यह परिवर्तन भारत के पड़ोसी देश चीन की आर्थिक व सामरिक क्षमताओं में परिवर्तन आने से जुड़ा हुआ है जिसका नजारा हम एशिया के जल क्षेत्रों में अमेरिका व चीन के बीच बढ़ती नौसैनिक स्पर्धा में देख रहे हैं। इससे निपटने के लिए ही भारत ने अमेरिका, जापान व आस्ट्रेलिया के नौसैनिक सहयोग करके 'चतुष्पद सुरक्षा व्यूह' (क्वैड) में शामिल होने का फैसला किया। इन चारों देशों के प्रमुखों की बैठक पिछले 13 मार्च को ही हुई थी जिसमें हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र को स्वतन्त्र व मुक्त बनाने का फैसला किया गया था और एक-दूसरे देश की लोकतान्त्रिक परंपराओं का सम्मान करते हुए किसी पर भी दबाव न बनाते हुए क्षेत्रीय हितों की रक्षा का वचन दिया गया था। मगर एक महीने बाद ही अमेरिका ने इसे धत्ता बताते हुए जिस प्रकार की घौंस चलाने का काम किया है उससे भारत की चिन्ताएं बढ़नी स्वाभाविक हैं। अमेरिका कह रहा है कि उसने यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय जल यातायात नियमों के तहत ही किया है और पूर्व में भी वह ऐसा करता रहा है तथा आगे भी करता रहेगा। उसका कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय जल परिवहन नियमों के मुताबिक उसे किसी भी देश के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हित जल क्षेत्रों में आने-जाने का अधिकार है। अमेरिकी नौसेना दैनिक आधार पर हिन्द-प्रशान्त जल क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं। यह सब अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत ही किया जाता है। अतः अमेरिका इन नियमों के मुताबिक जहां चाहेगा वहां उड़ान भरेगा और जल भ्रमण करेगा। पूर्व में भी अमेरिका ऐसा करता रहा है। बेशक अमेरिका के इस कथन में वजन है क्योंकि अमेरिकी रक्षा विभाग हर वर्ष अपने नौसैनिक बेड़ोंं की गतिविधियों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित करता है और 2019 की इसकी रिपोर्ट में 21 अन्य देशों के साथ भारत का नाम भी आया है। अन्य देशों में चीन, रूस के साथ बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव व सऊदी अरब आदि देशों के नाम भी हैं। भारत का नाम 2015, 2016 व 2017 की रिपोर्ट में भी आया था। मगर भारत के विशिष्ट जल क्षेत्र में घुस कर फेरा लगाने की घोषणा अमेरिका ने पहली बार की है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में इसके गम्भीर अर्थ निकलते हैं। सबसे पहला तो यह कि अमेरिका ऐसा करके किसे चेतावनी दे रहा है? पिछले महीने ही अमेरिका के रक्षामन्त्री श्री आस्टिन भारत यात्रा पर आये थे और उन्होंने यकीन जताया था कि अमेरिका के नये राष्ट्रपति श्री बाइडेन की सरकार भारत के साथ अपने सामरिक रिश्तों को और मजबूत व प्रगाढ़ बनाने पर जोर देगी। सवाल पैदा होता है कि इस प्रगाढ़ता का पैमाना क्या होगा कि भारत की इजाजत लिये बिना ही अमेरिका अपने युद्धपोतों को भारत के विशिष्ट जल क्षेत्रों में घुसा दे और उस पर उन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों की दुहाई दे जिन पर इसने अभी तक दस्तखत ही नहीं किये हैं।
1995 में राष्ट्रसंघ द्वारा बनाये गये विश्व के समुद्री जल क्षेत्रों के कानून पर भारत ने हस्ताक्षर कर दिये थे जबकि अमेरिका ने अभी तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। इसके बावजूद अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय जल नियमों की दुहाई दे रहा है। भारतीय नौसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल अरुन प्रकाश ने इसी मुद्दे पर प्रकाश डालते हुए जो ट्वीट किया है वह विचारणीय है कि अमेरिका की असल नीयत क्या है? क्योंकि दक्षिण चीनी सागर जब अमेरिकी नौसैनिक बेड़े सक्रिय होते हैं तो उसका खास मकसद चीन को उसकी हदों में रहने की हिदायत देने का होता है। इसकी वजह यह है कि चीन इस क्षेत्र में कृत्रिम टापू बना कर अपनी नौसैनिक शक्ति का दबदबा कायम करना चाहता है। परन्तु लक्ष्यद्वीप के निकट आकर नौसैनिक शक्ति के प्रदर्शन का मन्तव्य क्या हो सकता है? अतः भारत को अपने राष्ट्रहित सर्वोपरि रख कर सर्वप्रथम यह सोचना होगा कि अमेरिका अपनी ताकत की अकड़ में अपनी चौधराहट जमाने की कोशिश न करे। क्योंकि जहां तक भारत के साथ अमेरिका के सम्बन्धों का पिछला इतिहास है वह रक्षा मोर्चे पर कडुवाहट भरा है। हमने उसकी नौसेना के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास का दौर जरूर शुरू किया है मगर उसका अर्थ भारत की संप्रभुता से समझौता करने का बिल्कुल नहीं है। हमारी सेनाएं हर मोर्चे पर दुनिया की बेजोड़ सेनाएं हैं। अतः हमे अमेरिका लारा-लप्पा देकर अपनी धौंस नहीं जमा सकता।
''तू दोस्त किसी का भी सितमगर न हुआ था
औरों पे है वो जुल्म जो मुझ पर न हुआ था।''