UP Assembly Elections: क्या अखिलेश यादव के सौतेले व्यवहार के कारण मुलायम सिंह यादव परिवार टूट रहा है?
अगर सिर्फ यह कहा जाए कि अपर्णा यादव कल भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गयीं
अजय झा।
अगर सिर्फ यह कहा जाए कि अपर्णा यादव (Aparna Yadav) कल भारतीय जनता जनता पार्टी में शामिल हो गयीं तो उत्तर प्रदेश में भी अधिकतर लोग कहेंगे अपर्णा कौन? बस अपर्णा के नाम के साथ उनका संक्षिप्त परिचय जोड़ दीजिए तो लोग समझ जाएंगे. अपर्णा ना तो कोई नेता हैं और ना ही अभिनेता. पांच वर्ष पहले उनका नाम चर्चा में आया था जब वह लखनऊ छावनी विधानसभा से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के टिकट पर चुनाव लड़ी थीं और बुरी तरह हार गयी थीं. अपर्णा कोई और नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) की छोटी पुत्रबधू हैं.
बीजेपी के लिए अर्पणा यादव का कितना महत्व है, वह इससे ही जाहिर हो जाता है कि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में नहीं बल्कि बीजेपी के नई दिल्ली स्थित मुख्यालय में शामिल किया गया, ताकि इसकी चर्चा पूरे देश में हो. बता दें कि दूसरे दलों के सिर्फ बड़े और कद्दावर नेताओं को बीजेपी मुख्यालय में आमंत्रित करके पार्टी में शामिल किया जाता है. उदाहरण के लिए, पूर्व भारतीय सेना प्रमुख जनरल जे.जे. सिंह को मंगलवार को बीजेपी के चंडीगढ़ स्थित कार्यालय में ही सदस्यता प्रदान की गयी थी और अपर्णा यादव को नई दिल्ली बुलाया गया. जाहिर सी बात है कि जनरल जे.जे. सिंह का नाम बीजेपी पंजाब चुनाव में इतना नहीं भुना पाएगी, जितना कि उत्तर प्रदेश चुनाव में इस बात से कि मुलायम सिंह यादव की पुत्रबधू बीजेपी में शामिल हो गयी हैं.
बीजेपी को बड़े राजनीतिक घरानों में सेंध लगाने में महारात हासिल हो गई है
बीजेपी को अब बड़े राजनीतिक घरानों में सेंध लगाने की कला में महारत हासिल होती जा रही है. अपर्णा यादव एक बड़े राजनीतिक घराने की पहली पुत्रबधू नहीं हैं, जिन्होंने बीजेपी का दामन थामा हो.
2004 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बीजेपी भारत के पहले और दूसरे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु और लाल बहादुर शास्री के परिवार में भी सेंध लगाने में सफल रही थी. इदिरा गांधी की छोटी बहू मेनका गांधी अपने पुत्र वरुण गांधी के साथ बीजेपी में शामिल हुई थीं और लगभग उसी समय लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री भी बीजेपी में शामिल हुए थे.
यह अलग बात हैं कि सुनील शास्त्री पिछले महीने कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और वरुण गांधी कभी भी, शायद 2024 के चुनाव के पूर्व, कांग्रेस पार्टी में शामिल हो सकते हैं. कारण– बीजेपी को अब नेहरु-गांधी या शास्त्री परिवार के बैसाखी की जरूरत नहीं है, उनकी उपयोगिता अब ख़त्म हो गई है, क्योंकि 2004 के मुकाबले बीजेपी काफी मजबूत हो चुकी है और कांग्रेस पार्टी काफी कमजोर.
यह शायद अपर्णा यादव के लिए भी एक संदेश हो, पर चूंकि वह सीरियस किस्म की नेता नहीं हैं और उनका इरादा शायद अपने पति प्रतीक यादव के सौतेले भाई अखिलेश यादव को मज़ा चखाने तक ही सिमित है, लिहाजा उन्हें इस बात की चिंता नहीं है कि भविष्य में जब उनकी भी उपयोगिता ख़त्म हो जाएगी तो वह भी बीजेपी में मेनका-वरुण गांधी तथा सुनील शास्त्री की तरह हाशिए पर आ जाएंगी.
अपर्णा यादव के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा था
अपर्णा यादव का अखिलेश यादव के प्रति गुस्सा जायज है. समाजवादी पार्टी परिवारवाद को बढ़ावा देने में कुख्यात रहा है. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव तीन बार लोकसभा चुनाव लड़ चुकी हैं और 2012 से 2019 तक सांसद रहीं पर अब तक सही अर्थों में नेता नहीं बन पाईं हैं.
अगर अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने इसलिए अपर्णा यादव को टिकट देने से इनकार कर दिया कि वह 2017 में चुनाव हार गयी थीं, तो फिर डिंपल यादव भी 2009 के लोकसभा उपचुनाव में, जो उनका पहला चुनाव था, पराजित हुई थीं.
2009 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव कन्नौज और फिरोजाबाद दोनों सीटों से चुनाव जीते थे. अखिलेश ने फिरोजाबाद सीट से इस्तीफा दे दिया और अपनी पत्नी को चुनावी मैदान में उतारा, पर कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी राज बब्बर के हाथों डिंपल यादव को पराजय का सामना करना पड़ा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में वह फिर से चुनाव हार गयीं पर दो बार चुनाव हारने के बावजूद भी डिंपल यादव का राजनीतिक सफ़र ख़त्म नहीं हुआ है, क्योंकि वह अखिलेश यादव की पत्नी हैं ना कि प्रतीक यादव की.
मुलायम सिंह के समझाने पर भी नहीं मानी अपर्णा
अगर 2017 के चुनाव में मोदी लहर में समाजवादी पार्टी 224 सीटों से लुढ़क कर 47 सीटों पर सिमट गयी थी, तो फिर अपर्णा यादव की हार के लिए उनको दोष देना और फिर उन्हें टिकट देने से इनकार करना किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराया जा सकता. शायद यह अखिलेश यादव का अपर्णा यादव के प्रति सौतेला व्यवहार ही कहा जा सकता है. हो भी क्यों ना, अपर्णा अखिलेश यादव के सौतेले भाई की पत्नी जो हैं. कहा जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव ने अपर्णा को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह बीजेपी में शामिल नहीं हों पर वह असफल रहे.
अखिलेश यादव का यह तर्क कि आतंरिक सर्वे में यह बात सामने आई थी कि लखनऊ छावनी सीट से अपर्णा चुनाव नहीं जीत सकती भी बेमानी लग रहा है. इस बात कि क्या गारंटी है कि अपर्णा का टिकट काट कर किसी और को अगर समाजवादी पार्टी लखनऊ छावनी सीट से उतारती है तो वह चुनाव जीत ही जाएगा.
यादव परिवार में अब अखिलेश के खिलाफ बगावत शुरू हो चुकी है
रही बात बीजेपी की तो पार्टी के लिए अपर्णा यादव को शामिल करके बीजेपी यह संदेश देना चाहती थी, कि जब यादव परिवार में ही एकता नहीं है तो वह उत्तर प्रदेश को एक परिवार के तरह कैसे चला सकेंगे. वही नहीं, समाजवादी पार्टी बीजेपी के तीन मंत्रियों और कुछ विधायकों को शामिल करके जो माहौल बनाना चाहती थी कि बीजेपी के नेता ही पार्टी से खुश नहीं है, बीजेपी ने उसका मुंहतोड़ जवाब दे दिया है.
सिर्फ अपर्णा ही नहीं, उनके पति प्रतीक यादव के मौसा प्रमोद गुप्ता जो समाजवादी पार्टी के पूर्व में बिधुना से विधायक रह चुके हैं और मुलायम सिंह यादव के एक और करीबी रिश्तेदार हरिओम यादव, जो समाजवादी पार्टी के पूर्व विधायक हैं, ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया है.
उत्तर प्रदेश में सात चरणों में चुनाव 10 फरवरी से 7 मार्च के बीच होना है. उत्तर प्रदेश के चुनावी रंगमंच पर अभी कुछ और ड्रामा दिख सकता है. पर इन सबके बीच कहीं ना कहीं जनता के बीच यह संदेश भी जा रहा है कि समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव अब इतने कमजोर और असहाय हो चुके हैं कि वह अपने परिवार और अपने रिश्तेदारों को भी साथ ले कर चलने में असमर्थ हैं, अखिलेश यादव अब उनकी बात नहीं मानते और यादव परिवार में ही अब अखिलेश के खिलाफ बगावत शुरू हो चुकी है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)