मास्को या वाशिंगटन में से किसी एक विकल्प को चुनने का अमेरिकी दबाव भारत-अमेरिका रिश्तों में कड़वाहट ही घोलेगा

यूक्रेन पर रूसी हमला 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' का ताजा उदाहरण है

Update: 2022-03-09 14:43 GMT

ब्रह्मा चेलानी।

यूक्रेन पर रूसी हमला 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' का ताजा उदाहरण है। यह बताता है कि वैश्विक ढांचे को एक व्यवस्था के अनुरूप चलने के दावे भोथरे हैं। इस सदी के इतिहास और विशेषकर 2001 से ही संप्रभु देशों पर सैन्य हमलों को ही देखिए। अंतरराष्ट्रीय कानून कमजोरों के खिलाफ मजबूत, किंतु ताकतवर के विरुद्ध असहाय दिखते हैं। चाहे रूसी आक्रमण हो या फिर पश्चिम द्वारा रूस पर प्रतिबंधों की आड़ में छेड़ा गया आर्थिक युद्ध, दोनों ही गलत हैं और नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय ढांचे का मखौल उड़ाते हैं। रूस की आक्रामकता यदि यूक्रेन की क्षेत्रीय संप्रभुता का उल्लंघन करती है तो पश्चिम का आर्थिक युद्ध रूस की आर्थिक संप्रभुता पर आघात करने वाला है। इस संघर्ष में वैश्विक ढांचे को बदलने की क्षमता है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय राजनीति, दोनों में ध्रुवीकरण बढ़ सकता है।

एक नए शीत युद्ध की आहट सुनाई पड़ रही है। इसमें अमेरिका वापस 'या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे खिलाफ' वाला रवैया अपनाता दिख रहा है। इस स्थिति में तटस्थ या संतुलित रुख अपनाने वाले देशों पर दबाव बढ़ जाता है। इससे अमेरिका के साथ उन देशों के रिश्ते भले ही टूटें नहीं, लेकिन जटिल जरूर बन जाते हैं, जो वाशिंगटन के आर-पार वाले नजरिये से इतर तटस्थ रुख रखते हों। रूस के खिलाफ भारत को अपने पाले में खींचने के बाइडन प्रशासन के प्रयास कुछ ऐसे ही हैं। सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ आए प्रस्ताव पर भारत की अनुपस्थिति को लेकर टीम बाइडन भारत पर हमलावर हो गई। वह भी तब जबकि भारत ने रूस द्वारा कूटनीतिक मार्ग का परित्याग करने की आलोचना और हिंसा समाप्त करने का निरंतर आह्वान किया।

एक अमेरिकी न्यूज वेबसाइट के अनुसार अमेरिकी विदेश विभाग ने एक केबल में कहा है कि यूक्रेन को लेकर भारत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के तटस्थ रुख ने उन्हें 'रूस के पाले' में पहुंचा दिया है। दरअसल अमेरिकी कूटनीति का यही इतिहास रहा है कि उसमें संदेश या चेतावनी जारी करने के लिए मीडिया 'लीक्स' का सहारा लिया जाता है। जैसे 1998 में चीन के साथ भारत के संबंधों को बिगाडऩे में व्हाइट हाउस से प्रधानमंत्री वाजपेयी की अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को परमाणु परीक्षणों के संदर्भ में लिखी चिट्ठी लीक की गई। उक्त वेबसाइट के जरिये इशारों में यह भी कहा गया कि यदि नई दिल्ली वाशिंगटन के रुख से सहमति नहीं जताती तो भारत में लोकतंत्र की स्थिति और अल्पसंख्यकों की कथित अनदेखी पर सार्वजनिक विमर्श शुरू हो सकता है। यूएई पर तो अमेरिकी दबाव ने असर भी दिखाया। जो यूएई 25 फरवरी को सुरक्षा परिषद की बैठक में तटस्थ रहा, उसने 2 मार्च को हुई आमसभा की बैठक में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। हालांकि भारत का रवैया पहले जैसा ही रहा। यहां एक विरोधाभास दिखता है। चीन ने करीब 23 महीनों तक भारत की सीमा पर अपना दुस्साहस दिखाया, लेकिन किसी भी पश्चिमी देश के राष्ट्रप्रमुख ने चीन की निंदा नहीं की। यहां तक कि उन्होंने चीन से अपनी फौज पीछे हटाने को भी नहीं कहा, जिसने हिमालयी क्षेत्र में करीब दो लाख सैनिकों का जमावड़ा कर लिया था, जो द्विपक्षीय समझौते का घोर उल्लंघन था। इसके बावजूद पश्चिमी देश यह चाहते हैं कि यूक्रेन पर रूसी हमले के मामले में भारत उनके पक्ष में खड़ा रहे, जबकि भारत न तो नाटो का सदस्य है और न ही यूरोपीय संघ का।

जब ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति थे, तब उनके शीर्ष अमले ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई। उनके विदेश मंत्री रहे माइक पोंपियो से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार राबर्ट ओ ब्रायन नियमित रूप से भारत के खिलाफ चीनी आक्रामकता पर बीजिंग को आड़े हाथों लेते रहे। उन्होंने इसे 'बेहद आक्रामक कदम', 'अस्वीकार्य व्यवहार' और 'स्पष्ट रूप से उकसाने' वाली कवायद बताया। इसके उलट चीन से पुन: रिश्तों को सुधारने की प्राथमिकता देने वाला बाइडन प्रशासन चीनी आक्रामकता के मामले में भारत के सार्वजनिक समर्थन से बचता रहा। इतना ही नहीं बाइडन ने चीनी आक्रामकता को हिंद-प्रशांत रणनीति का हिस्सा न मानकर भारत के साथ नियंत्रण रेखा से जुड़ा मसला बताया। चीन तो छोडि़ए, पाकिस्तान के मामले में भी टीम बाइडन ने भारत को ठोस समर्थन नहीं दिया। 'एक प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी' के रूप में वह पाकिस्तान पर निरंतर दांव लगा रहा है। वह भी तब जब पाकिस्तान के पिट्ठुओं यानी तालिबान के हाथों उसे अफगानिस्तान में अपमानजनक हार मिली। पाकिस्तान पर किसी प्रकार के प्रतिबंध लगाने में बाइडन की नाकामी के चलते ही वह अभी तक आतंकी देशों की अमेरिकी सूची से बाहर है। इसके बावजूद टीम बाइडन यही चाहती है कि यूक्रेन मसले पर भारत उनका पुरजोर समर्थन करे।

यह सही है कि अमेरिका भारत का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार बनता जा रहा है, लेकिन दशकों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का कवच बनता आया रूस भी हमारा उतना ही महत्वपूर्ण मित्र है। ऐसी स्थिति में क्या भारत पश्चिम के साथ मिलकर उस देश के खिलाफ मतदान करता, जो ब्रह्मोस मिसाइल से लेकर परमाणु पनडुब्बी जैसी तकनीक और रक्षा साजोसामान की आपूर्ति का अहम स्रोत बना हुआ है? चीन के खिलाफ भारत को सामरिक रूप से मजबूत बनाने के लिए रूस एस-400 एयर एवं एंटी-मिसाइल सिस्टम को अग्र्रिम रूप से देने की तैयारी कर रहा है।

अमेरिका भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को महत्व देता है। भारत को भी यही करना चाहिए। मास्को के साथ रिश्तों के बिगडऩे का अर्थ होगा भारत की अमेरिका पर निर्भरता बढऩा, जिस पर भरोसा करना बड़ा संदिग्ध है। अमेरिका पहले से ही भारत के बड़े हथियार सौदे हासिल कर रहा है, फिर भी वह यही चाहता है कि वही भारत को सभी हथियारों की आपूर्ति करे। रूस से भारत की रक्षा आपूर्ति के लिए उसने 2017 में काट्सा नाम से एक घरेलू कानून भी बनाया। अब इस नए शीत युद्ध की आहट से अमेरिका के ऐसे प्रयास और तेज ही होंगे। फिलहाल भारत सबसे ज्यादा सालाना सैन्य अभ्यास अमेरिका के साथ कर रहा है। भारत को हथियारों की बिक्री के मामले में भी अमेरिका ने रूस को पछाड़ दिया है। नई दिल्ली भी वाशिंगटन से अपने रिश्तों को और गहराई देने के प्रति उत्सुक है। ऐसी स्थिति में भारत के साथ 'इधर या उधर' वाला व्यवहार उचित नहीं कहा जाएगा। रूस और अमेरिका में से किसी एक विकल्प को चुनने का दबाव केवल भारत और अमेरिका के रिश्तों में बढ़ती मिठास को कम करने का ही काम करेगा।
ब्रह्मा चेलानी। यूक्रेन पर रूसी हमला 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' का ताजा उदाहरण है। यह बताता है कि वैश्विक ढांचे को एक व्यवस्था के अनुरूप चलने के दावे भोथरे हैं। इस सदी के इतिहास और विशेषकर 2001 से ही संप्रभु देशों पर सैन्य हमलों को ही देखिए। अंतरराष्ट्रीय कानून कमजोरों के खिलाफ मजबूत, किंतु ताकतवर के विरुद्ध असहाय दिखते हैं। चाहे रूसी आक्रमण हो या फिर पश्चिम द्वारा रूस पर प्रतिबंधों की आड़ में छेड़ा गया आर्थिक युद्ध, दोनों ही गलत हैं और नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय ढांचे का मखौल उड़ाते हैं। रूस की आक्रामकता यदि यूक्रेन की क्षेत्रीय संप्रभुता का उल्लंघन करती है तो पश्चिम का आर्थिक युद्ध रूस की आर्थिक संप्रभुता पर आघात करने वाला है। इस संघर्ष में वैश्विक ढांचे को बदलने की क्षमता है। इससे विश्व अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय राजनीति, दोनों में ध्रुवीकरण बढ़ सकता है।
एक नए शीत युद्ध की आहट सुनाई पड़ रही है। इसमें अमेरिका वापस 'या तो आप हमारे साथ हैं या फिर हमारे खिलाफ' वाला रवैया अपनाता दिख रहा है। इस स्थिति में तटस्थ या संतुलित रुख अपनाने वाले देशों पर दबाव बढ़ जाता है। इससे अमेरिका के साथ उन देशों के रिश्ते भले ही टूटें नहीं, लेकिन जटिल जरूर बन जाते हैं, जो वाशिंगटन के आर-पार वाले नजरिये से इतर तटस्थ रुख रखते हों। रूस के खिलाफ भारत को अपने पाले में खींचने के बाइडन प्रशासन के प्रयास कुछ ऐसे ही हैं। सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ आए प्रस्ताव पर भारत की अनुपस्थिति को लेकर टीम बाइडन भारत पर हमलावर हो गई। वह भी तब जबकि भारत ने रूस द्वारा कूटनीतिक मार्ग का परित्याग करने की आलोचना और हिंसा समाप्त करने का निरंतर आह्वान किया।
एक अमेरिकी न्यूज वेबसाइट के अनुसार अमेरिकी विदेश विभाग ने एक केबल में कहा है कि यूक्रेन को लेकर भारत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के तटस्थ रुख ने उन्हें 'रूस के पाले' में पहुंचा दिया है। दरअसल अमेरिकी कूटनीति का यही इतिहास रहा है कि उसमें संदेश या चेतावनी जारी करने के लिए मीडिया 'लीक्स' का सहारा लिया जाता है। जैसे 1998 में चीन के साथ भारत के संबंधों को बिगाडऩे में व्हाइट हाउस से प्रधानमंत्री वाजपेयी की अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को परमाणु परीक्षणों के संदर्भ में लिखी चिट्ठी लीक की गई। उक्त वेबसाइट के जरिये इशारों में यह भी कहा गया कि यदि नई दिल्ली वाशिंगटन के रुख से सहमति नहीं जताती तो भारत में लोकतंत्र की स्थिति और अल्पसंख्यकों की कथित अनदेखी पर सार्वजनिक विमर्श शुरू हो सकता है। यूएई पर तो अमेरिकी दबाव ने असर भी दिखाया। जो यूएई 25 फरवरी को सुरक्षा परिषद की बैठक में तटस्थ रहा, उसने 2 मार्च को हुई आमसभा की बैठक में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। हालांकि भारत का रवैया पहले जैसा ही रहा। यहां एक विरोधाभास दिखता है। चीन ने करीब 23 महीनों तक भारत की सीमा पर अपना दुस्साहस दिखाया, लेकिन किसी भी पश्चिमी देश के राष्ट्रप्रमुख ने चीन की निंदा नहीं की। यहां तक कि उन्होंने चीन से अपनी फौज पीछे हटाने को भी नहीं कहा, जिसने हिमालयी क्षेत्र में करीब दो लाख सैनिकों का जमावड़ा कर लिया था, जो द्विपक्षीय समझौते का घोर उल्लंघन था। इसके बावजूद पश्चिमी देश यह चाहते हैं कि यूक्रेन पर रूसी हमले के मामले में भारत उनके पक्ष में खड़ा रहे, जबकि भारत न तो नाटो का सदस्य है और न ही यूरोपीय संघ का।
जब ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति थे, तब उनके शीर्ष अमले ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई। उनके विदेश मंत्री रहे माइक पोंपियो से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार राबर्ट ओ ब्रायन नियमित रूप से भारत के खिलाफ चीनी आक्रामकता पर बीजिंग को आड़े हाथों लेते रहे। उन्होंने इसे 'बेहद आक्रामक कदम', 'अस्वीकार्य व्यवहार' और 'स्पष्ट रूप से उकसाने' वाली कवायद बताया। इसके उलट चीन से पुन: रिश्तों को सुधारने की प्राथमिकता देने वाला बाइडन प्रशासन चीनी आक्रामकता के मामले में भारत के सार्वजनिक समर्थन से बचता रहा। इतना ही नहीं बाइडन ने चीनी आक्रामकता को हिंद-प्रशांत रणनीति का हिस्सा न मानकर भारत के साथ नियंत्रण रेखा से जुड़ा मसला बताया। चीन तो छोडि़ए, पाकिस्तान के मामले में भी टीम बाइडन ने भारत को ठोस समर्थन नहीं दिया। 'एक प्रमुख गैर-नाटो सहयोगी' के रूप में वह पाकिस्तान पर निरंतर दांव लगा रहा है। वह भी तब जब पाकिस्तान के पिट्ठुओं यानी तालिबान के हाथों उसे अफगानिस्तान में अपमानजनक हार मिली। पाकिस्तान पर किसी प्रकार के प्रतिबंध लगाने में बाइडन की नाकामी के चलते ही वह अभी तक आतंकी देशों की अमेरिकी सूची से बाहर है। इसके बावजूद टीम बाइडन यही चाहती है कि यूक्रेन मसले पर भारत उनका पुरजोर समर्थन करे।
यह सही है कि अमेरिका भारत का एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार बनता जा रहा है, लेकिन दशकों से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत का कवच बनता आया रूस भी हमारा उतना ही महत्वपूर्ण मित्र है। ऐसी स्थिति में क्या भारत पश्चिम के साथ मिलकर उस देश के खिलाफ मतदान करता, जो ब्रह्मोस मिसाइल से लेकर परमाणु पनडुब्बी जैसी तकनीक और रक्षा साजोसामान की आपूर्ति का अहम स्रोत बना हुआ है? चीन के खिलाफ भारत को सामरिक रूप से मजबूत बनाने के लिए रूस एस-400 एयर एवं एंटी-मिसाइल सिस्टम को अग्र्रिम रूप से देने की तैयारी कर रहा है।
अमेरिका भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को महत्व देता है। भारत को भी यही करना चाहिए। मास्को के साथ रिश्तों के बिगडऩे का अर्थ होगा भारत की अमेरिका पर निर्भरता बढऩा, जिस पर भरोसा करना बड़ा संदिग्ध है। अमेरिका पहले से ही भारत के बड़े हथियार सौदे हासिल कर रहा है, फिर भी वह यही चाहता है कि वही भारत को सभी हथियारों की आपूर्ति करे। रूस से भारत की रक्षा आपूर्ति के लिए उसने 2017 में काट्सा नाम से एक घरेलू कानून भी बनाया। अब इस नए शीत युद्ध की आहट से अमेरिका के ऐसे प्रयास और तेज ही होंगे। फिलहाल भारत सबसे ज्यादा सालाना सैन्य अभ्यास अमेरिका के साथ कर रहा है। भारत को हथियारों की बिक्री के मामले में भी अमेरिका ने रूस को पछाड़ दिया है। नई दिल्ली भी वाशिंगटन से अपने रिश्तों को और गहराई देने के प्रति उत्सुक है। ऐसी स्थिति में भारत के साथ 'इधर या उधर' वाला व्यवहार उचित नहीं कहा जाएगा। रूस और अमेरिका में से किसी एक विकल्प को चुनने का दबाव केवल भारत और अमेरिका के रिश्तों में बढ़ती मिठास को कम करने का ही काम करेगा।


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