UP Assembly Elections 2022: मुसलमानों की ख़स्ता हालत का ज़िम्मेदार कौन? आंकड़े जारी कर ओवैसी ने पूछा लाख टके का सवाल
मुसलमानों की ख़स्ता हालत का ज़िम्मेदार कौन?
यूसुफ़ अंसारी।
शुक्रवार को ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) ने यूपी के मुसलमानों की ख़स्ता हालत पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी करके यह सवाल उठाया कि आख़िर सूबे में मुसलमानों की बदहाली का ज़िम्मेदार कौन है? उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की राजधानी लखनऊ में 'उत्तर प्रदेश में मुस्लिम विकास, सुरक्षा और समावेश' विषय पर हुए इस सम्मेलन में जाने-माने विद्वानों ने हिस्सा लिया. उन्होंने मुसलमानों के विकास से संबंधित अपने अनुभव साझा किए और सरकारी आंकड़ों पर आधारित मुसलमानों की बदहाली की रिपोर्ट जारी की.
लखनऊ में जारी की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक़ सूबे में मुस्लिम समाज शिक्षा, रोज़गार, और ज़मीनों के मालिकाना हक़ के मामले में विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है. 'सेंटर फॉर डेवलपमेंट पॉलिसी एंड प्रैक्टिस' की तरफ से जारी 76 पेज की इस रिपोर्ट में आंकड़ो के ज़रिए सिलसिलेवार तरीक़े से बताया गया है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समाज (Muslim Community) कैसी बदहाल ज़िंदगी गुज़ार रहा है. असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी में यह रिपोर्ट डॉ. वेंकटनरायण मोटूकुरी, प्रो. अब्दुल शाबान, डॉ. अमीर उल्लाह ख़ान, पीसी मोहनन जैसे जाने-माने समाज शास्त्रियों और डाटा विश्लेषकों ने जारी किया है. इसे तैयार करने में जाने-माने रिसर्चर अमिताभ कुंडू, चंद्रशेखर, क्रिस्टोफर जैफ्रेलॉट, उषा सान्याल, विलियम जॉए, एसवी सुब्रमण्यन, सी रवि और पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की भी अहम भूमिका रही है. यह रिपोर्ट 2011 के जनगणना के साथ-साथ शिक्षा और विकास के अन्य क्षेत्रों में काम करने वाली विभिन्न एजेंसियों के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई है.
शिक्षा के क्षेत्र में कहां खड़ा है यूपी का मुसलमान
इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 15 साल से ज्यादा उम्र के 71.2 फीसदी मुसलमान या तो पूरी तरह अनपढ़ हैं या उन्होंने सिर्फ़ प्राइमरी स्तर से भी कम की शिक्षा हासिल की है. राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 58.3 फीसदी है. इसका मतलब है कि देश भर में शिक्षा के औसत आंकड़े से उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच अशिक्षा कहीं ज्यादा है. पीएलएफएस के मुताबिक 2019-20 देशभर में पूरी तरह अशिक्षित लोगों का आंकड़ा 34.01 फीसदी है. जबकि उत्तर प्रदेश में 40.83 फीसदी मुसलमान पूरी तरह अनपढ़ हैं. सिर्फ 28.49 फीसदी मुसलमान ही प्राइमरी स्तर तक पढ़े लिखे हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 25.11 फीसदी है. सूबे में सिर्फ़ 16.8 फीसदी मुसलमान मिडिल स्तर तक यानि आठवीं कक्षा तक पढ़े हुए हैं. राष्ट्रीय स्तर पर ये आंकड़ा 25.5 फीसदी है.
जैसे ही हम उच्च शिक्षा की तरफ बढ़ते हैं, इसमें हिस्सेदारी का मुस्लिम समाज का आंकड़ा तेजी से नीचे गिरता है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश के सिर्फ़ 4.4 फीसदी मुसलमानों के पास विश्वविद्यालय की डिग्री है. हालांकि पिछले एक दशक में इसमें थोड़ा सुधार हुआ. साल 2009-10 तक यह आंकड़ा सिर्फ 2.7 फीसदी था.
सबसे ज्यादा बेरोज़गार हैं मुसलमान
स्थाई रोजगार के मामले में उत्तर प्रदेश का मुसलमान बहुत बुरी स्थिति में है. यूं तो उत्तर प्रदेश में वैसे भी बेरोजगारी की दर देश की औसत बेरोज़गारी दर के आंकड़े से कहीं ज्यादा है. लेकिन मुसलमान इसमें भी एकदम निचले स्तर पर हैं. उत्तर प्रदेश में सिर्फ 25.6 फीसदी लोग ही स्थाई रूप से रोज़गार यानि वेतन भोगी हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 30.6 फीसदी है. उत्तर प्रदेश में सर्विस सेक्टर में कामगारों की हिस्सेदारी 27.3 फीसदी है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 32.2 फीसदी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रदेश के मुसलमानों की बड़ी आबादी अस्थाई रोज़गार से अपनी जिंदगी गुज़ार रही है. जहां राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के मुकाबले इनकी औसत आमदनी बहुत कम है.
इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के कामगारों में मुसलमानों की हिस्सेदारी 30.86 फीसदी है. ये प्रदेश के औसत 33.33 फीसदी से काफी कम है. दलितों मे ये आंकड़ा 34.18 फीसदी और पिछड़े वर्गों में 34.09 फीसदी है. मुसलमानों में बेरोज़गारी दर प्रदेश की कुल बेरोज़गारी दर 4.48 के मुक़बले 5.92 फीसदी है. जबकि दलितों में ये 4.09 फीसदी और पिछड़े वर्गो में 3.46 फीसदी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रदेश में मुसलमानो का हालत दलित और पिछड़े वर्गों के मुकाबले कहीं ज्यादा बदतर है.
ज़मीन जायदाद के मामले में मुसलमान
ज़मीन जायदाद की अगर बात करें तो प्रदेश में मुसलमानों की सबसे ज्यादा ख़स्ता हालत है. 2014-15 में हुई एक अध्ययन के मुताबिक सूबे के 48.05 फीसदी मुसलमान पूरी तरह भूमिहीन हैं. यानि इनके पास किसी तरह की कोई ज़मीन जायदाद नहीं है. इनके पास न खेती की ज़मीन है और न ही रहने के लिए अपना मकान है. जिनके पास ज़मीन है भी, वो बहुत कम है. सूबे के मुसलमानों के पास औसतन सिर्फ 2.03 एकड़ ज़मीन है. जबकि हिंदू समाज के लिए यह आंकड़ा 2.63 फीसदी है. प्रदेश में सिर्फ 1.7 फीसदी मुसलमान ऐसे हैं जिनके पास 5 एकड़ से ज्यादा ज़मीन है. इस हिसाब से देखें तो मुस्लिम समाज प्रदेश में ज़मीन जायदाद पर मालिकाना हक़ के मामले में सबसे निचले पायदान पर खड़ा है.
मुस्लिम समाज में ग़रीबी
लखनऊ में जारी की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में तमाम सामाजिक समूहों में मुस्लिम समाज सबसे ज्यादा ग़रीब है. नेशनल सैंपल सर्वे की 2009-10 की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक मुसलमान औसतन हर महीने में सिर्फ़ 752 रुपए खर्च करने की क्षमता रखता है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 988 रुपए है.
रिपोर्ट का निचोड़
रिपोर्ट में 2011 की जनगणना के हवाले से बताया गया है कि यूपी में मुसलमानों की आबादी क़रीब 3.85 करोड़ है. प्रदेश की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 19.25 प्रतिशत है. देश में मुसलमानो की आबादी का क़रीब 22.34 फीसदी हिस्सा अकेले यूपी में रहता है. राज्य में 37.24 फीसदी मुसलमान ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये आंकड़ा 22.27 फीसदी है. केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय ने प्रदेश में 21 अल्पसंख्यक बहुल जिलों की पहचान की है. ये सभी ज़िले साक्षरता, कामकाज में भागीदारी दर, सुरक्षित पेयजल, बिजली और शौचालय की सुविधा की उपलब्धता की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं. इनमें से 14 जिले राज्य के पश्चिमी क्षेत्र में आते हैं. इनमें बागपत, बदायूं, बरेली, बिजनौर, बुलंदशहर, गाजियाबाद, जेपी नगर, मेरठ, मुरादाबाद, मुजफ्फरनगर, पीलीभीत, रामपुर, सहारनपुर और शाहजहांपुर शामिल हैं. तीन जिले मध्य क्षेत्र में हैं, ये हैं बाराबंकी, लखनऊ और लखीमपुर खीरी. बाक़ी चार जिले नेपाल सीमा पर पूर्वी क्षेत्र में आते हैं. ये हैं बलरामपुर, बहराइच, श्रावस्ती, और सिद्धार्थनगर.
पिछड़े मुस्लमानों की हालत ज्यादा ख़राब
मुसलमानों के बारे में इस रिपोर्ट का कहना है, 'जहां तक उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की स्थिति का सवाल है, तो वे सामाजिक-आर्थिक विकास के प्रमुख संकेतक 2000 के ज्यादातर मामले में सबसे नीचे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पांच जिलों के ग्रामीण इलाकों में किए गए एक अध्ययन में यह पाया गया कि मुसलमान विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़ें हैं.
सामाजिक-आर्थिक विकास के प्रमुख संकेतकों में सभी सामाजिक समूहों में मुस्लिम समाज नीचे से तीसरे स्थान पर रहा है. सभी सामाजिक समूहों में विकास के इन मानदंडों के आधार पर मुसलमानों को अनुसूचित जातियों के साथ 10वां स्थान दिया गया है. एक अध्यन में पता चला है कि मुस्लिम समाज में पिछड़े वर्गो में आने वाला तबका समाजाकि, आर्थिक और शैक्षिक रूप से बाक़ी मुसलमानों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा पिछड़ा है.' ये हालात बताते हैं कि प्रदेश में मुसलमान कितनी ख़स्ता हालत में गुज़र बसर कर रहा है.
आंकड़े जारी करने के पीछे ओवैसी का मक़सद
असदुद्दीन ओवैसी ने ऐन चुनाव से पहले ही आंकड़े जारी करके प्रदेश के सभी राजनीतिक दलों को आईना दिखाने की कोशिश की है. एक तरफ़ वो ये दिखाना चाहते हैं कि सेकुलरिज्म के नाम पर सपा, बसपा और कांग्रेस वर्षों से मुसलमानों के वोट लेती रही हैं, लेकिन उन्होंने उनके विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया. यह आरोप ओवैसी अपनी हर रैली में लगाते हैं. अब आंकड़ों के ज़रिए उन्होंने अपने आरोपों के पक्ष में सबूत पेश करने की कोशिश की है. वहीं उनकी कोशिश बीजेपी को भी बेनकाब करने की है. आंकड़ों के ज़रिए वो दिखाना चाहते हैं कि प्रदेश में 5 साल बीजेपी सरकार रहने के बावजूद मुसलमानों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है. जबकि बीजेपी 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे पर काम करने का दावा करती है. ओवैसी दिखान चाहते हैं कि योगी सरकार प्रधानमंत्री के इस नारे को ज़मीन पर नहीं उतार पाई है.
ज़ाहिर है इन आंकड़ों के सहारे असदुद्दीन ओवैसी प्रदेश में अपनी राजनीति चमकाने और अपनी पार्टी की जड़े मज़बूत करने की कोशिश करेंगे. ओवैसी जो करें, लेकिन ये लाख टके का सवाल तो उन्होंने उठा ही दिया है कि आख़िर मुसलमानों की बदौलत कई बार सत्ता का सुख भोगने वाले मायावती, मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश के राज में मुसलमान इतने पिछड़े क्यों रह गए? चुनाव से पहले प्रदेश में मुसलमानों की बदहाली का कच्चा चिट्ठा खुलने के बाद इस पर बहस तो होगी. कुछ राजनीतिक दल और उनके नेताओं को शर्मिंदा भी होना पड़ेगा. ये आंकड़े चुनावी नतीजों को कितना प्रभावित कर पाएंगे, ये तो आने वाला समय ही बताएगा.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)