामिल है. इस रणनीति के तहत करीब 40,000 बूथों पर तैनात किए जाने वाले अल्पसंख्यक मोर्चा के ज़्यदातर कार्यकर्ता पसमांदा यानि पिछड़े वर्गों से होंगे.
कांग्रेस ने नहीं दी पसमांदा मुसलमानों को तवज्जो
दरअसल कांग्रेस पर शुरू से ही पसमादां मुसलमानों की अनदेखी का आरोप लगता रहा है. कांग्रेस में केंद्रीय स्तर के साथ ही सूबे की राजनीति में मोहसिना किदवई, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान से लेकर सलमान खुर्शीद तक सबका ताल्लुक अगड़े वर्गों से रहा. 1974 से 1985 तक उन्नाव से सासंद और इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रहे ज़ियाउर्रहामन अंसारी के अलावा कांग्रेस में मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों से किसी और को मौका नहीं मिला. अलग-अलग समय में कांग्रेस में मज़बूत रहे मुस्लिम नेताओं पर पार्टी में पसमांदा मुसलमानों की अनदेखी के गंभीर आरोप हैं. न कभी उन्हें पार्टी संगठन में उचित प्रतिनिधित्व मिल पाया और ना ही लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकटों में वाजिब हिस्सेदारी मिल पाई. कांग्रेस में हमेशा से कुलीन वर्गो के मुसलमानों का वर्चस्व रहा है. आज भी हालात नहीं बदले.
एसपी, बीएसपी में भी रहे उपेक्षित
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो दशकों तक बारी-बारी से सत्ता में रहीं समाजवादी पार्टी और बीएसपी में भी पसमांदा यानि पिछड़े वर्गों के मुसलमानों को तवज्जो नहीं मिली. समाजवादी पार्टी में आजम ख़ान मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करते रहे तो बीएसपी में यही भूमिका नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने निभाई. दोनों ही बड़े नेता अपनी अपनी पार्टियों की सरकारों में कद्दावर मंत्री रहे. एसपी और बीएसपी की सरकारों में पिछड़े वर्गों के मुसलमानों की अनदेखी के लिए इन दोनों नेताओं को भी जिम्मेदार माना जाता है. आज़म खान पर तो एसपी में रहे पिछड़े वर्गों के मुस्लिम नेता खुलेआम आरोप लगाते रहे कि वो उन्हें पार्टी में आगे नहीं बढ़ने देते. शायद यही वजह है कि आज़म की गिरफ्तारी के बाद से एसपी के मुस्लिम नेताओं ने उनकी रिहाई के लिए कोई ख़ास आंदोलन नहीं चलाया. नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी को जब मायावती ने बाहर का रास्ता दिखाया तो उन्हें भी पार्टी के मुस्लिम नेताओं का समर्थन नहीं मिला.
बीजेपी ने स्थिति का फायदा उठाया
बीजेपी ने इस स्थिति का फायदा उठाया. 2014 में केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों की सुध लेनी शुरू की. सबसे पहले पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा के अध्यक्ष के रूप में 5 साल पसमांदा तबके से ताल्लुक रखने वाले अब्दुल रशीद अंसारी को मौका दिया. बाद में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में आतिफ रशीद को उपाध्यक्ष बनाया, वह भी पसमादां तबक़े यानि पिछड़े वर्ग से आते हैं. छह महीने पहले बीजेपी ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चे का पुनर्गठन किया तो साबिर अली को इसका महासचिव बनाया. साबिर 2015 में बीजेपी में शामिल होने के बाद से ही हाशिए पर चल रहे थे. उत्तर प्रदेश में भी पार्टी संगठन और कई बोर्डों में पसमांदा मुसलमानों को जगह दी गई है. अब चुनावी प्रबंधन में पसमांदा तबके के कार्यकर्ताओं को ज़िम्मेदारी देकर बीजेपी उन्हें साथ लेकर चलने का संदेश दे रही है.
सरकारी योजनाओं से हुआ पसमांदा मुसलमानों का फ़ायदा
हालांकि बीजेपी में राष्ट्रीय स्तर पर मुख्तार अब्बास नक़वी और शाहनवाज हुसैन दो ही नेताओं की तूती बोलती है. दोनों ही मुस्लिम समाज में अगड़े तबके से आते हैं. ऐसा माना जाता है कि इन दोनों नेताओं के रहते बीजेपी में किसी भी पिछड़े वर्ग के मुसलमान का कोई भविष्य नहीं है. लेकिन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने हुनर हाट कार्यक्रम के ज़रिए मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों में अच्छी खासी पैठ बनाई है. ग़ौरतलब है कि मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों का नाता दस्तकारी और दूसरी तरह की हुनरमंदी से है. हुनर हाट से इन कारीगरों को अच्छा खासा फायदा पहुंचा है. दो महीने पहले रामपुर में हुनर हाट के आयोजन के मौक़े पर केंद्र के कई मंत्री शिरकत करने पहुंचे थे. वहां इस बात को रेखांकित किया गया कि समाज के पिछड़े वर्गों को केंद्र सरकार की योजनाओं से कितना फायदा पहुंचा है.
यूपी में 80 फीसदी हैं पसमांदा मुसलमान
सूत्रों के अनुसार हुनर हाट के जरिए अब बीजेपी कहार, केवट-मल्लाह, कुम्हार, कुंदजा, गुज्जर, गद्दी-घोसी, कुरैशी, जोगी, माली, तेली, दर्जी, नट, बंजारा, बढ़ई, चूड़ीदार, जुलाहा, मंसूरी, धुनिया, रंगरेज, लोहार, हज्जाम, धोबी, मोची, राजमिस्तरी जैसे समुदायों पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है. पार्टी मान रही है कि इस क़दम से यूपी विधानसभा चुनाव में उसे फायदा मिलेगा. पसमांदा मुसलमान यूपी की मुस्लिम आबादी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा हैं. इसके अलावा मुसलमानों और हिंदुओं में कुछ सामान्य जातियां हैं. ग़ौरतलब है कि हुनर हाट में हिस्सा लेने वाले कारीगरों को सरकार से 1500 रुपये का दैनिक भत्ता, ट्रेन का किराया, उनका मार्गदर्शन करने के लिए एक साथी का और उनके उत्पादों को लाने के लिए परिवहन का खर्च भी मिलता है. कारीगरों को अपनी बिक्री की पूरी आय भी रखनी होती है. कारीगरों को इस तरह आर्थिक रुप से मज़बूत करने की क़वायद से वो बीजेपी की तरफ आकर्षित हो सकते हैं.
बीजेपी ने चुपके से यूपी विधानसभा चुनाव में पसमांदा कार्ड तो खेल दिया है. इससे उसकी चुनावी संभावनाओं पर कितना असर पड़ेगा, इस बार में अभी कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. मुस्लिम समाज व्यापक तौर पर बीजेपी के इस क़दम को मुस्लिम वोटों में विभाजन की साज़िश के तौर पर देखेगा. लेकिन अगर पसमांदा मुसलमानों ने इसे राजनीति में अपने पैर जमाने के मौक़े के तौर पर लिया तो बीजेपी को मुस्लिम समाज में घुसपैठ करने का बड़ा मौक़ा मिल सकता है.